*भगवत्कृपा* के अन्तर्गत *कृपातत्व विमर्श* करते हुए मानस जी के कुछ *कृपा रत्नों* की चर्चा हम यहाँ कर रहे हैं ! मर्यादा पुरुषोत्तम *भगवान श्री राम की कृपा* को विघ्न विनाशक बताते हुए गोस्वामी जी लिखते हैं:--
*सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेहीं !*
*राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेहीं !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* सभी प्रकार के विघ्न उसको नहीं व्याप्त हो सकते जिसे श्रीराम जी सुन्दर *कृपा की दृष्टि* से देखते हैं ! यहाँ गोस्वामी जी ने *सकल विघ्न* लिखा है ! ये सकल विघ्न है क्या ? मानव जीवन में अनेकों प्रकार की विघ्न - बाधायें आती रहती हैं जिनके निदान के लिए मनुष्य इधर-उधर छटपटाता रहता है ! भौतिक जीवन में अनेकों प्रकार की विघ्न बाधाएं देखने को मिलती है आध्यात्मिक जीवन में काम , क्रोध , मद , लोभ , अहंकार आदि को विघ्न बाधा कहा गया है ! जो मनुष्य की आत्मोन्नति में सबसे बड़ी बाधक है *इन्हें मानस रोग* कहा गया है ! यह सभी प्रकार की बाधाएं तब नष्ट होती है जब श्री राम अपनी सुंदर *कृपादृष्टि* से उस मनुष्य को देखने लगते हैं भगवान राम की महिमा का वर्णन करते हुए गोस्वामी जी ने लिखा है:-
*राम कृपाँ नासहिं सब रोगा*
(मानस)
जब तक *राम की कृपा* नहीं होगी तब तक मानस रोग रूपी समस्त विघ्नों का विनाश सम्भव नहीं है ! विषय को अधिक विस्तरित न करके इतना ही कहना है कि जिस अदृश्य सत्ता से जीव का दुख मिटे , जीव का परम कल्याण हो *उसका नाम कृपा है !* यह *कृपा* सीता के रूप में राम के पास है , उमा के रूप में शिव के पास है , लक्ष्मी के रूप में नारायण के पास सतत रहती है ! यह *कृपा* अखिल जगत की माता है , कल्याण की प्रसवित्री है अशुभ की निहन्त्री है ! जिस *कृपा* से युक्त होकर राम , शिव , विष्णु *कृपावान* है *उस *कृपारूपिणी मूलप्रकृति को हमारा साष्टांग प्रणाम है !* कृपा की देवी मूल प्रकृति माता सीता है इन देवी माता से युक्त होने के कारण परम पुरुष देव राम है ! *सीता सहित राम कृपामय हैं* ! सस्त्री प्रत्येक पुरुष *कृपामय* है ! राम भक्त शिव आदि देवता भी *कृपा के समुद्र* हैं ! *कृपा* शब्द स्त्रीलिंग है ! *कृपा मे कृ अर्थात करोति , पा अर्थात् पाति* पिबति से जो उत्पादन , पालन , संहार करती है वह गुणमयी आद्याशक्ति *कृपा है !* यह भक्तों के लिए भोग उत्पन्न करती है , भक्तों का पालन रक्षण करती है तथा भक्तों के साधनानुष्ठान के विघातक शत्रुओं का संहार करती है ! *समस्त स्त्रियां कृपा की मूर्ति हैं स्त्रीवान् समस्त पुरुष कृपावान् हैं* ! प्रज्ञा स्त्री है ! *प्रत्येक प्रज्ञावान कृपावान है !* भगवान परम प्रज्ञावान है ! भगवान का भक्त *कृपावान्* होता है ! यह है *भगवत्कृपा* का रहस्य | गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में २५४ कृपा रत्न प्रदान किए हैं जिन की विस्तृत व्याख्या कर पाना हमारे जैसे मूढ़ मतिमंद के लिए संभव नहीं ! *भगवत्कृपा*:से जितना संभव हो पाया उतना लिखने का प्रयास किया ! मानस अथाह समुद्र है इसको पार पाना हम जैसे साधारण जीवो के लिए असंभव है ! *भगवत्कृपा के विषय में चर्चा करना भगवत्कृपा से ही संभव है !* ! जब तक भगवान की कृपा नहीं होगी तब तक भगवान की चर्चा नहीं की जा सकती :-
*राम कृपा बिनु सुलभ न सोई !*
*भगवत्कृपा* अनेक रूपों में साधक के पास पहुंचती है और उसके समस्त विकारों का विनाश कर देती है ! *भगवत्कृपा* का अनुभव तभी हो पाता है जब *भगवत्कृपा* पर विश्वास होता है अन्यथा सब कुछ करने के बाद भी कुछ नहीं हो पाता !