इस जीवन मनुष्य अनेकों प्रकार के प्रश्नोत्तर , समस्या एवं उनके समाधान में जीवन भर उलझा रहता है ! किसी भी प्रकार के प्रश्न का उत्तर या किसी समस्या का समाधान *भगवत्कृपा* से ही संभव है ! जब तक *भगवतकृपा* नहीं होगी तब तक मनुष्य ना तो किसी प्रश्न का उत्तर पा सकता है और ना ही किसी समस्या का समाधान !
*भगवत्कृपा से होत है , सब उलझन आसान !*
*कठिन समस्या का मिले तत्क्षण ही समाधान !!*
*जटिल प्रश्न से होत है जब मनुष्य दो चार !*
*भगवत्कृपा से प्राप्त हो उत्तर का उपहार !!*
*भगवत्कृपा बिना नहीं हिले जगत में पत्ता !*
*जड़ चेतन सब जगह है भगवत्कृपा की सत्ता !!*
(मानस)
जीवन के अतिरिक्त भगवत्संबंधी अनेक प्रश्न और समस्याओं का समाधान *भगवतकृपा* में ही निहित है ! जैसे *निराकार साकार क्यों होता है ?* अव्यक्त व्यक्ति के रूप में क्यों प्रकट होता है ? *पूर्ण परिच्छिन्न कैसे होता है ?* अकाल अकाल की धारा में कैसे आ जाता है ? *कारण कार्य के रूप में कैसे परिणित होता है ?* वह मनुष्य , पशु पक्षी आदि के रूप में क्यों अवतीर्ण होता है ? *असम्बन्ध होने पर भी संबंधी क्यों बनता है ?* इन सबका , ऐसी अनेक मानसिक विकल्प ग्रंथियों का और बौद्धिक उलझनों का एक ही समाधान है और वह है कि - दृश्य के अनेक नाम - रूप में अजस्र प्रवहमान एवं तरंगायमान *कृपा स्रोतस्विनी* की अखंड धारा ! सत्पुरुष अपनी अंतर्दशिनी तत्वावगाहिनी दृष्टि से इसका सतत् दर्शन करते रहते हैं ! *भगवतकृपा एक दर्शन है , भाव नहीं !* श्रीमद्भागवत में अनुकंपा क समीक्षण का वर्णन है प्रतीक्षण करें ! समीक्षण प्राप्त का होता है और प्रतिक्षण अप्राप्त का ! संपूर्ण जीव- जगत का *कृपामय परमेश्वर में ही उन्मज्जन - निमज्जन हो रहा है !* अत: कृपा प्राप्त की लालसा मत करो बल्कि *भगवत्कृपा* को जानने का प्रयास करो क्योंकि जब तक *भगवत्कृपा* को जानने का प्रयास नहीं किया जाएगा तब तक ना तो *भगवत्कृपा* का अनुभव होगा और ना ही *भगवतकृपा* के रहस्य को समझा जा सकता है , और जब तक *भगवत्कृपा* के रहस्य को नहीं समझा जाएगा तब तक *भगवत्कृपा* प्राप्त नहीं होगी क्योंकि *भगवतकृपा* प्रेम के बिना नहीं होती और किसी से प्रेम करने के लिए उसे जानना आवश्यक है ! गोस्वामी तुलसीदास जी मानस में बताते हैं :--
*जाने बिनु न होइं परतीती !*
*बिनु परतीति होइं नहिं प्रीती !!*
(मानस)
जब तक किसी को जाना नहीं जाएगा तब तक उसके विषय में ज्ञान नहीं होगा और जब तक ज्ञान नहीं होगा तब तक प्रेम नहीं हो सकता और बिना प्रेम के *भगवत्कृपा* की प्राप्ति हो पाना असंभव है ! इसलिए *भगवत्कृपा* की लालसा करने एवं उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए प्रेम आवश्यक है ! प्रेम के बल पर साधक भगवान को अपने बस में कर लेता है , क्योंकि भगवान का अस्तित्व भक्तों से ही है ! संसार में सारे कार्य भले मनुष्य करता है लेकिन *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए उसके मन में एक ही भाव होना चाहिए कि :--
*मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है !*
*करते हो तुम कन्हैया मेरा नाम हो रहा है !!*
सारे काम स्वयं करके ईश्वर को समर्पित कर देने पर ही *भगवत्कृपा* का अनुभव एवं *भगवत्कृपा* की प्राप्ति की जा सकती है जब मनुष्य कार्य को संपन्न करके उसे अपने द्वारा संपादित किया हुआ मानने लगता है तब उसको *भगवत्कृपा* का अनुभव कदापि नहीं हो सकता और जब मनुष्य के मन में यह भाव होता है कि मैं तो निमित्तमात्र हूँ , करने वाला तो भगवान है तो उसको *भगवत्कृपा* का लाभ ही लाभ मिलता रहता है अतः *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए प्रेम से समर्पण भाव को अपनाना ही होगा अन्यथा *भगवत्कृपा* का अनुभव कर पाना असंभव है |