*भगवतकृपा* का अनुभव एवं दर्शन करने के लिए मनुष्य को *भगवत्कृपा* के विविध स्वरूपों के विषय में जानने की आवश्यकता है ! *भगवत्कृपा* के कई अंग हैं , मनुष्य के ऊपर *मातृकृपा* इसी *भगवत्कृपा* का एक विशेष अंग है ! जिसने *मातृकृपा* एवं माता के अनुग्रह का अनुभव कर लिया समझ लो उसको *भगवत्कृपा* का अनुभव हो गया ! क्योंकि:--
*मातृकृपा भगवत्कृपा दोनों एक समान !*
*माता के ही रूप में मिल जाते भगवान !!*
*माता अरु भगवान में अन्तर नहीं विशेष !*
*माता है करुणामयी तो ईश्वर है करुणेश !!*
(स्वरचित)
कुछ लोग हो सकता है कि हमारी बात से सहमत ना हो , कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि भगवान तो पुरुष वाचक संज्ञा है तो उनको माता कैसे कहा जा सकता है , उनकी तुलना माता से कैसे की जा सकती है ! ऐसे सभी लोगों को ध्यान देना चाहिए कि वह परमात्मा अनेक रूपों में विभक्त होकर के अपनी कृपा समस्त सृष्टि पर बरसा रहे हैं ! जब भी भगवान की प्रार्थना की जाती है तो सबसे पहले भगवान को माता की ही संज्ञा दी गई है ! यथा :--
*त्वमेव माता च पिता त्वमेव ,*
*त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव !*
*त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव ,*
*त्वमेव सर्वं मम देवदेव !!*
ध्यान दीजिए यहां सर्वप्रथम ईश्वर के लिए माता का संबोधन दिया गया है , पहले पिता नहीं कहा गया , बंधु - सखा नहीं कहा गया , धन नहीं कहा गया , विद्या नहीं कही गई ! *सबसे पहले ईश्वर को क्या कहा गया ? सबसे पहले ईश्वर को माता कहा गया !* इसलिए इस बात को गंभीरता से समझना चाहिए कि *भगवत्कृपा* का अनुभव उसी को हो सकता है जिसने अपने *माता की कृपा* प्राप्त की है , जिसने अपनी माता का सम्मान किया ईश्वर का प्रथम रूप माता का ही होता है आरती करते समय भी गाया जाता है:-
*मात पिता तुम मेरे शरण गहूं किसकी*
यहां भी ईश्वर को पहले पिता नहीं कहा गया पहले माता ही कहा गया है ! ईश्वर को सर्वप्रथम माता के नाम से क्यों संबोधित किया गया ? इसका कारण है ! जिस प्रकार ईश्वर जीव को इस संसार में भेज कर उनका पालन पोषण करता है उसी प्रकार एक माता जीव को जन्म देकर के उत्तरोत्तर उसके विकास में सहायक होती है ! यदि माता ना होती तो शायद यह संसार में जीव ही न होता ! *भगवत्कृपा मातृकृपा में ही निहित है !* ईश्वर को किसी ने नहीं देखा ! वह कैसा है ? उसका स्वरूप क्या है ? इसका वर्णन नहीं किया जा सकता , परंतु मैं यह कह सकता हूं कि *यदि ईश्वर का दर्शन करना है तो वह इसी धरती पर माता के रूप में घर-घर में दर्शन दे रहे हैं* यह *विशेष भगवत्कृपा* है ! माँ का स्वरूप बनाकर ईश्वर हमारे सन्निकट सदैव रहते हैं ! जो लोग अपने माता-पिता की उपेक्षा करते हैं वे *भगवत्कृपा* की प्राप्ति कभी नहीं कर सकते ! माता की महिमा का बखान ईश्वर की महिमा से कम नहीं है ! हमारे शास्त्र बताते हैं:--
*हस्तस्पर्शो हि मातृणामजलस्य जलाञ्जलि:*
*अर्थात्:-* पुत्र के लिए माता के हस्त (हाथ) का स्पर्श प्यासे के लिए जलधारा के समान होता है ! अर्थात्:- माता का स्पर्श मनुष्य को जीवनदायिनी शक्ति देता है , उसे सदा यह विश्वास होता है कि सारी दुनिया चाहे उसे छोड़ दे पर माता उसका त्याग नहीं करेगी , माँ का साथ होना, उसे कभी अकेलेपन का आभास नहीं होने देता ! इतना ही नहीं बल्कि मां की महिमा का बखान हमारे पुराणों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है ! यथा :--
*नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गति: !*
*नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रपा !!*
(स्कन्दपुराण)
*अर्थात:-* माँ के समान छाया नहीं है , माँ के समान कोई गति नहीं है , माँ के समान कोई त्राता या रक्षा करने वाला नहीं है , माँ के समान कोई प्रपा या प्याऊ नहीं है ! इस श्लोक का यह भाव है कि माता की छत्रछाया में एक मनुष्य को आजीवन शीतल छाया अर्थात् सुरक्षा मिलती रहती है ! माता की आज्ञा का पालन करना , सेवा करना ही उसकी सबसे बड़ी गति है ! माँ के समान इस ब्रह्माण्ड में कोई दूसरा नहीं है जो उसकी रक्षा कर सके ! माता ही उसके जीवन की सारी कमियों को दूर करके उसे जल की तरह शीतल, शुद्ध, पवित्र और प्रवहणशील बनाती है ! उपरोक्त उपाख्यानों से यह सिद्ध हो जाता है कि *भगवत्कृपा* प्राप्त करने की प्रथम सीढ़ी *मातृकृपा* को प्राप्त करना है ! *कुछ लोग यह भी विचार कर रहे होंगे की भगवत्कृपा की इस श्रृंखला में माता की महिमा का बखान क्यों किया जा रहा है !* तो उनके लिए यही कहना चाहूंगा इस संसार में *भगवत्कृपा* का प्रथम स्वरूप *मातृ कृपा* ही है ! बिना इसका अनुभव किए *भगवत्कृपा* को ना तो जाना जा सकता है और ना ही पहचाना जा सकता है !