श्री रामचरितमानस में *कृपा* का विस्तृत विस्तार है ! कोई भी कार्य हो बिना *भगवत्कृपा* के नहीं संपन्न हो सकता ! किसी कार्य को संपन्न करने के लिए कोई रचना करने के लिए *मति का निर्मल होना* परम आवश्यक है ! गोस्वामी तुलसीदास जी निर्मल मति के लिए माता जानकी की *कृपा* मांग रहे हैं :--
*ताके जुग पद कमल मनावउँ !*
*जासु कृपाँ निर्मल मति पावउँ !!*
(मानस)
मानस जैसी कालजयी रचना करने के लिए निर्मल बुद्धि का होना बहुत आवश्यक है और निर्मल बुद्धि एवं विवेक जब तक नहीं होगा तब तक कोई भी रचना या कोई भी कार्य संपन्न नहीं किया जा सकता ! *विचार करने वाली बात है कि बुद्धि प्रदान करने वाली माता सरस्वती हैं तो यहाँ तुलसीदास जी सीता जी से निर्मल मति क्यों मांग रहे हैं ?* और फिर तुलसीदास जी ने सभी स्थानों पर भक्ति की ही याचना की है तो यहाँ भक्ति को छोड़कर निर्मल बुद्धि की याचना क्यों करने लगे ? सर्वत्र भक्ति की याचना करने वाले गोस्वामीजी यहाँ जगदंबा जानकी से निर्मल बुद्धि की याचना इसलिए कर रहे हैं कि रामचरित की रचना के लिए निर्मल मति की अनिवार्यता है:--
*सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति अति बल थोर*
(मानस)
यहाँ जगजननी सीता जी अवतारी हैं , निर्मल बुद्धि प्रदान करने वाली अनगिनत सरस्वती उन्हीं के अंश से प्रकट होती है :--
*जासु अंस उपजहिं गुनखानी !*
*अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी !!*
(मानस)
*कृपा* की याचना सीता जी से करने वाले गोस्वामी जी सीता जी की महिमा जानते हैं इसीलिए मानस के मंगलाचरण में भी सीता जी की महिमा का बखान करते हुए लिखते हैं :--
*उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम् !*
*सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम् !!*
(मानस)
उपर्युक्त गुणों से युक्त जगदंबा सीताजी जो अखिल विश्व की उत्पत्ति,पालन और संहार करती हैं , जिनसे असंख्य लक्ष्मी ,पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवों की शक्तियाँ) उत्पन्न होती हैं ! वही जगत में जनकसुता बनकर लीला करने आयी हैं और करुणानिधान राम की अतिशय प्रिय(संगिनी)हैं ! *संतों का स्पष्ट मत है कि* जब विष्णु अवतरित होते हैं तब श्री लक्ष्मीजी की अवतार सीता जी होती हैं और जब परब्रह्म राम का अवतार श्री रघुनाथ जी होते हैं तब मूल प्रकृति महामाया जानकी जी बनती हैं ! *स्कंद पुराण के अनुसार* सीता जी ब्रह्म विद्या की अवतार हैं ! गोस्वामी जी *ब्रह्मविद्यारूपा महासरस्वती सीता जी से “निरमल मति “माँगते हैं* ! बहुतों से माँगा परंतु बालक को आस्था तो अपनी माँ पर ही होती है ! तुलसीदास कुछ समझदार बालक लगते हैं वे अपनी अभिष्ट वस्तु को पाने के लिए माँ के चरणों में लिपट जाते हैं और मानों कहते हैं कि जब तक *कृपा नहीं होगी* , मेरी माँग पूरी नहीं होगी तब तक दोनों पैर पकड़कर अड़े रहेंगे ! अभी तक वे अपने को बालक कहते आ रहे थे ! यथा -
*सुनिहहिं बालबचन मन लाई*
(मानस)
यहाँ बालक की करनी करते हैं ! अभी तक सबसे मर्यादापूर्वक कहा और माँगा और विनम्रता और दीनता भी दर्शायी ! परंतु सब जगह से उदास , हताश और निराश मन माता को सामने पाकर आशा , विश्वास और उल्लास से भर गया और दोनों पैरों को पकड़ कर लिपट गया ! मानों यहाँ आकर जन्म से जननि से विछुड़े तुलसीदास को जगदंबा की करुणा की छाया मिल गई ! पहले की तरह माँ से बिछुड़ न जाऊँ अतः दोनों पैरों को पकड़कर लिपट जाते हैं और छोड़ते नहीं ! जिसके फलस्वरूप गोस्वामी जी को *माता की वह कृपा* प्राप्त होती है और मानस की रचना होती है ! यह हैं *भगवत्कृपा के विविध आयाम*