*इस धरा धाम पर जन्म लेने के बाद मनुष्य का एक ही लक्ष्य होता है ईश्वर की प्राप्ति करना | वैसे तो ईश्वर को प्राप्त करने के अनेकों उपाय हमारे शास्त्रों में बताए गए हैं | कर्मयोग , ज्ञानयोग एवं भक्तियोग के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त करने का उपाय देखने को मिलता है , परंतु जब ईश्वर को प्राप्त करने के सबसे सरल मार्ग को खोजा जाय तो वह भक्तियोग ही दृष्टिगत होता है | ईश्वर प्राप्ति के समस्त साधनों में , सभी मार्गों में भक्ति का मार्ग अत्यंत सरल और सुगम है | भक्ति ईश्वर के प्रति परम प्रेम है | यह निष्कपट भावना है | प्रेम के बिना भक्ति का उद्भव नहीं हो सकता | भगवान के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है | जब मनुष्य इसे प्राप्त कर लेता है तो सभी उसके प्रेमपात्र बन जाते हैं और वह किसी से घृणा नहीं करता तथा वह सदा के लिए संतुष्ट हो जाता है | इस प्रेम से किसी काम्य वस्तु की प्राप्ति की कामना नहीं रह जाती क्योंकि जब तक मन में सांसारिक कामनाएं , वासनायें रहती है तब तक दिव्य प्रेम का उदय नहीं हो सकता | जब भक्ति करते हुए मनुष्य के चित्त के सारे मल धुल जाते हैं तब साधक का रोम-रोम प्रेमोन्मत्त हो जाता है और इस परम प्रेम को धारण करते ही साधक का हृदय समुद्र सा गहरा और विशाल हो जाता है और उसमें प्रत्येक क्षण प्रेम की ऊंची ऊंची लहरें उठने लगती है और यह सागर देखते ही देखते स्वयं साधक को अपने प्रेम पाश में भर लेता है | तब साधक को सारी सृष्टि ईश्वरमय दिखने लगती है और उसका रोम-रोम पुलकित होता है | भगवान ने गीता में स्वयं कहा है :- "समो$हम् सर्वभूतेषु न में द्वेष्यो$स्ति न प्रिय: ! ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् !! अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ! साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स: !!" अर्थात :- भगवान कहते हैं कि मैं सभी भूतों में समभाव से व्यापक हूं न कोई मेरे लिए अप्रिय है और ना ही प्रिय है , परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं वे मुझमें है और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट रहता हूं | यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त हो कर मुझको भजता है तो साधु ही मानने योग्य है क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है अर्थात उसे भली-भांति यह निश्चित हो गया है कि परमेश्वर के भजन के समान और कुछ दूसरा नहीं है | मनुष्य ईश्वर के प्रति प्रेम भाव तभी रख सकता है जब उसके हृदय में भक्ति हो और भक्ति का प्राकट्य सत्संग के माध्यम से ही हो सकता है , क्योंकि नवधा भक्ति के विषय में बताते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिख देते हैं "प्रथम भगति संतन कर संगा" जब तक सत्संग नहीं होगा तब तक भक्ति का प्राकट्य नहीं हो सकता है और जब तक हृदय में भक्ति नहीं होगी तब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती | इसलिए ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल साधन भक्ति को कहा गया है |*
*आज के आधुनिक युग में मनुष्य के द्वारा ईश्वर प्राप्ति के लिए अनेकानेक उपाय किए जा रहे हैं परंतु इन उपायों में जो सबसे आवश्यक है अर्थात प्रेम वह कहीं भी नहीं दिखाई पड़ रहा है | आज मनुष्य के मन में अनेकों प्रकार की कामनाएं एवं वासनायें ही भरी हुई हैं , और जहां कामना एवं वासना होती है वहां प्रेम का होना संभव नहीं है , क्योंकि वासना एवं कामना यदि अमावस की काली रात है तो प्रेम को पूर्णिमा की चांदनी कहा गया है और दोनों एक साथ कदापि नहीं रह सकते | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि जिसके हृदय में कामना एवं वासना है उसके हृदय में भगवान की भक्ति कदापि नहीं हो सकती और जहां भगवान की भक्ति का प्राकट्य हो गया वहां ना तो कामना शेष रहती है और ना ही वासना | आज अनेकों मठाधीश दिन भर माला जपा करते कुछ लोग घंटों बैठकर पूजन किया करते हैं परंतु उनके हृदय में भगवान के प्रति प्रेम है कि नहीं यह उनके आचरण को देखकर आकलन किया जा सकता है | कुछ लोग ऐसा भी पूछ सकते हैं कि मन से वासनाओं एवं कामनाओं को निकालने का कोई सरल उपाय तो होगा ? तो इसका उत्तर यही होगा कि कामना एवं वासना को जड़ से समाप्त करने का यदि कोई साधन है तो वह भी भक्ति ही है क्योंकि भक्ति यदि साधना है तो साध्य भी वही है यदि हृदय में वासना एवं कामना भरी है और उसी के मध्य भक्ति का दीपक जल उठे तो उस भक्ति के उजियारे में चित्त में व्याप्त वासनाओं , कामनाओं व कुसंस्कारों का अंधियारा मिल सकता है | यदि ईश्वर को प्राप्त करना है तो सबसे सरल उपाय भक्ति का मार्ग अपनाना चाहिए क्योंकि जब मनुष्य ईश्वर की भक्ति करने लगता है उसके प्रति हृदय में प्रेम का प्राकट्य हो जाता है तो ना तो जप करने की आवश्यकता होती है ना ही तप करने की आवश्यकता होती है | सिर्फ भगवान के प्रेम में निरंतर आकुल व्याकुल होकर सारे संसार को ईश्वरमय देखते हुए साधक ईश्वर को प्राप्त कर सकता है | भगवान का नित्य पूजन स्मरण आदि भी करना आवश्यक है क्योंकि इससे चित्त की शुद्धि होती है तथा भगवददृष्टि विकसित होती है और इसी से ही ईश्वर के प्रति मनुष्य के हृदय में प्रेम का प्राकट्य होता है जो कि भक्ति का प्रथम सोपान कहा गया है |*
*भक्तिमार्ग की सबसे सरल बात यह है कि यदि स्थूल भौतिक सामग्रियों से भगवान का पूजन करना सम्भव न हो तो मानसिक पूजन करके भी ईश्वर को रिझाकर अपना बनाया जा सकता है | यही भक्तियोग की दिव्यता है |*