*प्राचीनकाल में जब मनुष्य अपन्े विकास पथ पर अग्रसर हुआ तो उसके पास उसकी सहायता करने के लिए साधनों का अभाव था | शारीरिक एवं बौद्धिक बल को आधार बनाकर मनुष्य ने अपने विकास में सहायक साधनों का निर्माण करना प्रारम्भ किया | आवश्यक आवश्यकताओं के अनुसार मनुष्य ने साधन तो प्राप्त कर लिए परंतु ज्ञान प्राप्त करने के साधन सीमित ही थे | वेद , पुराण , उपनिषद , रामायण आदि धर्मग्रंथ सब को पढ़ने के लिए उपलब्ध नहीं होते थे , इनकी सुविधा कुछ गिने-चुने लोगों के पास ही होती थी , परंतु उन लोगों के माध्यम से एक पूरा समाज एक साथ बैठकर के सत्संग के माध्यम से इन धर्म ग्रंथों की बातों को सुन करके उनको जीवन में उतारने का प्रयास करता था | जिससे मनुष्य की मनोभूमि संस्कारित होती रहती थी , और हमारे पूर्वज संस्कृति एवं संस्कार के अनुपम उदाहरण भी बने | मनुष्य के विकास में एवं मनुष्य को संस्कारित करने में हमारे धर्म ग्रंथों एवं उनके माध्यम से होने वाले सत्संगों का बहुत बड़ा योगदान रहा है | जीवन में चर्चा - परिचर्चा एवं सत्संग - स्वाध्याय का महत्व हमारे पूर्वजों ने समझा था और उसका पालन करके उन्होंने हम एक सुंदर वातावरण तैयार करके दिया | हमारे पूर्वज ज्यादा पढ़े लिखे तो नहीं थे परंतु वे जो सुनते थे उसको जीवन में उतारने का प्रयास करते थे | वही उनके लिए शिक्षा होती थी और उसी का प्रभाव है कि कम पढ़े लिखे होने के बाद भी उनको आज के पढ़े लिखे लोगों से अधिक ज्ञानी कहा जा सकता है | मात्र किसी विषय को पढ़ लेना ही नहीं महत्वपूर्ण है अपितु महत्वपूर्ण है उसको अपने जीवन में धारण करना | यही रहस्य हमारे पूर्वजों ने समझा था |*
*आज के आधुनिक युग में मनुष्य को अधिक विकसित एवं समर्थ करने का प्रयास बहुत ही तेजी से चल रहा है | एक तरफ जहां विज्ञान के रूप में मनुष्य को ऐसा हथियार मिल गया है जिसके बल पर वह दूरगामी लक्ष्य को भी आसानी से शीघ्रता के साथ निशाना बना रहा है | जहां पहले मनुष्य के पास साधन का अभाव था , पढ़ने लिखने की सुविधाएं सीमित थीं , सारा जीवन प्रयत्न करने पर भी कोई व्यक्ति किसी एक क्षेत्र में ही पहुंच पाता था वहींं आज स्थिति अलग है | थोड़ी सी सूझबूझ और थोड़ा सा पैसा मिलाकर व्यक्ति थोड़े से समय में ही चाहे तो अपने विचार और अपने निष्कर्ष हजारों लाखों नहीं करोड़ों तक पहुंचा सकता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह कह सकता हूं कि आज लाखों की संख्या में धर्मग्रंथ छप रहे हैं और हाथों हाथ बिक भी जा रहे हैं लोग उनका स्वाध्याय भी कर रहे हैं परंतु इतना सब होने के बाद भी पहले की अपेक्षा मनुष्य की आंतरिक चेतना में गिरावट आई है | क्योंकि पहले के लोग जहां धर्मग्रंथों की बात पढ़कर या सुनकर उन्हें आचरण में लाने का प्रयास करते थे वहीं आज के युग में सत्संग स्वाध्याय केवल मनोरंजन या वाग्विलास का साधन बनकर रह गया है | जिस प्रकार चिकने घड़े पर पानी की बूंद भी नहीं ठहरती है उसी प्रकार लोगों के मनोभूमि में इतनी गिरावट आती जा रही है कि उन पर इन प्रेरणा का कोई असर होता नहीं दिख रहा है | पुस्तकें पढ़ लेने मात्र से कुछ नहीं होता है , सत्संग सुन लेने मात्र से जीवन नहीं सुधरता है बल्कि सत्संग एवं पुस्तकों में वर्णित व्याख्यान को स्वयं के जीवन में उतारना पड़ता है | यही आज हम नहीं कर पा रहे हैं और दिग्भ्रमित हो करके जीवन यापन कर रहे हैं |*
*यदि हमारे पूर्वज अनपढ़ होते हुए भी ज्ञानवान हो गए थे तो उसका कारण था कि वे कहीं से भी सुने हुए ज्ञान को आत्मसात कर लेते थे | परंतु आज का मनुष्य स्वयं इतना ज्ञानी हो गया है कि दूसरों की बात उसके हृदय में ठहरती ही नहीं है | यही कारण है कि हम आधुनिक होते हुए भी अपने पूर्वजों से बहुत पीछे रह गये हैं |*