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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *आठवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*सातवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*"सुमिरौं पवन कुमार"*
अब आगे:----
*"बल बुद्धि विद्या देहु मोहि"*
*बल बुद्धि विद्या देहु*
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गोस्वामी तुलसीदास जी ने सुमिरन करने के बाद तुरंत अपनी मांग रख दी | अगली लाइन में उन्होंने लिखा :--- *"बल बुद्धि विद्या देहु मोहि"* सुमिरन करने के बाद तुरंत अपनी मांग रख देना यह दिखलाता है कि मानो आराध्य देवता प्रकट हो गए हो , क्योंकि दो शब्द का प्रयोग तभी हो सकता है जब देने वाला सामने खड़ा हो | मांगने की शैली भी देखिए जहां प्रारंभ में तुलसीदास जी ने सिर्फ *बुद्धि हीन तन* की बात की थी अर्थात *बुद्धि* एवं *बल* की बात करने वाले तुलसीदास जी यहां *विद्या* भी मांग रहे हैं | पहले बुद्धि नहीं थी इसलिए *बुद्धिहीन तन* कहा | परंतु जैसे ही देवता *(हनुमान जी)* प्रकट हुए वैसे ही *बुद्धि* का संचार हो गया और *बुद्धि* का संचार होते ही उन्हें अपनी भूल का ज्ञान हो गया और सम्भल कर तुरंत अपनी भूल सुधार की और *विद्या* भी मांग लिया | यहाँ तुलसीदास जी पहले *बल* की माँग करते हैं तब *बुद्धि* की , क्योंकि हनुमान जी का सानिध्य पाकर के सहज भाव से *बल* तो आ गया परंतु *बुद्धि* के बिना बल भी निरर्थक ही होता है | कहा गया है :-- *"बुद्धिर्यस्य बलम् तस्य , निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम्"* इसलिए बुद्धि की मांग कर ली और जब *बुद्धि* एवं *बल* का संचार हुआ तुलसीदास जी को *विद्या* का भी महत्व समझ में आ गया इसलिए साथ में विद्या की भी मांग कर ली | *विद्या* का अर्थ शिक्षा से कदापि नहीं लगाना चाहिए क्योंकि विद्या को माया कहा गया है और माया के भी दो स्वरूप बताए गए हैं | यथा :- *"विद्या अपर अविद्या दोऊ"* एक के कारण सृष्टि रचना का आधार गुण क्रियाशील होते हैं | यथा :--
*एक रचइ जग गुन बस जाकें !*
*प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके !!*
वहीं दूसरी ओर *अविद्या* के लिए कहा गया है कि :---
*एक दुष्ट अतिशय दुख रूपा !*
*जा बस जीव परा भवकूपा !!*
*विद्या एवं अविद्या* यद्यपि दोनों ही माया के स्वरूप हैं किन्तु दोनों के परिणाम में परस्पर विरोधी हैं | एक जीव को इस संसार चक्र से निकालती है तो दूसरी चक्र में फंसाती है | स्वरूप से कष्ट दोनों में ही हो सकता है किन्तु एक *(विद्या)* की गति भगवदोन्मुख है तो दूसरी *(अविद्या)* की दिशा संसारोन्मुख | माया के सर्वथा अभाव में तो जीव व ब्रह्म में अभेद हो जाता है अतः द्वैध भाव भाव भक्ति का आनंद भी भी नहीं होता है किंतु *विद्या* के कारण चित्त में सात्त्विकता का प्रकाश रहता है | यथा :-- *"सत हरि भजन जगत सब सपना"* आदि | इसलिए यहां *विद्या* सत्य ज्ञान पूर्वक भक्ति व *"रघुबर विमल जस"* रामचरितामृत पान के लिए मांग की गई है |
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*"मोंहि"*
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*मोंहि* अर्थात मेरे लिए | यहाँ तुलसीदास जी ने *बल बुद्धि एवं विद्या* की मांग अपने लिए की है | कुछ लोग यह कह सकते हैं कि तुलसीदास जी तो बड़े स्वार्थी निकले उनके भीतर *"सर्वे भवन्तु सुखिन:"* की भावना होनी चाहिए थी परंतु उन्होंने सिर्फ अपने लिए ही वरदान मांगा | ऐसे सभी लोगों को यह ध्यान देना चाहिए तुलसीदास जी स्वयं को *साधक भक्त* समझते हैं , उन्होंने स्वयं को ज्ञानी पुरुष एवं सिद्ध महात्मा कभी नहीं कहा , और *साधक भक्त* वही होता है जो अपने ही अवगुणों का विश्लेषण करके उन्हें दूर करने की भावना करता है क्योंकि उसका विचार यह होता है कि जब हम सुधर जाएंगे तो सारे *विश्व का कल्याण* हो जाएगा |
परंतु आज के वर्तमान साधक स्वयं को ज्ञानी सिद्ध पुरुष घोषित करके विश्वकल्याण का नाटक करते हैं | उन्हें अपने अतिरिक्त सारे संसार में दोष ही दोष दिखाई पड़ता है इसीलिए वे संसार को तो सुधर जाने का उपदेश देते रहते हैं परंतु स्वयं के भीतर सुधार नहीं करना चाहते | आज के स्वयंभू साधक यह भूल जाते हैं कि संसार तो कर्म संस्कार की प्रतिच्छाया या प्रतिरूप ही है | शीशे में अपना मुख देखकर परछाई के मुख पर लगी कालिख तो साफ करना चाहते है परंतु अपने मुंह पर कपड़ा रगड़ कर वह अपनी कालिख नहीं साफ करना चाहते | इस विषय पर यहां *गोस्वामी तुलसीदास जी* पहले से ही सावधान है इसीलिए उन्होंने *मोहि* शब्द का प्रयोग किया है | *मोहि* या के तुलसीदास जी ने लिखा है :- *हरहुं कलेश विकार* यहां *मोहि* इसलिए लिखा क्योंकि दूसरे को कोई क्लेश है कि नहीं है , दूसरे के अंदर कोई विकार है कि नहीं है इसका कोई पता नहीं है परंतु *तुलसीदास जी* का भाव जी यह है कि मेरे भीतर क्लेश एवं विकार के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं | *हे हनुमान जी* आप मेरे *कलेश विकार* को हरण करके मेरा कल्याण करें | यदि यहां तुलसीदास जी *मोहि* शब्द का प्रयोग ना करते तो उनकी गिनती भी *"पर उपदेश कुशल बहुतेरे"* की पंक्ति में हो जाती इसीलिए यहां *मोहि* का प्रयोग किया गया
*शेष अगले भाग में :-----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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