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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *छत्तीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*पैंतीसवें भाग* में आपने पढ़ा :
*सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा !*
*नारद सारद सहित अहीसा !!*
*यम कुबेर दिगपाल जहाँ ते !*
*कवि कोविद कहि सकें कहाँ ते !!*
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*अब आगे :---
*तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा !*
*राम मिलाय राजपद दीन्हा !!*
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*तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा*
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सीता जी की खोज में जब राम लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत पर चढ़ रहे थे तो भयभीत सुग्रीव के मन में संदेह हुआ कि कहीं बालि ने अपने किसी वीरों को भेजा ना हो क्योंकि बालि स्वयं यहां नहीं आ सकता था परंतु किसी को भेज सकता था और वीर वेश में दो पुरुष आगे बढ़ते हुए चले आ रहे हैं | ऐसे आपत्तिकाल में महाबली , नीतिज्ञ एवं हितैषी *हनुमान* ही केवल मात्र सक्षम थे जो सुग्रीव की प्राण रक्षा में सहायक हो सकते थे | अतः सुग्रीव ने *हनुमान जी* से कहा कि तुम ही ब्रह्मचारी का रूप धारण करके उनके सामने जाओ और पता लगाओ कि इन वीरों के इधर आने का क्या रहस्य है ? यह कौन है ? कहीं बालिके भेजे हुए तो नहीं है ? यदि बालि के भेजे हों तो मुझे गुप्त संकेत में बता देना जिससे प्राण रक्षा के लिए भागने का अवसर मुझे मिल जाए | ऐसे संकट के समय सुग्रीव का उपकार किया | *हनुमान जी* ने ब्राह्मण वेश धारण कर गुप्त वार्तालाप से श्री राम जी के रहस्य को जाना ना केवल अातुरकालीन भय से सुग्रीव की रक्षा की बल्कि रामजी से मित्रता का संस्कार करवा कर बालि जैसे दुर्जय शत्रु के भय से सदैव के लिए मुक्त कर दिया | इतना ही नहीं बल्कि मुक्ति के बाद राज्य पद भी सुग्रीव को दिला दिया |
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*राम मिलाय राजपद दीन्हा*
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*हनुमान जी* ने सुग्रीव को राम जी से मिला कर राज्यपद दिया | इसका अभिप्राय यह है कि यह सब कुछ सुग्रीव के प्रयत्न , इच्छा या प्रस्ताव से नहीं हुआ | सुग्रीव ने तो केवल भयवश भागने की या प्राण रक्षा के लिए छिपने की इच्छा से भय के सम्मुख *हनुमान जी* को भेजा था कि आगंतुकों के व मेरे बीच में *हनुमान जी* दृष्टि बाधक बने तथा मुझे भागने का अवसर मिल जाय | *हनुमान जी* ने ही पूर्व में सारा परिचय इस भूमिका के साथ दिया कि राम जी का करुण हृदय सुग्रीव के प्रति स्नेहमय हो जाय | यथा :--
*नाथ सैल पर कपिपति रहही !*
*सो सुग्रीव दास तव अहही !!*
*तेहि सन नाथ मयत्री कीजै !*
*दीन जानि तेहिं अभय करीजै !!*
अपने पर अनुकूलता का लाभ सुग्रीव को दिया | *हनुमान जी* ने मित्रता कराने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी जैसा कि बाबा जी ने मानस में लिखा है :- *"पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ"* इसी भाव से यहां पर *तुलसीदास जी* महाराज ने लिख दिया *राम मिलाय राजपद दीन्हा* यहां श्री *हनुमानजी* सुग्रीव के गुरु रुप में हो गए | सुग्रीव राम जी को आते देखकर भागना चाह रहा था पर गुरु *हनुमान जी* राम जी से भागने कैसे देते , *समर्थ गुरु* जो ठहरे | सुग्रीव को भागने नहीं दिया और राम जी से मिला ही दिया | यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रथम *राम मिलाय* तब *राजपद दीन्हा* | इस पर ध्यान देने की बात है *श्री हनुमान जी* ने चतुराई के साथ पहले सुग्रीव को राम से मिलाया बाद में राज्य पद दिया | क्योंकि गुरु का दृष्टिकोण हित महत्तानुसारी ही होता है |
जीव इस संसार में पहले राज्य , सुख ऐश्वर्य की कामना करता है उसके बाद वह राम अर्थात भगवान के प्रति विचार करता है परंतु यह गुरु का कर्तव्य होता है कि वह पहले अपने शिष्य को भगवान से मिला दे क्योंकि यदि भगवान मिल जायं तो राज्य तो स्वयं मिल जाएगा | यही कार्य यहाँ *हनुमान जी* ने सुग्रीव के प्रति किया | प्राथमिकता के दृष्टिकोण से श्री *हनुमान जी* दोनों की (राम एवं राज्यपद) वास्तविकता जानते हैं क्योंकि बिना राम के राज्यपद से होने वाली हानि से बचाना ही गुरु का कर्तव्य होता है | अपना कर्तव्य समझ कर उसका निर्वाह *हनुमान जी* ने किया | सुग्रीव की रूचि के अनुसार यदि राज्यपद पहले दिला देते तो वे पुनः विषयों में उलझ कर गर्त में गिर जाता व राम जी से मिलकर श्रेयस की प्राप्ति में अज्ञात काल तक की बाधा जन्मांतरोॉ तक की पड़ जाती | विचार कीजिए कि इस संसार में जीव बिना किसी विशेष कृपा के राम जी से कदापि नहीं मिल सकता | जब तक *हनुमान जी* जैसे गुरु नहीं होते कब तक जीन का भगवान के प्रति आकर्षण एवं उनसे मिलना नहीं हो सकता | इसके पहले सुग्रीव बालि से अपनी रक्षा स्वयं करता रहा परंतु पहली बार *हनुमान जी* के हाथ में अपनी रक्षा का भार सौंपा और *हनुमान जी* ने उनको राम से ही मिला दिया | इसी प्रकार जब शिष्य स्वयं के भले बुरे का भार गुरु पर छोड़ देता है तो गुरु उसे परमात्मा को प्राप्त करा देता है |
एक बात और विचार करने लायक है कि *हनुमानजी* की चतुरता ही है कि उन्होंने राम जी को लाकर सुग्रीव से मिलाया था , सुग्रीव जी को ले जाकर *हनुमान जी* ने राम से नहीं मिलाया | आज के युग में यदि किसी बड़े आदमी से किसी छोटे को मिलाकर एहसान या सिफारिश भी की जाती है तो छोटे को ही ले जाकर के बड़े के सामने उपस्थित किया जाता है किंतु यहां बिल्कुल विपरीत हुआ राम लक्ष्मण दोनों को कंधे पर बिठाकर *हनुमान जी* लाये तथा छोटे सुग्रीव से मिला दिया | इसीलिए यहाँ *सुग्रीव मिलाय* नहीं बल्कि *राम मिलाय* लिखा है | अगली पंक्ति में *तुलसीदास जी* ने लिखा है *तुम्हरो मंत्र विभीषन माना*
यहाँ *हनुमान जी* ने विभीषण को राम जी से मिलाया नहीं बल्कि केवल मिलने की युक्ति बताई और यहां पर श्री राम जी विभीषण से मिलने नहीं गए बल्कि विभीषण ही राम जी से आकर के मिले थे , किंतु सुग्रीव के प्रकरण में *हनुमान जी* ने सुग्रीव के ऊपर विशेष कृपा की इसीलिए तुलसीदास जी ने स्पष्ट लिख दिया *राम मिलाय राजपद दीन्हा*
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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