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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *पैंतालीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*चौवालीसवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*भूत पिशाच निकट नहीं आवे !*
*महावीर जब नाम सुनावे !!*
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अब आगे :----
*नासै रोग हरै सब पीरा !*
*जपत निरंतर हनुमत वीरा !!*
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*हनुमान जी* के निरंतर जप से समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं | यहां ध्यान देने योग्य बात है कि *तुलसीदास जी महाराज* ने *रोग* को शांत होना या हटना नहीं लिखा है क्योंकि *रोग* शांत होने के बाद या हटने के बाद पुनः उभर सकता है इसलिए मनुष्य निर्भय नहीं हो सकता | यही भाव मन में रखते हुए *तुलसीदास जी* महाराज ने *नासै रोग* लिखा अर्थात *रोग नष्ट* हो जाते हैं और जो *रोग नष्ट* हो जाता है उसके पुनः उभरने की संभावना नहीं होती है | सब प्रकार की पीड़ा *हनुमत वीरा का निरंतर जप* हरण कर लेता है | यहां *नासै* व *हरै* दो क्रियाएं कही गई दोनों के अर्थ भी भिन्न है | *हरण* की क्रिया में हर्ता का होना आवश्यक है | इतना ही नहीं हर्ता की चेष्टा सजगता , इच्छा क्रियादि भी आवश्यक रूप से होता है किंतु *नष्ट* होने में कर्ता की चेष्टा आवश्यक नहीं है | यह क्रिया प्राकृतिक काल सापेक्षता आदि से भी संभव है अथवा यों कहिये कि *नाश होना* स्वत: क्रिया है पर *हरण* में परत क्रिया होती है | यथा :- जीव-जंतु , पेड़-पौधे अपने निर्धारित आयु के बाद स्वत: *नष्ट* हो जाते हैं पर उनका *हरण* भिन्न बात है | *नष्ट* होने की क्रिया काल के अतिरिक्त परिस्थिति के अनुसार स्वत: होती है जिससे प्रकृति रूढ़ क्रिया कह सकते हैं | जैसे सूर्योदय से अंधकार *नष्ट* हो जाता है यहां सूर्य को उस कार्य के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती है | सूर्य या किसी प्रकाश की उपस्थिति अंधकार के *नष्ट* होने में पर्याप्त है किंतु *हरण* की क्रिया उसकी (हर्ता) उपस्थित मात्र पर्याप्त नहीं है , यह सचेष्ट क्रिया है | यहां *नासै* और *हरै* दोनों परिणामों को कहकर प्रभाव जन्य परिणाम व कृपा जन्य परिणाम *जप* तक के बताएं |
*हनुमान जी* का जप करने से *रोग नष्ट* हो जाते हैं व *हनुमान जी* प्रसन्न होकर *पीड़ा का हरण* कर लेते हैं | *हनुमान* जी *पीड़ा* को नष्ट कर के *रोग* का हरण क्यों नहीं कर लेते ? इसलिए कि *रोग* तो *जप* से स्वत: *नष्ट* हो जाते हैं व *पीड़ा* को *हरण* दूर करने की आवश्यकता होती है | *पीड़ा हरण* के लिए जीव प्रार्थना करता है और *रोग* के लिए यह आवश्यक नहीं है क्योंकि सभी *रोग* पीड़ाप्रद नहीं होते | कई *रोग* तो धीरे - धीरे देह में व्याप्त होते-होते मारक हो जाते हैं | तब तक भी रोगी व्याकुल या उनके प्रति सजग नहीं होता ! पर *पीड़ा* तो स्थित ही ऐसी है जिसमें जीव रोता है वह हानि लाभ की बुद्धि से *पीड़ा* सहन करने की चेष्टा या प्रयत्न कर सकता है पर वह *पीड़ा* नहीं हो सकती जिसका रोगी को ज्ञान ना हो | आजकल तो चिकित्सकों से भी यदि *रोग* की चिकित्सा नहीं होती तो भी *पीड़ानाशक* औषधियों से रोगी को शांत कर देते हैं | *रोग व पीड़ा* दोनों में *रोग* को प्रथम व *पीड़ा* को बाद में लिखने का अभिप्राय यह है कि हित प्रथम व प्रिय बाद में महत्वपूर्ण होता है |
हित के संबंध में जीव को ज्ञान नहीं होता इसलिए उसकी मांग नहीं करता बल्कि कभी-कभी अहितकर प्रिय की मांग भी करता है | यहां *हनुमान जी* स्वयं सुविज्ञ हैं | भक्तों का हित प्रथम करते हैं यह अनुग्रह है वह प्रिय भी देते हैं यह वात्सल्य व स्नेह है | दुखद शत्रु *रोग व पीड़ा* को बलपूर्वक हठात् *नष्ट व हरण* करने में बल की आवश्यकता या प्रधानता हैवअत: *हनुमान जी* के साथ *बलबीरा* कहकर *तुलसीदास जी महाराज जी* बताना चाहते हैं कि *हनुमानजी* बली व वीर हैं जिससे *रोगों को नष्ट करने या पीड़ा हरने में* कोई बाधा नहीं हो सकती | *रोग एवं पीड़ा* कोई भौतिक द्रव्य तो है ही नहीं जिसमें केवल भौतिक बल काम दे सके | यह तो अनुभवगम्य विषय है जो दिव्य बल से होते हैं | इसलिए कहा गया कि *हनुमानजी* भी निरंतर भगवन्नाम का जाप करते रहते हैं यद्यपि *हनुमान जी* बल में वीर है किंतु दिव्य शक्ति के स्रोत की धारा अविरल रूप से (जप) उनमें बह रही है | भगवान्नाम के बल पर ही शंकर जी काशी मेम सबको सद्गति देते हैं जैसा कि कहा गया है :-
*जासु नाम बल शंकर कासी !*
*देत सबहिं समगति अविनासी !!*
इसी तरह *हनुमानजी* भी *जपत निरंतर हनुमत वीरा* अर्थात निरंतर जाप करने के कारण भक्तों के *नासे रोग हरे सब पीरा* का भाव उपस्थित होता है | जो नाम रोग नाशक एवं दुखहारी है उसे *बली हनुमान जी* भी निरंतर जपते रहते हैं | *जपत निरंतर हनुमत बीरा* अर्थात *हनुमान जी* निरंतर *वीर* को जपते रहते हैं | *वीर कौन ?* केवल राम | *मानस* में सीता हरण के समय सीता जी पुकार कर कहतती हैं ;-- *हा जग एक वीर रघुराया* अर्थात संसार में एक ही वीर है वह है श्री रघुनाथ जी | स्वयं श्री राम जी ने वीर की परिभाषा करते हुए कहा है :- *महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो वीर*
धनुष मखशाला में भी लक्ष्मण जी को *वीर विहीन मही मैं जानी* इसलिए अखर गया था क्योंकि उसी सभा में वीर राम जी भी बैठे हुए थे |इसीलिए लक्ष्मण जी ने क्रोधित होकर कहा :--
*कहीं जनक जस अनुचित वानी !* *विद्यमान रघुकुल मनि जानी !!*
कहने का अभिप्राय है कि रोग नासन व पीड़ा हरण करने वाले नाम को *हनुमान जी* निरंतर जपते हैं अतः जो दुखी *हनुमान जी* का स्मरण करता है उसका दुख उसी क्रम बद्धता से स्वत: दूर हो जाता है | यदि यह कहा जाय कि *हनुमान जी* को तो कभी कोई *रोग दुख* होता नहीं फिर यह राम नाम का जप क्यों करते हैं ? *हनुमान जी* जो अपने इष्ट सानिध्य|नंद के लिए जपते रहते हैं | जैसे :- शंकर स्वयं स्वयंभू व सदा मुक्त है पर वे भी निरंतर राम नाम जपते हैं जिससे उनके क्षेत्र में आए जीव सभी प्रकार से मुक्त हो जाएं |
एक परम रहस्य की बात और है कि सभी मुक्तात्माएं भी शास्त्र विहित कर्म में व्यस्त दिखाई देती है | जबकि वे कर्म बंधन से ऊपर उठ गई होती हैं शुभ अशुभ कर्म उन्हें कुछ नहीं लगता है | कर्म फल नष्ट भी नहीं होता है | फिर क्या होता है इन मुक्तात्माओं की जो व्यक्ति सेवा करते हैं यथा योग्य अनुपात में इन मुक्तात्माओं के कर्म फल उनमें बंट जाते हैं | *हनुमानजी* को कोई *रोग दुख* नहीं होता व फिर भी *रोग शोक नाशक* राम नाम का जप करते रहते हैं | इसलिए *हनुमान जी* के इस जप का लाभ वे *हनुमान भक्त* जो *हनुमान जी* की सेवा करते हैं अनायास ही उठा लेते हैं | अर्थात *नासे रोग हरे सब पीरा* अथवा *हनुमान जी* निरंतर जिस वीर के नाम का जप करते हैं वह सब *रोगों का नाशक* एवं *दुखों का हरण करने वाला है* | अतः सभी व्यक्तियों को *हनुमान जी* की तरह उसी राम नाम का जप करते रहना चाहिए |
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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