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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *भाग - द्वितीय* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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गोस्वामी तुलसीदास जी ने *दोहे* का प्रारंभ *"श्री गुरु"* से किया है तो एक-एक शब्द का तात्विक अनुशीलन करने का प्रयास करते हैं | सर्वप्रथम:--
*श्री*
*श्री* मंगल सूचक है | अतः प्रारंभ इसी से करके हनुमान चालीसा को मांगलिक सूचित किया है | *श्री* शब्द गुरु शब्द के पूर्व में लगा कर के गुरु की महत्ता सिद्धकी तुलसीदास जी ने | *श्री* ऐश्वर्य का सूचक है जिसके सहित गुरु पद का संबोधन अति सम्मान सूचक है | श्रीमद्भागवत महापुराण में *"श्री शुक उवाच""* कहकर शुकदेव जी के प्रति , श्रीमद्भगवतगीता में *"श्रीभगवान उवाच"* कहकर भगवान कृष्ण के प्रति जो भाव ग्राह्य है वही भाव यहाँ गुरु के साथ *"श्री"* लगाकर व्यक्त किया गया है |
भगवद्बुद्धि से ही *श्री* की युति एक शिष्टाचार है | भगवान और गुरु में ऐक्य के भाव को बताने के लिए यहां *श्री गुरु* पद दिया गया है | भगवान भक्त भक्ति एवं गुरु को केवल नाम भेद में ही चार व तत्त्वरूप में एक कहा गया है | यथा :---
*भक्ति भक्त भगवंत गुरु , चतुर नाम वपु एक !*
*श्री* लक्ष्मी का , ऐश्वर्य का , शुभप्रदायिका , ओजस्व का प्रतीक है | यहां इस *चालीसा* स्तोत्र की प्रकृति इन्हीं भावों में *श्री परक* कहते हुए ही इस दिव्य *चालीसा* का *श्री* पद से प्रारंभ किया गया |
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*गुरु*
*गुरु* शब्द का आभिप्राय प्रसंगानुसार जिन अर्थों में लिया जाता है वे इस प्रकार है | कुलपूर्वज , बड़े , भारी , शिक्षक , मन्त्रोपदेशक (दीक्षक) एवं आध्यात्म मार्गदर्शक आदि |
यहाँ भगवान श्री रघुवर के विमल यश - गुणगण - वर्णन के लिए स्मरण किया गया अत: आध्यात्मिक दृष्ट्कोण से *गुरु* का स्मरण किया गया है | *भगवत्प्रेमी सज्जनों* मनुष्य जीवन का एकमात्र और अन्तिम उद्देश्य होता है भगवत्प्राप्ति | भगवत्प्राप्ति में जो *गुरु* (व्यक्ति) सहायक है वही *आध्यात्मिक गुरु* होता है | इस *गुरु* से बड़ा और कोई *गुरु* नहीं होता इसलिए ऐसे *गुरु* के लिए ही यहाँ *गुरु* पद को *श्री* से युक्त किया गया है |
विचार कीजिए कि शिक्षा तो कहीं से भी ग्रहण की जा सकती है किन्तु दीक्षा के लिए कुछ शास्त्रीय नियम व विधान हैं | शिक्षा का नैमित्तिक कारण व्यक्ति भी *गुरु* कहला सकता है किन्तु कई बार स्वयं ऐसे *गुरु* को शिष्य का ज्ञान भी नहीं हो सकता है | शिक्षा के निमित्त में जड़ पदार्थ भी हो सकता है व प्राकृतिक सृष्टि के क्रियाकलाप भी , किन्तु ये इस भाव में *गुरु* अर्थ में प्रयोग नहीं किये जा सकते हैं | यद्यपि इस संसार में बहुधा लोग आये दिन नित नये *गुरु* बनाते रहते हैं , दीक्षा भी मनमाने ढंग से लेते व देते रहते हैं तथा इसकी वैधानिकता की पुष्टि में *भगवान दत्तात्रेय* का उदाहरण भी देते हैं , किन्तु उन्होंने चौबीस *गुरुओं* के सन्दर्भ में शिक्षा की नैमित्तिक घटनाओं का ही उल्लेख किया है | वह शिक्षा के चौबीस वर्गीकरण एक अलग व गूढ़ विषय है यदि इस पर चर्चा करने लगेंगे तो विषयान्तर हो जायेगा | किन्तु अविधि की दीक्षा के बाढ़ या *गुरुओं* की अनियमित वृद्धियों को इस (दत्तात्रेय जी के) उदाहरण से पुष्ट करना भी उचित नहीं है | यदि कोई जड़ पदार्थ किसी ज्ञान का निमित्त बन गया हो तो उसे आध्यात्म मार्ग में *गुरु* न तो ग्रहण किया जा सकता है और न ही ऐसा *गुरु* श्रीयुक्त पद का अधिकारी ही हो सकता है | इसलिए यहाँ *गुरु* पद को *श्री* से युक्त किया गया है |
*श्री* का अर्थ लक्ष्मी होता है | यह केवल भगवान विष्णु के साथ रहने से *"विष्णु"* तत्वार्थ बोधक भाव के साथ ही *श्री* पर शोभित होता है | यथा :- सीताराम , राधेश्याम , लक्ष्मी नारायण आदि | यहाँ *गुरु* एवं भगवान विष्णु में अभेद भाव को प्रकट करने हेतु *श्रीगुरु* पद कहा गया है | यथा :--
*गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: !*
*गुरु: साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम: !!*
एक विशेष बात ध्यान देने की है कि *गुरु* तो कोई मनुष्य ही हो सकता है अन्य प्राणी नहीं | हनुमान जी की कृपा भी मांगी गयी तो - *कृपा करहुं गुरुदेव की नाईं* कहकर माँगी गयी | अर्थात दैवीय कृपा भी गुरु के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है |
*शेष अगले भाग में :-----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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