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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *छियालीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*पैंतालीसवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*नासै रोग हरै सब पीरा !*
*जपत निरंतर हनुमत वीरा !!*
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अब आगे :---
*संकट ते हनुमान छुड़ावैं !*
*मन क्रम वचन ध्यान जो लावैं !!*
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*संकट ते हनुमान छुड़ावैं*
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*तुलसीदास जी महाराज* ने *हनुमान चालीसा* की इतनी दिव्य रचना की है कि इसकी व्याख्या करने में मन भाव विभोर हो जा रहा है | इतनी सुंदर रचना तथा उसके भाव इतने दिव्य हैं की इन्हें समझने की आवश्यकता है | प्राय: लोग ५ मिनट में *हनुमान चालीसा* का पाठ कर लेते हैं परंतु उसके भाव को समझने का प्रयास नहीं करते हैं | विचार कीजिए *तुलसीदास जी महाराज* ने पहले लिखा *नासे रोग हरे सब पीरा* यहां *रोग* देह से तथा *पीड़ा* का संबंध में मन से है | जैसा कि मानस में बाबा जी लिखते हैं :- *"सरुज देह बारि बहु भोगा* तथा *ऐसेहुं बीर मनहुँ मन गोई ! चोर नारि जिमि प्रकट न रोई !!* परंतु *संकट* तो सभी प्रकार की बीमारियों भयानक विपत्ति से संबंध रखते हैं | यथा :- *संकट भयउ हरिहिं मम प्राना* या फिर *वीरघातिनी छांड़ेसि सांगी*
*रोग* को देहगत तथा *पीड़ा* को मनोगत माना गया है उसी प्रकार *संकट* व्यष्टिगत वातावरण से संबंध रखता है | क्रमश: *रोग व पीड़ा* से *संकट* अधिक भयंकर तथा दुर्निवार्य होता है इसलिए *तुलसीदास जी* महाराज ने *संकट* को हटाने के पहले *रोग* को नष्ट करने तथा *पीड़ा* को हरने का भाव लिखा , किंतु *संकट* से *हनुमान जी* छुड़ाते हैं वे छूटे नहीं | संसार की किसी भी प्रकार के भोग उपलब्ध करवाकर प्रसन्न करना साधारण बात है किंतु इन भोगों के स्थान पर भगवान की ओर जीव को उन्मुख कर देना ईश्वरीय कार्य है | *हनुमान जी* के मत से संकट या विपत्ति केवल वही परिस्थितियां होती हैं जब मनुष्य भगवान से विमुख हो जाता है | *हनुमान जी* संकट छुड़ाते हैं अर्थात वही कृपा करके जीव का भक्ति में अधिकार करवा देते हैं | भक्ति के बाधक तत्व ही वास्तविक *संकट* है जिससे *हनुमान जी* छुटकारा दिलाते हैं | रोग भोगकर पीर कालक्रम में स्वत: भी छूट जाते है किंतु यह *सकट* कोटि-कोटि कल्पों से नहीं छूटा | वह छुड़वाने से ही छूटता है अतः यहां *तुलसीदास जी महाराज* लिखते हैं कि उन *संकट* से छुटकारा *हनुमान जी* दिलाते हैं |
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*मन क्रम वचन ध्यान जो लावैं*
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*संकट* कब छूटता है ? इस पर भी विचार कर लिया जाय :- *संकट* जीव का तभी छोड़ सकता है जब वह अपने आप को समर्पित कर दें | *मन वचन एवं कर्म* तीनों का समर्पण करने के लिए मनुष्य को पूर्ण समर्पण भाव रखना पड़ेगा | कोई व्यक्ति यदि *मन* से तो चाहता है कि वह भावनात्मक *संकट* छुटे किंतु इसके लिए किसी से अभिमान बस कहना नहीं चाहता | मुंह से कहता है पर *मन* से नहीं चाहता | *मन व वचन* से चाहता है तो तदर्थ *कर्म* में प्रवृत्त नहीं होता , यदि होता भी है तो ध्यान पीछे के भोगों की मधुरता पर ही रहता है | ऐसा होने पर *संकट* से मुक्त कैसे हो सकता है ?? यदि सरलता से *हनुमान जी* की शरण ग्रहण कर मन से वचन से व कर्म से *संकट* निवृत्ति चाहे तो *हनुमान जी* उसे तुरंत छुड़ाते हैं | *हनुमान जी* से विभीषण ने अपना *संकट* कहा :-
*सुनहु पवनसुत रहनि हमारी !*
*जिम दसनहिं महुँ जीभ बिचारी !!*
*संकट* से मुक्ति *मन* से ही चाहता हूं पर बात बनी नहीं |
*वचन* से कहा :- *श्रवन सुजस सुनि आयऊँ*
उसके बाद *कर्म* किया :- *अस कहि चला विभीषन जबहीं*
*ध्यान* की स्थित देखिए :- विभीषण का *ध्यान* सिर्फ भगवान के चरणों पर था :-
*जे पद परसि तरी ऋषिनारी !*
*दण्डक कानन पावन कारी !!*
*जे पद जनकसुता उर लाये* आदि |
बस फिर क्या था | किसी का कोई भी मत रहा हो परंतु भगवान ने उसे अपना लिया | कहने का अभिप्राय है कि *मन क्रम वचन* से एक होकर निश्चल सरल होकर जो भगवान की शरण में आता है उसे *संकट* बाधा नहीं डाल सकते हैं जैसा कि लिखा भी है :-- *सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेहीं ! राम सुकृपा विलोकहिं जेहीं !!* भगवान की शरणागति में *मन वचन कर्म और ध्यान* को रखकर जाने पर ही जीव कल्याण हो सकता है |
*अंतः करण के चित्त में ध्यान हो*
*वचन में विनय स्तुति हो*
*मन में प्रेम अनुग्रह आह्लाद हो*
*कर्म में सेवा भाव हो*
तभी सर्वतो भावेन् *संकट* से छुड़ाने की योग्यता हुई |
श्री राम जी ने दसों ममताओं को इकट्ठी कर अपने चरणों में बांधकर पार होने की बात की *(सबकै ममता ताग बटोरी ! मम पद मनहिं बाँधि बर जोरी)* पर *हनुमान जी* ने तो केवल चारों को *(मन क्रम वचन एवं ध्यान)* साथ लाने के लिए ही कहा | इसीलिए यहाँ लिखा गया :- *मन क्रम वचन ध्यान जो लावै ! तो संकट से हनुमान छुड़ावैं !!*
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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