एक माता भगवान का स्वरूप कैसे है ? *भगवत्कृपा एवं मातृकृपा में क्या समानता है !* इसको समझने के लिए हमें विचार करना होगा ! जब घर बाहर सर्वत्र प्रलय की अग्नि ज्वाला धधकने लगती है , अपने पाप ताप की माया से संपूर्ण विश्व झुलसने लगता है ! उस समय एक सच्ची मां जैसे अपने शिशुओं को गोद में उठा लेती है , वक्ष:स्थल से चिपका लेती है , शिशु को बाहर की आती वायु भी नहीं लगने देती , उनकी शय्या बन जाती है , अपनी छाती के दूध से ही उनका पालन पोषण करती है ! वैसे ही महाप्रलय के समय भगवान सब जीवो को अपनी सत्ता ज्ञान और आनंद में लीन कर लेते हैं ! उनके संस्कार शेष बीज के अतिरिक्त कुछ भी दोष नहीं छोड़ते ! जैसे मां गर्भ में शिशु समग्र सम्पोषण और संवर्धन प्राप्त करता है उसी प्रकार यह जीव ईश्वर के गर्भ में विश्राम , आराम , शांति और पुष्टि प्राप्त करता है ! महाप्रलय के समय भी इस प्रकार जीव की शैय्या बनकर उसे आराम देना और प्रलय काल के ताप से बचा लेना यह *भगवत्कृपा* का ही एक स्वरूप है ! *यह जननी कृपा है !* इसीलिए भगवान को सर्वप्रथम माता के रूप में संबोधित किया गया है :-
*जब जब जीव रूप पौधा , मुरझाने तपने लगता !*
*दुनिया के पापों तापें से खूब झुलसने लगता !!*
*जब आधियां व्याधियं आकर , हैं चहुँओर सताती !*
*तब उज्जीवनि शक्ति बनकर , माँ ही हाथ बढ़ाती !!*
(स्वरचित)
जब जब जीवरूप पौधा मुरझाने लगता है तब तब उसकी वृद्धि , समृद्धि एवं तुष्टि - पुष्टि के लिए यही जननी ही उज्जीवनी बनकर आती है ! आप किसी भी जीव के जीवन में इस माँ का दर्शन कर सकते हैं ! यह उपवास और भोजन , शोषण और पोषण , प्रक्षालन और स्नेहन सभी प्रक्रियाओं से जीव का हित ही करती रहती है ! इस को पहचानने में देर सबेर तो हो सकती है परंतु इसके क्रियान्वित होने में कभी कोई रुकावट नहीं पड़ती ! *भगवत्कृपा* का विलास बड़ा ही अद्भुत है ! जिन भगवान को नेति नेति कहकर के पुकारा जाता है उनकी कृपा का विलास उनकी तरह ही विस्तारित है ! प्रलय के समय जीव जब शयन में होता है विस्मृति और अज्ञान का गहरा पर्दा उसके चारों ओर से आच्छादित किए रहता है ! उसे कोई दुख नहीं होता यह तो ठीक है ! परंतु इस शयन दशा में कुछ धर्म अर्थ भोग मोक्ष भी तो नहीं है ! *कोई शिशु सोता ही रहे निद्रा तंद्रा में अलसाया हुआ निकम्मा पड़ा रहे यह बात किसी वात्सल्यमयी जननी को कैसे रुचिकर हो सकती है ?* वह चाहती है कि हमारा बेटा उठे भले बुरे को पहचाने ! कुछ करें ! कुछ कमाए अपने पौरुष से कुछ भोगे ! भला कौन ऐसी माँ होगी जो यह ना चाहेगी ! वही मां अपने बालक को जगाती है ! एक-एक को अलग-अलग जगाती है ! एक साथ जगाती है ! सबके आलस्य भगाती है ! स्नान मार्जन कराती है ! हां ! वही मां जो जननी थी *प्रबोधिनी* हो गई ! *वह प्रबोधिनी कौन है ?* वह प्रभु की कृपा है ! वह *भगवत्कृपा* है ! यदि यह जीव प्रलय की प्रगाढ़ निद्रा में सोता ही रहता तो क्या इसको किसी पुरुषार्थ की प्राप्ति होती ? यह *भगवत्कृपा* जीव को विस्तार के साथ फैलाती है ! अंतः करण वहि:करण , विषय , प्रमाण , विपर्यय , विकल्प , निद्रा , स्मृति , क्षिप्त-विक्षिप्त , एकाग्र , निरुद्ध , शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध आदि सभी स्थूल-सूक्ष्म विषयों का विस्तार , प्रचार - प्रसार *प्रपञ्चनी कृपा* ही करती है ! अविद्या निद्रा में सुसुप्त जीव को जहां कुछ भी प्रतिभात नहीं होता है होता था वहां अब सब कुछ प्रतीत होने लगा ! शिशु के नेत्र खुल गए ! मन काम करने लगा ! सोते हुए जीवो को जागरण दशा में लाने वाली यह *प्रबोधिनी कृपा ही है !* जिस प्रकार भगवान की *प्रबोधिनी कृपा* जीवो को जगा कर के उसको उसके कर्म करने के लिए उद्धत करती है उसी प्रकार रात में सोए हुए अपने बालक को प्रातः काल जगा कर उसका श्रृंगार करके एक माता भी उसको उसके कर्म करने को प्रेरित करती है ! *भगवत्कृपा एवं मातृकृपा में कोई विशेष अंतर नहीं है !* शायद इसीलिए भगवान को सर्वप्रथम माता की संज्ञा दी गई है ! यदि *भगवत्कृपा* का दर्शन करना है तो सर्वप्रथम अपनी माता में भगवान को देखना होगा , अन्यथा जीवन भर *भगवत्कृपा* का दर्शन कदापि नहीं हो सकता !