प्रकाश का चितेरा l
अंधकार का मित्रवत वैरी l
तारों की आँखों का तारा,
नीले नभ के नीचे विवश प्रहरी l
अधिकारी है अपनी चमक का l
अंधकार की कालिमा का नहीं,
निशा के आंचल में टाँक देता है,
सितारों के मोती l
वह सूरज नहीं जिसके चमकने
पर अंधकार का गला घुटता हो,
तीखी नाराच सी सलाखें
भेदती हों-
कोमल मन के गलियारों को l
और रात्रि में धरती
की ताप का मूल्यांकन करती हों l
यह अंधकार का वैरी नहीं,
अपितु यह तो उसके सँग
उसकी सुंदरता में उसका
मित्रवत, शुद्धमत, ज्ञानमत,
योगमत, विलासमत, आहारमत,
विहारमत, सूक्ष्ममत, विराटमत,
अग्निमत, शीतलमत, संयोगमत,
वियोगमत, नीतिमत, अनीतिमत,
सहयोगी है l
वह नहीं चाहता सूरज चमके
नष्ट कर दे निशा की चादर को
जिसमें वह टंका हुआ है,
सितारों की तरह,
राजाओं में चापलूसों की तरह l
निर्धनों में धनिकों की तरह l
धनिकों में निर्धनों की तरह l
श्वेत रंग है इसकी चमक का,
किन्तु रहता अँधेरे में ही !
शुद्ध तन-मन-धन से उस,
कालिमा की आराधना का
निर्मम अनुरागी है l
उड़ता है पँख फैला कर -
नापने गगन की ऊंचाई
कदाचित-
रह जाता है, गिर कर
उसी अंधकार में -
अंधकार को सजाने-
संवारने l
नहीं है उसमें वह
ओज साहस-प्रकाश की पूर्णता का l
क्योंकि मूल्यांकन उसका
होता है, उसी अंधकार में,
उससे परे नहीं l
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✍️ स्वरचित
अजय श्रीवास्तव