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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *इक्कीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*बीसवें भाग* में आपने पढ़ा :
*कुमति निवार सुमति के संगी*
अब आगे :----
*कंचन वर्ण विराज सुवेशा*
*कंचन वर्ण*
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*कंचन* अर्थात स्वर्ण | यद्यपि *कंचन* स्वर्ण , सोना , हेम , कुंदन आदि सभी शब्द स्वर्ण धातु के लिए ही प्रयुक्त होती किंतु स्वर्ण की स्वच्छता से विचार करने पर विभिन्न स्थितियों को भी संकेत करते हैं | स्वर्ण शब्द व्यापक भाव को लिए हुए हैं | सोने की खान होती है कि कुंदन कि नहीं ! क्योंकि कुंदन तो सोने का ही अत्यधिक संस्कृत रूप है | इसी प्रकार से *कंचन* स्वर्ण को ही जिसमें अन्य विजातीय दोष मिश्रित न हो उसे ही कहा जा सकता है | वर्ण अर्थात रंग अथवा जो स्वरूप नेत्रों को सुख प्रदान करें | *हनुमान* जी का *कंचन वरण* है अर्थात गौर रंग है जो कि सुंदर है *कंचन* जैसे निर्दोष *स्वर्ण* है | इसी प्रकार *हनुमान जी* भी वस्तुत: गुणों के सागर व गुण के धाम ही हैं वहां गुणों के साथ विधि प्रापंचिक का गुण नहीं है अतः *स्वर्ण वर्ण* न कहकर *कंचन वरण* कहा गया है | *कंचन* अक्षय धातु है इसी प्रकार आपकी छवि भी सौंदर्य में सतत सम अर्थात सदैव एक जैसी रहती है | श्री रामचरितमानस के सुंदरकांड में *तुलसीदास जी* ने मंगलाचरण करते हुए लिखा है *हेमशैलाभदेहं* शैल के भाव तो प्रसंग के अनुसार है किंतु हेम व *कंचन* के भाव गौर वर्ण के लिए ही है |
प्रायः कहा जाता है *कंचन बन गई देह* *कंचन* अर्थात निर्मल | जिस प्रकार *कंचन* शब्द शुद्ध निर्विकारिता आदि का द्योतक है उसी भाव में *कंचन वरण* से अभिप्राय है कि *हे हनुमान जी* आपका *वर्ण* परम शुद्ध *कंचनवत* अर्थात ब्रह्मा वर्ण है अथवा जो भी *वर्ण* है शुद्ध है | जैसे *कंचन* की शोभा कांतिवर्धक है उसी प्रकार आपका *कंचन वरण विराज*;अर्थात प्रसन्नता प्रदान करने वाला है |
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*विराज*
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रंजन शब्द से जैसे राजा अर्थात :- *प्रजानाम् रञ्जयति इति राजा* है उसी प्रकार से प्रसन्नता की वह आभा जो अपनी कांति से ही प्रसन्न करने वाली है उसी भाव में आकर यहां तुलसीदास जी ने *विराज* शब्द लिख दिया | *विराज* अर्थात विशेष प्रसन्न मुद्रा में अथवा शोभित या विशेष प्रसन्नता प्रदान करने वाले *हनुमान जी* की वंदना करते हुए तुलसीदास जी महाराज कहते हैं *हे हनुमान जी* आप शुद्ध भाव से प्रसन्नता पूर्वक भक्तों का मंगल करते हैं | *विराज* का एक अर्थ और देख लिया जाय :---
*वि = विगत: रञ्जन विषय: यस्मात् स: विराज:*
अर्थात सदा एकरस रहने वाले | प्रसन्नता का विषय ही जहां नहीं है वह परम योगी किससे प्रसन्न हुआ किससे अप्रसन्न होगा | वह तो आत्मानंद से निरंतर आनंदित ही रहेगा | जैसे भगवान श्री राम के लिए कहा गया है :--- *प्रसन्नतां या न गताभिषेकस्तथा न मम्ले वनवास दु:खत:* अर्थात राज्याभिषेक से जिन्हें प्रसन्नता न बनवास से जिन्हें कष्ट नहीं हुआ अर्थात प्रसन्नता का वहां विषय ही नहीं है निरंतर एकरस आनंद में ही विराजते हैं | उनके अनुचर हो करके आप भी सदैव आत्मानंद में ही विराजते हैं जो कि *कंचन* की भाति निर्मल है | इसलिए तुलसीदास जी ने *कंचन बरन बिराज* लिखा या इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि :-- *विशिष्टत्वेन् रञ्जनं एव यस्मिन्नास्ति स: विराज:* अर्थात विशेष प्रसन्नता ही जिसमें रहती है वह *विराज कंचन वरण हनुमान जी* का है |
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*सुवेशा*
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*हनुमान जी* साक्षात शंकर जी की ही कला हैं | मूल रूप से शंकर जी स्वयं अमंगल वेश धारण किये रहते हैं | चिताभस्म , मुंडमाला , नागों के आभूषण , मृगचर्म आदि धारण करके अपावन वेश में भी परम पावन एवं मांगलिक हैं | *हनुमान जी* रुद्रावतार होते हुए भी *सुवेशा* अर्थात सुंदर एवं मांगलिक वेश में रहते हैं | यद्यपि *हनुमान जी* दुष्टों के लिए अति विकट भयंकर कपिदेह में भी होते हैं परंतु भक्तों के लिए सदैव सुंदर गौर वर्ण ही रहता है | *हनुमान जी* सुंदर वेश में ही दर्शन देते हैं | भक्त *तुलसीदास जी* ने जो प्रत्यक्ष रूप देखा *सुंदर वेश* का वही यहां वर्णित कर दिया | *तुलसीदास जी* कह रहे हैं *हे हनुमान जीर* आप *कंचन वरण विराज सुबेसा* अर्थात सुवेश में भी कंचन आभा की भांति शोभित होते हैं | अन्यथा समय में कैसे भी होते हैं इससे हमें कोई मतलब नहीं है |
*शेष अगले भाग में :-----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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