*इस सृष्टि में अनेकानेक जीवों के मध्य सर्वोच्च है मानव जीवन | जीवन को उच्च शिखर तक ले जाना प्रत्येक मनुष्य का जीवन उद्देश्य होना चाहिए ` किसी भी दिशा में आगे बढ़ने के लिए मनुष्य को मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है चाहे वह सांसारिक पहलू हो या आध्यात्मिक , क्योंकि शिक्षकों एवं गुरुजनों का मार्गदर्शन तथा आशीर्वाद शिष्य एवं साधकों की जीवन में गति लाता है , परंतु यह भी सत्य है कि मार्गदर्शन करने की भी अपनी एक सीमा होती है | मात्र मार्गदर्शन लेकर कोई भी व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता है | अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए मनुष्य को अपने पुरुषार्थ का सहारा लेना ही पड़ता है क्योंकि गुरुजन मात्र मार्गदर्शन कर सकते हैं परंतु उस पर क्रियान्वयन शिष्य को ही करना पड़ता है | जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य को किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्वयं पुरुषार्थ करना पड़ता है | सत्संग में गुरुजनों के सामने अपनी जिज्ञासा रखकर उसका समाधान प्राप्त करके लोग अध्यात्म के शिखर तक पहुंचना चाहते हैं परंतु सत्संग से मिला हुआ समाधान जब तक जिज्ञासु के द्वारा क्रियान्वित नहीं किया जाएगा तब तक उसका परिणाम उसे नहीं प्राप्त हो सकता | कभी-कभी ऐसा समय भी आता है जब मनुष्य को प्रत्यक्ष मार्गदर्शन नहीं मिल पाता या फिर पात्रता के अभाव में इसे ग्रहण नहीं कर पाता तब मनुष्य कोई भी कार्य करने में सफल नहीं हो पाता , क्योंकि वह दूसरों के मार्गदर्शन का अभ्यस्त हो चुका होता है | मार्गदर्शन के अभाव में वह कुछ भी करने में सक्षम नहीं होता यहां पर मनुष्य को पहले से प्राप्त मार्गदर्शन के आधार पर स्वयं पुरुषार्थ करना चाहिए क्योंकि किसी दूसरे के अवलंबन पर अतिशय एवं अनावश्यक निर्भरता मनुष्य के स्वतंत्र विकास में बाधक बन जाती है | इसलिए मनुष्य को गुरुजनों से प्राप्त मार्गदर्शन पर स्वयं क्रिया करने का प्रयास करना चाहिए | मात्र सत्संग कर लेने से कुछ भी नहीं प्राप्त होता जब तक मनुष्य सत्संग में प्राप्त वस्तुओं को ( ज्ञान को ) जीवन में उतारता नहीं | जिस दिन मनुष्य सत्संग में प्राप्त गुरुजनों के अमृत वचनों को जीवन में उतारना प्रारंभ कर देता है उसी दिन से उसके जीवन में परिवर्तन दिखाई पड़ने लगता है |*
*आज मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी खाली ही रह जाता है क्योंकि वह मात्र मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहता है परंतु उसे जीवन में उतारना नहीं चाहता | सद्गुरु की भी एक सीमा होती है जहां तक वह शिष्य को मार्गदर्शन देता रहता है परंतु अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए शिष्य को वह दूरी स्वयं तय करनी होती है | आध्यात्मिक पथ पर यह नियम विशेष रुप से लागू होता है जहां नित नई चेतना नए रहस्य उद्घाटित होते रहते हैं | साधक नित्य नई चुनौतियों का सामना कर रहा होता है ऐसे में बाहरी मार्गदर्शन की बैसाखी का अभ्यस्त मन अधिक दूर तक नहीं जा सकता | ऐसे लोगों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि जिस प्रकार किसी भी खिलाड़ी को प्रशिक्षक मैदान के बाहर प्रशिक्षण तो दे सकता है परंतु खेल के मैदान में वह प्रदर्शन करने नहीं जा सकता | प्रदर्शन तो खिलाड़ी को ही करना पड़ेगा ! अपने प्रदर्शन के बल पर ही वह उस खेल में विजय प्राप्त कर सकता है | मनुष्य जब प्रत्येक विषय पर मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए दूसरों का मुंह देखने लगता है तो उसकी स्वयं की चिंतन करने की क्षमता कुंद पड़ने लगती है | ऐसे में मनुष्य बिना मार्गदर्शक के कुछ भी सोचने में असफल हो जाता है | अतः प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त मार्गदर्शन के अनुसार कार्य स्वयं करना चाहिए | यही एक श्रेष्ठ साधक का साधना पथ है | अपने गुरु की शिक्षाओं को क्रियान्वित करते हुए उस पथ पर एक नैतिक साधक की भांति अपार धैर्य के साथ चलते रहना साथ ही अपने विवेक का प्रयोग करते हुए अपने आदर्श की शिक्षाओं को जीवन में धारण करना व आत्म ज्ञान के प्रकाश में आध्यात्मिक पथ पर बढ़ते हुए चेतना की शिखर का आरोहण करना ही एक साधक का साधना पथ कहा जा सकता है | इस प्रकार क्रियान्वयन करके कोई भी शिष्य आध्यात्म के उच्च शिखर तक पहुंच सकता है |*
*गुरुजनों एवं शिक्षकों से प्राप्त निर्देश को जब तक जीवन में उतारा नहीं जाएगा तब तक जीवन भर शिक्षा ग्रहण करते रहने से कुछ भी नहीं प्राप्त हो सकता है | इसलिए जो भी दिशा निर्देश मिले उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए |*