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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *अड़तालीसवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*सैंतालीसवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*सब पर राम तपस्वी राजा !*
*तिनके काज सकल तुम साजा !!*
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अब आगे :-----
*और मनोरथ जो कोई लावे !*
*तासु अमित जीवन फल पावे !!*
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*और*
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*और* अर्थात रामजी के अतिरिक्त अन्य कोई अन्य भी कोई अपना मनोरथ लेकर आये से अभिप्राय है कि केवल राम जी के ही कार्य *हनुमान जी* ने नहीं बनाये बल्कि अन्य भी कोई यदि *हनुमान जी* से कुछ मांगता है तो *हनुमान जी* देने में संकोच नहीं करते | यहां *और* शब्द में कितनी उदारता है कि कोई *और* में जो कोई भी साथ रखकर दर्शाया गया है कि कोई *और* वर्ग , जाति विशेष की पाबंदी नहीं | *और* में सुर , नर , मुनि , दीन , राजा , रंक कोई भी हो सकता है | *हनुमान जी* में यह गुण क्यों ना हो क्योंकि वह *शंकर जी* के अवतार हैं अवढरदानी *भगवान शंकर* भी वरदान देते समय यह नहीं देखते थे कि यह देवता है राक्षस | रावण जैसे राक्षस को भी उन्होंने वरदान देने में संकोच नहीं किया , फिर *हनुमान जी* भी इस उदारता के स्वभाव का त्याग कैसे कर सकते हैं ?? अतः *तुलसीदास जी महाराज* ने *रामचंद्र के काज संवारे* या *तिन के काज सकल तुम साजा* कहने के तुरंत बाद यह भाव प्रकट कर दिया कि कोई भी अपना मनोरथ लेकर *हनुमान जी* के पास उपस्थित हो सकता है | राम जी की महत्ता *सब पर राम* कहकर उनके कार्य संवारने से कोई यह न समझ बैठे कि *हनुमान जी* तो बड़े *तपस्वियों एवं राजाओं* के ही कार्य संवारते हैं | दीन - हीन , रंक की वहां जाकर क्या सुनवाई होगी ? अतः यहां *और* शब्द लिखकर उनकी उदारता बताई कि कोई भी वहां अपना *मनोरथ* रख सकता है | वहां बड़े - छोटे का कोई भेद नहीं | *श्री राम जी* की बात कह देने से संदेह हो सकता था कि *रामजी* ने जब लीला की तो उसे तो *हनुमान जी* ने सजा दिया पर *रामजी* ने अपनी लीला का संवरण तो त्रेतायुग में ही कर लिया तो अब *हनुमान जी* की प्रार्थना करने से क्या मिलने वाला है ?? इस संदेह का निवारण करते हुए यही कहना चाहूंगा कि *राम जी* ने भले ही न लीला का संवरण कर लिया हो पर *हनुमान जी* तो *चिरंजीवी* हैं | *राम जी* के परमधाम जाने के बाद *हनुमान जी* के पास तो एक ही कार्य रह गया है दीन दुखियों का दुख हरण करना | कुछ लोग इस पर प्रश्न उठा सकते हैं *हनुमान जी* तो निरंतर *रामजी* के ध्यान में लीन रहते हैं उनको जगत से क्या तात्पर्य है ? जो कि वह लोगों के दुखों पर ध्यान दें ? इसके समाधान में यह कहा जा सकता है *भगवान राम* की आज्ञा ही ऐसी है कि मेरी लीला संवरणोपरांत तुम सज्जनों का दुख दूर करोगे , तथा *दूसरी बात* यह है कि *हनुमान जी* तो अनन्य भक्त हैं उनकी दृष्टि में सृष्टि भी भगवान का लीला विलास ही है इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं | इसलिए तो मर्यादा के पोषण हेतु भगवान के विराट स्वरूप सृष्टि की सेवा में भी *राम जी* की ही सेवा मानते हैं , अन्य सभी जीवो को इसमें व्यक्त करते हुए कहा *और मनोरथ जो कोई लावे* का आशय यह है कि जो कोई भी *हनुमान जी* की शरण में आएगा वह खाली हाथ या निराश होकर नहीं लौटेगा |
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*और मनोरथ*
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इसका अभिप्राय यह है कि आपने एक *मनोरथ* तो *हनुमान जी* से पूरा करवा लिया पर आप बार-बार *हनुमान जी* से अपना *मनोरथ* कैसे पूरा कराया जाए ? इस संकोच को दूर कर देना चाहिए | यही भाव लेकर *तुलसीदास जी महाराज* ने यह लिखा कि भक्तों को *हनुमान जी* के पास बार-बार अपना *मनोरथ* रखने में संकोच नहीं करना चाहिए | यदि आपकी कोई कामना पूरी हो गई है उसके बाद *और कोई मनोरथ* है तो उसे भी निसंकोच *हनुमान जी* के समक्ष रखना चाहिए और उसे *हनुमान जी* पूरा भी करते हैं यही तो *हनुमान जी* की अतिशय उदारता एवं भक्तवत्सलता है |
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*तासु अमित जीवन फल पावे*
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*तासु* अर्थात उससे ! प्रश्न उठेगा कि किससे ? हनुमान जी से ? तो उत्तर होगा नहीं बल्कि उस *मनोरथ* से | पुन: प्रश्न हो सकता है कि जीव *मनोरथ* से कैसे जीवन का फल प्राप्त कर सकता है ? इसका जवाब यही होगा कि कर सकता है | यूं तो जीव स्वभाव बस स्वार्थी होता है जैसा कि मानस में दर्शाया गया है :--
*सुर नर मुनि सब कर यह रीती !*
*स्वारथ लाई करइं सब प्रीती !!*
इसमें केवल *हनुमान जी* जैसे राम भक्त या स्वयं भगवान ही अपवाद है क्योंकि इनका अपना कोई स्वार्थ होता ही नहीं | यथा :- *स्वारथ रहित परम हितकारी ! तुम तुम्हार सेवक असुरारी !!* फिर *मनोरथ* शब्द तो है ही स्वार्थ के लिए | जीव की स्वाभाविक प्रवृत्तियां वाह्य इंद्रिय सुखों में आशक्त रहती हैं उसके लिए वह भगवान को तो क्या देव दानव किसी को भी पूज सकता है | उसे सांसारिक विरक्ति पूर्वक भगवान की भक्त के मूल्य महत्व का अनुभव जो नहीं है | *हनुमान जी* जीव के परम हितकारी ठहरे ! जीव अपने हित अहित को पहचानता नहीं है वह तो अपने सांसारिक सुख की रुचि जी को जानता है `| भगवान ने इसीलिए भोगों की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक अनुष्ठानों की परिकल्पना की थी | *श्रीमद्भागवत महापुराण* में इसीलिए कहा गया है कि *रोचनार्था: फल श्रुति:* | कहने का अभिप्राय है कि जीव *हनुमान जी* के पास यदि अपना *और कोई* सांसारिक *मनोरथ* भी लेकर आएगा तो भी आएगा तो सही स्थान पर ना ? उसका वह *मनोरथ* पूर्ण होगा ही , पर उसके अतिरिक्त *अमित जीवन फल* जो कहीं प्राप्त नहीं कर सकता था उसका लाभ अलग से मिल जाएगा | आया तो था वह किसी *अन्य मनोरथ* के बहाने से व उसे *अमित जीवन फल* भी मिला तो उसमें भी हेतु कौन हुआ ? वह *मनोरथ* ही तो हुआ | इसीलिए कहा गया था *अमित जीवन फल पावे*
यहां मार्मिक तथ्य तो यह है कि यहाँ यह नहीं कहा गया कि जो *मनोरथ* कोई लाएगा वह ही पूरा होगा या जो कोई मांगेगा वही फल मिलेगा बल्कि यहाँ कहने का भाव यह है कि *अमित जीवन फल* का निमित्त मात्र बन सकता है | वस्तुतः तो जो हितकर है वही मिलेगा | *तासु* अर्थात *हनुमान जी* से किसी अनिष्ट फल की प्राप्ति नहीं हो सकती | *मनोरथ* अर्थात मन की इच्छा प्राप्त नहीं हो कर हितकर *अमित जीवन फल* भक्ति मुक्ति आदि की प्राप्ति ही होगी ऐसी बात नहीं है | *मनोरथ* तो मिलेगा ही उसके अतिरिक्त यह सब कुछ और भी मिलेगा जैसे सुग्रीव विभीषण आदि को केवल उनकी अभिलषित वस्तु राज्य , वैभव आदि तो मिले ही बल्कि अयाचित भक्ति भगवद्प्राप्ति आदि भी मिल गई | यही भाव मन में रखते हुए *तुलसीदास जी महाराज* ने *हनुमान चालीसा* के क्रम में राम जी के काज संवारने की बात , सजाने की बात लिखने के तुरंत बाद लिख दिया कि :- *और मनोरथ जो कोई लावे ! तासु अमित जीवन फल पावे !!*
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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