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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *सत्तावनवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*छप्पनवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*संकट कटै मिटै सब पीरा !*
*जो सुमिरै हनुमत बलबीरा !!*
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अब आगे :----
*जय जय जय हनुमान गोसाई !*
*कृपा करहुं गुरुदेव की नांईं !!*
*के अंतर्गत*
*जय जय जय*
*×××××××××*
ध्यान देने की बात है यहां पर *गोस्वामी तुलसीदास जी* महाराज ने *जय* शब्द तीन बार लिखा है , जिस के विभिन्न भाव हो सकते हैं | जिनमें से कुछ पर विचार किया जा रहा है | कुछ भी हो यह तो निश्चित ही है कि विशेष भाव या अभिप्राय तो प्रकट है ही जिससे इस चौपाई , छंद , अलंकार भाव अर्थ आदि अभिव्यंजना विशेष प्रभावशाली हो गई है | इससे पूर्व *जय* शब्द दो बार दो अर्धालियों में आया है | जैसे :-
*जय हनुमान ज्ञान गुण सागर*
*××××××××××××××××××××*
*जय कपीस तिहुं लोक उजागर*
*×××××××××××××××××××××*
*हनुमान चालीसा* का प्रारंभ इसी *जय* शब्द से हुआ है तो अब उपसंहार भी *जय* शब्द से ही हो रहा है | कुछ विशिष्ट दिव्य शास्त्रों , काव्यों , ग्रंथों की परंपरा पूर्णता प्रकट करने हेतु ऐसी ही रही है जैसे *गोस्वामी जी* ने *श्रीरामचरितमानस* का प्रारंभ व वर्ण से *(वर्णानामर्थ)* से करके समाप्ति भी व वर्ण *(मानवा:)* पर की है | अब कुछ लोग यह भी कह सकते हैं यह तो सैंतीसवीं चौपाई है तथा इस स्तोत्र का नाम *चालीसा* है जो कि चालीस चौपाइयों से युक्त है फिर इस चौपाई को उपसंहार कैसे माना जा सकता है ?? ऐसे सभी लोगों को मैं यह बताना चाहूंगा कि मैंने यहां पर समाप्ति नहीं लिखा है बल्कि उपसंहार *( उप = समीप , संहार = समाप्ति )* अर्थात समाप्ति के निकट है | दूसरी बात यह है कि वस्तुतः स्तोत्र के दो भाग करें तो प्रथम भाग में *हनुमान जी* के केवल गुणानुवाद हैं बीच में कहीं भी कोई मांग नहीं की गई है | प्रथम ३६ चौपाइयों में गुणानुवाद की पूर्णता , संख्या की पूर्णता की प्रतीक व अक्षय तथा अधिकतम संख्या ९ से विभाजन पूर्ण कर दी गई है | ३६ की संख्या भी ३+६ = ९ है | आगे की चार चौपाइयों में से प्रथम अर्थात सैंतीसवी चौपाई प्रस्तुत कर रहा हूं जिसमें अपना अर्थ उद्देश्यपूर्ति की विधा की प्रार्थना , बाद की दो चौपाइयों में स्तोत्र की फलश्रुति व अंतिम चौपाई में उद्देश्य (साध्य) साधन साधक एवं सारांश का बड़े ही दिव्य ढंग से वर्णन कर दिया गया है | गुणानुवाद रूप स्तोत्र का प्रारंभ *जय* से कर उसकी समाप्ति पर *जय* शब्द पुनः देकर स्तोत्र के एक भाग पूर्ण होने की सूचना *गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज* दे रहे हैं | किसी भी शब्द या वाक्य क्रिया को तीन बार कह कर दृढ़ता से बलपूर्वक उसकी ओर ध्यान आकृष्ट किया जाता है | लोक व्यवहार में भी यदि किसी व्यक्ति को विशेष शपथ दिलाई जाती है तो तीन बार आवृत्ति पूर्वक घोषणा की जाती है | यथा :- *करूंगा - करूंगा - करूंगा*
*श्री रामचरितमानस* में *कागभुशुण्डि जी* भक्तों के सिद्धांत का दृढ़ता से समर्थन करने के लिए तीन बार नमस्कार करते हैं | यथा :--
*××××××××××××××××××××*
*तरिअ न विनु सेये मम स्वामी !*
*राम नमामि नमामि नमामी !!*
*××××××××××××××××××××*
इसी प्रकार यहां भी *जय* की दृढ़ता प्रकट करते हुए तीन बार आवृत्ति की गई है | सोए हुए को जगाने के लिए या अन्य मनस्क व्यक्ति का ध्यान गहराई से अपनी और आकर्षित करने के लिए बहुत बार संबोधित जोर देकर किया जाता है | यहां भी *हनुमान जी* को ऋषि के श्रापानुसार समाधिस्थ समझकर तीन बार पुकारा गया है जो कि बहुवचन का प्रतीक है | दो बार *जय-जय* पूर्व में कह चुके हैं अभी तक *हनुमान जी* ने नहीं सुना तो अधिक जोर देने के लिए तीन बार *जय* शब्द कहकर उनको बुला रहे हैं | *हनुमान जी* के पांच मुख हैं पांचों के कानों में आवाज देने के लिए पूर्ण स्तोत्र में पाँच बार *जय* शब्द का घोष किया गया जिसमें दो बार पूर्व में किया जा चुका है व तीन बार अब लिखा जा रहा है | भूत भविष्य वर्तमान तीनों कालों के लिए बताने के लिए यहां पर तीन बार जयघोष किया गया | प्रथम *जय* शब्द *संबोधन* के लिए दूसरा *नमस्कार* के लिए *तीसरा* शब्द *सफलता* को बताने के लिए *तुलसीदास जी महाराज* ने लिखा है | यहाँ गुरु, देवता व गोस|ईं तीनों रूपों में *हनुमान जी* की प्रतिष्ठा की गई है इसलिए तीन रूपों में तीन बार *जय* शब्द का उच्चारण करके काव्य की दिव्यता को बढ़ा दिया है |
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*हनुमान गोसाई*
*××××××××××*
*गोसाई* शब्द का अर्थ नाथ या स्वामी के रूप में लिया जाता है | यहां अपने स्वामी नाथ या संरक्षक के रूप में *हनुमान जी* को पुकारा गया है अतः *हनुमान जी* आपकी जय हो | प्रारंभ में *जय* शब्द के साथ *हनुमान* शब्द दिया था अब उपसंहार में भी *जय जय* के साथ *जय हनुमान* शब्द ही दिया गया जिससे आद्यांत पुकार एक ही नाम से की गई | *श्रीरामचरितमानस* के प्रतिपाद्य विषय के संबंध में स्वयं *गोस्वामी जी* ने लिखा है :--
*××××××××××××××××××××*
*जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना !*
*प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना !!*
*××××××××××××××××××××*
इसी प्रकार यहां प्रतिपाद्य विषय *हनुमान जी* हैं जो कि इस स्तोत्र के प्रधान देवता है इसलिए स्तोत्र के आदि अंत में *हनुमान जी* का नाम दिया गया | तीन बार *जय* शब्द के साथ यहां इस चौपाई में *हनुमान* नाम भी *तीसरी बार* आया है | विचार करने की बात है पूरे *हनुमान चालीसा* में तीन बार ही *हनुमान जी* का नाम *गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज* ने लिखा है |
*प्रथम* आदि में :--
*जय हनुमान ज्ञान गुण सागर*
उसके बाद फिर *मध्य में*
*संकट ते हनुमान छुड़ावैं*
और अब *अंत में* लिख रहे हैं :-
*जय जय जय हनुमान गोसाई*
यदि पूरे स्तोत्र के आदि मध्य और अंत में तीन बार *हनुमान जी* का नाम लिखा है तो इसमें तीन प्रमुख विशेषताएं भी दिखाई पड़ती है | विचार कीजिएगा प्रथम बार *हनुमान* शब्द लिखा तो उनको *ज्ञान गुण सागर बताया* मध्य में जब *हनुमान* शब्द लिखा तो *बल सामर्थ्य* का दर्शन कराया क्योंकि वह *संकट से छुटकारा* दिलाते हैं *संकट से छुटकारा* वही दिला सकता है जिसके भीतर बल एवं सामर्थ्य हो | और अब यहां पर अंत में *गोसाई* शब्द लिखकर के *हनुमान जी* की जितेंद्रियता का दर्शन करा रहे हैं | क्योंकि गो का अर्थ है इंद्रियाँ एवं उनके स्वामी | जीव इंद्रियों के अधीन होता है पर यहां इंद्रियों के स्वामी कहकर इंद्रियों को भी *हनुमान जी* के आधीन बताया गया है |
*एक अन्य भाव*
पहले *जय कपीस* कहा था और अब *गोसाईं* रहे हैं | इंद्रियों पर प्रभुत्व ज्ञानियों का भी नहीं होता है यथा :--
*×××××××××××××××××××*
*जो ज्ञानिन्ह कर चित अपहरई !*
*बरिआई विमोह बस करई !!*
*××××××××××××××××××*
*गोसाई* कहकर *गोस्वामी जी* ने ज्ञानियों की दुर्बलताओं का अभाव बताया कि *हनुमान जी* आप स्वयं *गोसाई* प्रभु हैं अतः विभवात्मक इंद्रियों के बल से आप हमारी रक्षा करें हम आप की शरण में हैं |
*एक अन्य भाव*
इंद्रियों का स्वामी *मन* को भी कहा गया है क्योंकि वह *मन* की उपस्थिति में ही सजीव एवं सक्रिय प्रभावी होती हैं पर *हनुमान जी* क्या है ? *हनुमान जी* को कहा गया है *मनोजवं मारुततुल्यवेगं* अतः कभी-कभी *मन* स्वयं इंद्रियों का अधिष्ठाता हो कार्य करने लग जाता है | जैसे स्वप्न में , तो *हनुमान जी* को तब भी कोई भय नहीं हो सकता क्योंकि वस्तुत: *हनुमान जी* स्वयं *गोसाई* हैं | *हनुमान व गोसाईं* दोनों शब्द एक साथ देकर *तुलसीदास जी महाराज* ने यह बताने का प्रयास किया है कि *हे हनुमान जी* आप धन्य हैं जो कि *गोसाई* होकर भी निराभिमानी है | *भाव एक यह भी* है कि यद्यपि आप गो - इंद्रियों के स्वामी हैं फिर भी उनके अभिमानी देवता नहीं है | इंद्रियों के अपने-अपने अभिमानी देवता अलग-अलग हैं | यथा :- *नेत्रों के सूर्य* , *रसना के वरुण* आदि सभी अपने अपने क्षेत्रज गो के स्वामी है | *हे हनुमान जी* आप सबके सार्वभौम स्वामी हैं परंतु इतना होने के बाद भी आप आपने अपने मान का हनन कर दिया और *हनुमान* कहलाए | इसीलिए गोस्वामी *तुलसीदास जी महाराज* ने यहां पर *हनुमान जी* को *गोसाई* कह कर संबोधित किया है |
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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