एक गुरु आश्रम में शिष्य मंडली बैठी हुई थी गुरुदेव अपने शिष्यों को उपदेश कर रहे थे ! चर्चा *भगवत्कृपा* पर हो रही थी ! *शिष्य ने गुरु जी से पूछा* कि :- गुरुदेव जब *भगवत्कृपा* होगी और वह अनुकंपा करेंगे तब क्या संसार की समस्त शक्तियां क्षणभर में छिन्न-भिन्न हो जाएंगी ? *गुरुजी ने कहा* हां वत्स ! यदि *भगवत्कृपा* हो तो ऐसा हो सकता है किंतु उनकी कृपा पात्र बनने के लिए स्वयं को शुद्ध बनाना आवश्यक है पहले स्वयं को शुद्ध और पवित्र न बनाओगे तो *भगवतकृपा* कैसे होगी ?
*शिष्य ने फिर पूछा :-* गुरुदेव ! यदि तन , मन , वचन का संयम हो जाए तो *भगवत्कृपा* की आवश्यकता ही क्या है ? यदि संयम ही हो सके तब तो अपनी आत्मोन्नति मनुष्य स्वयं ही कर सकता है !
*गुरुजी ने कहा:-* बेटे ! तू एक बार अंतःकरण से प्रयत्न करके तो देख ! *भगवत्कृपा* होती है या नहीं इस पर बाद में विचार करना ! पुरुषार्थ किए बिना हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से कोई भी *भगवतकृपा* नहीं पा सकता ! *गुरुजी की बात सुनकर शिष्य का कौतूहल बढ़ गया और उसने पुनः पूछा :-* गुरुदेव ! ऐसी बात सुनने में आती है कि जो लोग किसी समय में महापापी और व्यभिचारी थे किसी प्रकार का साधन - भजन किए बिना ही *भगवतकृपा* से अनायास ही उनका दर्शन प्राप्त कर सके ! इसका क्या कारण है ?
*गुरुजी ने शिष्य के इस गूढ़ बचन को सुना और फिर उसको बताया :-* कि जो लोग बाहर से पापी , व्यभिचारी और दुराचारी होते हुए भी ईश्वर दर्शन कर सकें ! इस विषय में अवश्य समझना चाहिए कि उनके हृदय में पहले एक बार अशांति उत्पन्न हो चुकी होती है ! जब इस प्रकार की अशान्ति से उनका हृदय सुलगने लगता है भोगोपभोग के प्रति तिरस्कार उत्पन्न हो जाता है , उन्हें किसी भी प्रकार की शांति नहीं मिलती , तब वे *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए हृदय के पवित्र भाव से प्रार्थना करते हैं और प्रभु से सुनते ही हैं !
*शिष्य ने फिर कहा :-* गुरुदेव ! मैं ऐसा समझता हूं कि जो लोग इंद्रियादि का निग्रह कर काम कंचनादि का त्याग करके *भगवत्कृपा* प्राप्ति के लिए सदा तत्पर रहते हैं उन्हें पुरुषार्थवादी अथवा स्वावलंबी कह सकते हैं , और जो केवल ईश्वर के नाम पर विश्वास रखकर उस पर ही निर्भर रहते हैं उनकी संसारासक्ति ईश्वर स्वयं दूर करते हैं और अंत में यही परम पद भी प्रदान करते हैं !
*गुरुजी ने कहा:-* तुम्हारी बात सत्य है परंतु ऐसे भाव वाले भक्त विरले ही होते हैं ! ऐसे साधन ही कृपा सिद्ध माने जाते हैं ! *अंत में शिष्य ने गुरु जी से पूछा:-* गुरुदेव *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए हमको क्या करना है ? क्या करना चाहिए ?
*गुरुजी ने कहा:-* वत्स ! मैं तुमको कुछ सूत्र बता रहा हूं उसका पालन करके तुम *भगवतकृपा* प्राप्ति के अधिकारी हो सकते हो ! गुरुदेव ने शिष्यों को उपदेश करना प्रारंभ किया और *भगवत्कृपा* प्राप्ति के सूत्र बताना प्रारंभ किया !
*१-* हमारे भगवान अपने ही है हम पर उनका पूर्ण अधिकार है हम सर्वथा उनके हैं और वह हमारे हैं ऐसा मन में पूर्ण विश्वास रखना होगा !
*२-* हमारे प्रिया - प्रियतम इतने सरल हैं कि हमारे पूर्व का इतिहास वे देखते ही नहीं , बस वर्तमान में हमारा भाव कैसा है केवल उसी की ओर देखते हैं !
*३-* यदि एक बार भी हमने सच्चे मन से कह दिया कि *हे नाथ मैं केवल केवल सदा के लिए आपका ही हूं* तो बस भगवान उसी तरह स्वीकार कर लेते हैं और *भगवत्कृपा* बरसाने लगते हैं !
*४* भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण हो जाने पर हमारी सारी जिम्मेदारी भगवान स्वयं संभाल लेते हैं !
*५-* हमें तो बस इतना ही काम करना है कि जिह्वा से उनका नाम लेना है , मन में उनकी मीठी-मीठी स्मृति करते रहना है बस और सारा काम वे अपने आप करेंगे !
*६-* उनकी *अहैतुकी कृपा* हम पर हो चुकी है , ऐसा मानकर प्रतिपल *भगवत्कृपा* को देख कर मुग्ध होते रहना है !
*७-* यदि हमारा खिंचाव भगवान के चरणों में हुआ तो मानना चाहिए कि हम पर किसी महान संत की कृपा हो चुकी है !
*८-* भगवत्प्रेमी का मिलना ही दुर्लभ है यदि मिल गए और हमें अपना लिया तो हमारा काम बन ही गया हां एक बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि उनके मन के विपरीत है हमारा कोई आचरण ना हो !
*९-* कैसी भी परिस्थिति आये , चाहे वह हमारे अनुकूल हो या ना हो , पर हमें उसे अपने प्यारे भगवान का भेजा हुआ प्रसाद मानकर , *भगवत्कृपा* मानकर प्रसन्नता पूर्वक राजी रहना चाहिए !
*१०-* सब में भगवान स्थित है ऐसा समझकर प्रत्येक प्राणी के प्रति नम्र एवं मधुर व्यवहार करना चाहिए !
*११-* अपने आपको *भगवत्कृपा* के आश्रय पर छोड़कर निश्चिंत हो जाना चाहिए !
इन सूत्रों का पालन करके *भगवत्कृपा* का अधिकारी बना जा सकता है ! गुरुदेव की बात सुनकर सारे शिष्य कृतकृत्य हो गए और गुरुदेव के चरणों में प्रणाम कर करते हुए लगे ! गुरुदेव आपने *भगवत्कृपा* के रहस्य को विधिवत समझाया है ! इस संसार में *भगवत्कृपा* के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है !