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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *बाईसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*इक्कीसवें भाग* में आपने पढ़ा :
*कंचन वर्ण विराज सुवेशा*
अब आगे :----
*कानन कुंडल कुंचित केशा*
*कानन कुण्डल*
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जब किसी के भी *सुंदर वेश* का वर्णन किया जाता है तो उसके शरीर के आभूषणोंं की व्याख्या अवश्य होती है | उसी प्रकार जब *हनुमान जी* सुंदर वेश में होते हैं तो उनके कानों में *कुंडल* शोभा पाते हैं | *कुंडल* कानों की शोभा है तथा सुंदरता का प्रतीक है इसके साथ ही सबसे बड़ी बात यह है कि *कुंडल* ब्रम्हचर्य का लक्षण है , क्योंकि कानों में *कुंडल* धारण करने से शरीरगत धातुएँ स्वस्थ एवं सशक्त रहती हैं | कानों में पहने हुए *कुंडल* पुरुष के *ब्रम्हचर्य* में खूब सहायक होते हैं इसीलिए सनातन धर्म में आदिकाल से ही बनाए गए चार आश्रम में प्रथम *ब्रम्हचर्य आश्रम* में जब मनुष्य प्रवेश करता था तो उसका *कर्णवेध संस्कार* किया जाता था | योगिक क्रियाओं में रेत - वीर्य को धारण करके उसे उर्ध्वमुखी करने में यह *कर्णवेध* अत्यंत आवश्यक होता था | *नाथ संप्रदाय* के योगियों का तो विशेष चिन्ह कानों में बहुत बड़े-बड़े *कुंडल* हैं | अब भी असामान्य विषय अंडकोष की वृद्धियों में भेषज चिकित्सा असफल होने पर *कर्णवेध* ही उसकी उपयुक्त चिकित्सा बताई जाती है | कहने का तात्पर्य है कि तुलसीदास जी ने *हनुमान जी* के कानों में कुंडल का वर्णन करके बताया है कि *हनुमानजी* धार्मिक शास्त्रीय मर्यादाओं के पालन करने वाले एवं *ब्रम्हचर्य* को सुशोभित करने वाले हैं | *कान* श्रुति - वेद सुनने या ध्यान देने की क्रियाओं का प्रतीक शारीरिक अंग है | कानों में *कुंडल* इनकी शोभा , अलंकरण , सम्मान , संस्कार आदि के संकेत है | जिसका भाव है कि आप उसी परंपरा को अलंकृत करने , ध्यान को केंद्रित रखने , शास्त्रीय मर्यादाओं को पुष्ट करने व दीनों की पुकार सुनने में रुचि रखने वाले हैं | इसलिए तुलसीदास जी ने *हनुमान जी* के कानों में *कुंडल* का वर्णन किया है |
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*कुंचित केशा*
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*कुंचित* का अर्थ होता है घुंधराले | अर्थात घुंघराले बालों वाले हैं हमारे *हनुमान जी* | कहीं-कहीं *कंचन* पाठ मिलता है व भक्तों को ऐसा पाठ करते देखा भी गया है | अत्यधिक प्रिय स्तोत्र सरलता के कारण पाठ में अपभ्रंश या अशुद्धि कहाँ हो जाती है यह कहना कठिन है | जहां *कंचन* पाठ हो वहां इस शब्द की संगति *कानन कुंडल कंचन* की होती है अर्थात कानों में सोने के *कुंडल* हैं | यद्यपि यहां *कंचन* शब्द की पुनरुक्ति ही प्रतीत होती है क्योंकि *कानन कंचन वर्ण कुंडल सुवेशा बिराज* इसका अन्वय करने से पूर्वपाद का *कंचन* भी इस भावार्थ के लिए पर्याप्त हो जाता है | केश बालों का विशेषण फिर कुछ भी नहीं रह जाता है | इसके अतिरिक्त *कुंडल* (आभरण) का स्वर्णमय होना तो सहज वृत्ति का अध्याहार है किंतु बालों का *कुंचित* होना उतना सहज नहीं है | अतः जो भी हो जो भी प्रमाणित पाठ हो पाठक स्वविवेक से निर्णय करने में स्वतंत्र है | मेरी राय में यह उचित ही उपयुक्त है अतः यहीं रखा गया | सुंदर गौर वर्ण योगी ब्रह्मचारी के वेश में कानों के *कुंडल* का वर्णन करते ही *कुंडलों* के पास ही केशों की सुंदरता का वर्णन *तुलसीदास जी* ने किया | जहाँ केशों में घुंघरालापम कुंचन , वक्रता लहरदार शोभा दे रही है | यह सब *सुवेशा* अर्थात सुंदर वेश का ही स्वरूप है , इसलिए *तुलसीदास जी* ने लिख दिया *कानन कुंडल कुंचित केसा*
*शेष अगले भाग में :-----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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