*मनुष्य इस धरा धाम पर आने के बाद अपने जीवन में संतोष प्राप्त करना चाहता है पर मनुष्य को संतोष नहीं प्राप्त हो पाता | कोई ना कोई कमी जीवन भर उसे शूल की तरह चुभती रहती है | जीवन में यदि संतोष प्राप्त करना तो हमारे सनातन धर्म के रहस्य को समझना होगा | संतोष प्राप्त होता है त्याग से | हमारा देश भारत आदिकाल से त्याग में प्रतिष्ठित रहा है , त्याग शब्द हमारे अस्तित्व में , व्यक्तित्व में एवं हमारे देश की मिट्टी में घुला हुआ है | त्याग भारत की संस्कृति में है , भारत के संस्कार में है | आदिकाल से हमारी परंपरा महर्षि दधीचि की रही है जिन्होंने देवत्व के संवर्धन के लिए , देवत्व के उत्थान के लिए अपनी अस्थियां तक दे डाली थी , उन्हें तनिक भी संकोच नहीं हुआ | भगवान शिव को महादेव कहा जाता है ! सभी देवताओं में वे श्रेष्ठ क्यों हुए ? क्योंकि जब सारे देवता एवं दानव अमृत के लिए झगड़ रहे थे उस समय भगवान देवाधिदेव महादेव ने अमृत का त्याग कर दिया एवं विष का पान कर लिया | जिस विष से सब कुछ नष्ट हो जाने वाला था उस विष का पान करके तथा अमृत का त्याग करके भगवान शिव ने अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया | त्याग का उदाहरण देखना हो तो हमें अयोध्या के दर्शन करने चाहिए , जहां भगवान श्री राम अपने राज्य के अधिकार को त्यागने को तैयार हो गए थे वही भरत भी अपने सुख को त्यागने के लिए तत्पर थे | इसीलिए अयोध्या में कभी संपत्ति के लिए युद्ध नहीं हुआ क्योंकि त्याग में ही संतोष होता है | जब तक मनुष्य के हृदय में त्याग की भावना नहीं होगी तब तक मनुष्य सुखी नहीं हो सकता , क्योंकि जब त्याग की भावना नहीं होती तो मनुष्य जो भी देखता है उसी पर अधिकार कर लेना चाहता है और जब वह उस पर अपना अधिकार नहीं कर पाता तो दुखी हो जाता है | जब तक संतोष नहीं होगा तब तक त्याग की भावना का प्राकट्य नहीं हो सकता और जब तक मनुष्य त्याग के रहस्य को नहीं समझेगा तब तक वह सुखी नहीं हो सकता |*
*आज हम त्याग की महिमा को भूल गए हैं | हमने अपने संस्कारों को भुला दिया है यही कारण है कि आज चारों और भ्रष्टाचार व्याप्त है | आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं उनके छोटे भाई भरत के आदर्श समाज में बहुत कम ही देखने को मिलते हैं , इसकी अपेक्षा आज घर-घर में दुर्योधन दिखाई पड़ रहा है जो युद्ध के बिना सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने को तैयार नहीं है | आपस में लड़ाई झगड़े एवं आरोप-प्रत्यारोप का कारण यही है कि आज किसी के भी अंदर त्याग की भावना नहीं रह गई | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज देख रहा हूं कि बात चाहे परिवार की हो , चाहे समाज की हो या देश की यहां तक कि विश्व की ओर दृष्टि दौड़ाई जाए तो यही देखने को मिलता है कि आज विश्व के कोने कोने में झगड़े फैल रहे हैं , एक विष घुल रहा है प्रत्येक मनुष्य के जीवन में | उसके पीछे मात्र एक ही कारण है कि आज मनुष्य त्याग की भावना को भूल गया है और प्रत्येक वस्तु , स्थान एवं मनुष्य ही मनुष्य पर आधिपत्य कर लेना चाहता है | एक दूसरे पर आधिपत्य जमाने की इस दौड़ में आज मनुष्य के जीवन की दिशा बिगड़ गई है , क्योंकि हम त्याग का मूल मंत्र ही भूल गए हैं | इसका अनुभव मनुष्य सबसे पहले अपने निजी जीवन में , अपने पारिवारिक जीवन से कर सकता है | यह सत्य है कि यदि हम थोड़ा सा भी त्याग के पथ पर आगे बढ़ेंगे तो हमारे जीवन में अमृत घुलने लगेगा और विष का शमन हो जाएगा क्योंकि हमारे शास्त्रों का कहना है कि सच्चे हृदय से त्याग करने पर तत्काल समाधि लगती है | बस त्याग आंतरिक होना चाहिए , मानसिक होना चाहिए , आत्मिक होना चाहिए | त्याग एक साधना है और उसकी सिद्धि भी है | आप जहां भी प्रतिष्ठित हो जाएंगे वहां आपको इसका अनुभव होने लगेगा और तब कुछ और पाने की लालसा शेष नहीं रह जाएगी | प्रत्येक मनुष्य को एक दूसरे पर आधिपत्य जमाने की अपेक्षा हृदय में त्याग की भावना प्रकट करनी चाहिए तभी मनुष्य सुखी हो पाएगा |*
*त्याग करने से मनुष्य को प्रसन्नता प्राप्त होती है ! अंतः करण में प्रसन्नता और शांति हिलोरे लेने लगती हैं तो बाहर कुछ भी पाने की इच्छा नहीं रह जाती है |*