इस संसार में *भगवत्कृपा* सर्वत्र व्याप्त है ! अनेकानेक रूपों में *भगवत्कृपा* का आभास हमको होता रहता है परंतु माया के पर प्रपञ्चों में पड़े हुए हम उस *भगवत्कृपा* का अनुभव नहीं कर पाते ! जीव जब इस संसार में आता है तो *भगवत्कृपा* से वह एक नया जीवन पाता है और *भगवत्कृपा* का प्रथम दर्शन उसे *मातृकृपा* के रूप में प्राप्त होता है ! माता भगवान का ही स्वरूप होती है जो अपनी कृपा निरंतर अपने बालक पर लुटाती रहती है ! यह *भगवत्कृपा* का ही स्वरूप है ! यह एक अलग विषय है कि हम अपनी माता को साधारण जीव मान लेते हैं जबकि वह साधारण जीव नहीं बल्कि जन्मदात्री , सृजनकर्त्री एवं *भगवत्कृपा* का साक्षात स्वरूप होती है ! *भगवत्कृपा* से हमको मानवयोनि मिलती है और *मातृकृपा* से हम इस संसार में पदार्पण करते हैं ! माता की महिमा वेद पुराणों में बखानी गई है ! जब जीव संसार में आता है तो उसे कुछ भी ज्ञान नहीं होता है तब उसके पास सिर्फ *भगवत्कृपा* होती है जो उसके चारों ओर सुरक्षा घेरा बनाये रखती है ! *भगवत्कृपा* का अनुभव कीजिए कि जब :---
*जब दाँत न थे तब दूध दियो ,*
*अब दाँत भये कहा अन्न न दैहै !*
*जीव बसें जल में, थल में ,*
*तिनकी सुधि लेइ सो तेरी हूँ लैहै !!*
*जान को देत अजान को देत ,*
*जहान को देत सो तोहूँ को दैहै !*
*काहे को सोच करै मन मूरख ,*
*सोच करे कछु हाथ न ऐहै !!*
यह *भगवत्कृपा* नहीं तो और क्या है ? जीव के संसार में आने से पहले उसके पालन-पोषण की व्यवस्था परमात्मा के द्वारा कर दी जाती है परंतु मनुष्य *भगवत्कृपा* का अनुभव नहीं कर पाता और अपने जन्मदाता ईश्वर के साथ-साथ प्रजनन करने वाली माता को भी भूल जाता है ! यह मनुष्य की कृतघ्नता नहीं तो और क्या है ? *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भगवान को याद रखना पड़ेगा ! अपनी जन्म देने वाली माता का आदर सम्मान करना पड़ेगा , परंतु आज मनुष्य अपनी झूठी शान - बान में सब कुछ भूल जा रहा है , इसीलिए तो किसी ने कहा है :--
*पेट में पौंढ़ के पौंढ़े मही पर ,*
*पालना पौंढ़ के बाल कहाए !*
*आई जबै तरुनाई त्रिया संग ,*
*सेज पै पौंढ़ के रंग मँचाये !!*
*छीर समुद्र के पौढ़नहार को "*
*'ब्रह्म’ कबौ चित में नहिं ध्याये !*
*पौंढ़त पौंढ़त प्रौढ़ भये ,*
*चिता पे पौढ़न के दिन आये !!*
पूरा जीवन बिता देने के बाद मनुष्य को *भगवत्कृपा* का अनुभव नहीं होता इसका एक ही कारण है कि वह अपने जन्मदाता को भूल जाता है और जो अपने मूल को भूल जाता है वह संसार में सब कुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी रीते घड़े के समान ही रह जाता है , इसलिए यदि *भगवत्कृपा* का अनुभव करना है तो *मातृकृपा* को महत्व देना होगा क्योंकि यदि *मातृकृपा* ना होती तो शायद हम संसार में आ ही न पाते ! इसलिए अपने माता-पिता का सम्मान करते हुए *भगवत्कृपा* का अनुभव करने का प्रयास करना चाहिए यही सबसे सरल साधन है !