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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🟣 *श्री हनुमान चालीसा* 🟣
*!! तात्त्विक अनुशीलन !!*
🩸 *चौसठवाँ - भाग* 🩸
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*गतांक से आगे :--*
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*तिरसठवें भाग* में आपने पढ़ा :--
*पवन तनय संकट हरण मंगल मूरति रुप !*
*राम लखन सीता सहित हृदय बसहुँ सुरभूप !!*
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के अन्तर्गत :-
*मंगल मूरति रुप*
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अब आगे :--
*राम लखन सीता सहित , हृदयँ बसहुँ*
*×××××××××××××××××××××××××*
*राम लखन सीता सहित* लिखकर *तुलसीदास जी* कहते हैं कि *हे हनुमान जी* आप मेरे *हृदय में राम लक्ष्मण एवं सीता सहित* बसिये | क्योंकि अकेले आप रह ही नहीं सकते ! यदि *राम लखन सीता सहित* रहेंगे तो स्थाई निवास हो जायेगा क्योंकि आप को *राम जी* नहीं छोड़ सकते और आप *भगवान राम व सीता* को नहीं छोड़ सकते , *लखनलाल जी* व मैया *सीता* भी भगवान के हिना नहीं रह सकते ! आपका *चतुष्टय परिवार* होने पर मेरा हृदय सार्थक एवं कृकृत्य हो जायेगा ! चारों मूर्तियों *(राम लक्ष्मण सीता एवं हनुमान जी)* के एक साथ होने पर इनको *राम चतुष्टय* कहा जाता है | *श्रीरामरक्षास्तोत्र* में भी इस मांगलिक ध्यान योग्य झाँकी का वर्णन किया गया है |
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*दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा !*
*पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम् !!*
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अर्थात जिनके दाहिनी ओर *लक्ष्मण* बाँयीं ओर *सीता जी* सामने *हनुमान जी* हैं मैं उनकी वन्दना करता हूँ | एक दोहे में *गोस्वामी जी* लिखते हैं |
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*राम वाम दिसि जानकी , लखन दाहिनी ओर !*
*ध्यान सकल कल्यानमय , सुरतरु तुलसी तोर !!*
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अत: *राम लखन सीता सहित* ही हृदय में रहने की प्रार्थना की गयी है |
चारों को साथ न रखने पर परिणाम भिन्न हो सकते हैं | उदाहरण के लिए यह देखना जरूरी है कि :-
जब रावण अकेली *सीता जी* को लेकर गया और उनको रखना चाहता था तो उसका परिणाम क्या हुआ ?
*राम लक्ष्मण जी* को अहिरावण लेकर गया लेकिन वह भी उनको रख नहीं पाया !
महाराज दशरथ *हनुमान जी* के बिना *राम लखन सीता* को अयोध्या में रखना चाहते थे लेकिन वह भी नहीं रख पाए और जब *हनुमान जी* के सहित *श्री राम* का राज्याभिषेक हुआ तो मंगल स्वरूप जन कल्याण का आदर्श कल्पांतो तक अक्षय हुआ | यही रहस्य है कि गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज *रूप चतुष्टय* के चारों प्रधान देवताओं की अलग-अलग वंदना ना करके *राम लखन सीता सहित हृदय बसहुँ* कह कर निवेदन कर रहे हैं |
अयोध्या कांड महर्षि बाल्मीकि ने भगवान राम को जो आवास स्थल बताए हैं उनमें तीनों प्रकार की स्थित वाले भक्तों के हृदय कहे गए हैं | कोई स्थल केवल राम जी कोई सीताराम जी कोई सीता लखन सहित राम जी के रहने के लिए बताए गए हैं जैसा कि *मानस* में वर्णन है :-
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*लोचन चातक जिन्ह करि राखे !*
*रहहिं दरस जलधर अभिलाषे !!*
*निदरहिं सरित सिंधु सरि भारी !*
*रूप विन्दु जल होहिं सुखारी !!*
*तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक !*
*बसहुँ बन्धु सिय सह रघुनायक !!*
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*स्वामि सखा पितु मातु गुरु , जिनके सब तुम्ह तात !*
*मनमंदिर तिनके बसहुँ सीय सहित दोउ भ्रात !!*
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इस प्रार्थना का अभिप्राय है कि जो व्यक्ति रहता है वह या तो वहां रहता है जो स्थान उसके आवास योग्य हो या वह जहां रहता है उसे अपने उपयुक्त बना लेता है , क्योंकि उसे वहां रहना है | *तुलसीदास जी* अपने को स्वयं इतना योग्य नहीं मानते कि उनके हृदय में चारों *(रूप चतुष्टय)* रहे | इसीलिए *हनुमान जी* से प्रार्थना करते हैं कि *हनुमान जी* आप यदि यहां रहोगे तो अपनी सामर्थ्य से हृदय को इस योग्य अपने आप बना लोगे कि जिसमें *राम लखन सीता* का भी आश्रय स्थल हो जाएगा | यहां सिर्फ हृदय में रहने की प्रार्थना नहीं की गई है बल्कि हृदय को रहने लायक बनाने की प्रार्थना भी *तुलसीदास जी महाराज* कर रहे हैं |
*एक विशेष बात , एक विशेष भाव देना चाहता हूं*
हृदय के अंतः करण स्वरूप में चार भाग है मन , बुद्धि , चित्त एवं अहंकार | चारों में चारों को स्थान मानो दे रहे हैं भौतिक रूप से भी हृदय के चार कोष्ठ होते हैं जिनकी योग्यता के आधार पर दैनिक जीवन टिका रहता है | अब देखने योग्य बात यह है कि *तुलसीदास जी महाराज* इन चारों मूर्तियों को हृदय के अंतः करण के चार भागों में कहां स्थान देना चाहते हैं | तो इस पर भी विद्वानों का विचार है |
*मन में हनुमान जी*
*बुद्धि में सीता जी*
*चित्त में श्री लखन लाल जी*
*व अहं स्वरूप आत्मा में भगवान राम को*
स्थापित करने की प्रार्थना करते प्रतीत हो रहे हैं |
*अपना भाव इस प्रकार है कि*
*मन* का नियंत्रण प्राण वायु के द्वारा होता है जो कि वायु का ही अंश *पवन तनय* है |
*बुद्धि* की निर्मलता *जानकी जी* प्रदान करती हैं जैसा कि *मानस* में *गोस्वामी तुलसीदास जी* वर्णन करते हैं :--
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*जनक सुता जगजननि जानकी !*
*अतिसय प्रिय करुणानिधान की !!*
*ताके जुग पद कमल मनावउँ !*
*जासु कृपा निर्मल मति पावउँ !!*
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इसलिए *बुद्धि* के स्थान पर *सीता जी* को स्थापित कर दिया गया |
*चित्त* में *लक्ष्मण जी* को स्थान इसलिए दिया गया क्योंकि *लक्ष्मण जी* जीवाचार्य है | *चित्त* में व्यक्तियों के समाहार पूर्वक भगवद् तत्व का प्रकाश करने का कार्य जीवाचार्य का ही है | शेष के स्वरूप में कुंडली मारकर नेत्र भगवान पर लगाए हृदयंगम किये रहते हैं , इसलिए उनको *चित्त* में स्थान दिया है |
अहं में तो जीवात्मा अपने अस्तित्व को ही कूटस्थ होकर स्वीकार वृत्तिमय बनाए रहता है | जैसा कि लिखा गया है :-
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*सो$हमस्मि इति वृत्ति अखंडा !*
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यही तो जीव
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*ईश्वर अंश जीव अविनाशी !*
*चेतन अमल सहज गुणराशी !!*
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इस प्रकार चारों की उपस्थिति यथा स्थान मांगने का प्रयास *गोस्वामी तुलसीदास जी* क रहे हैं जिससे अंतःकरण पूर्ण हो जाने से अन्य किसी विषय के आने का स्थान व अवकाश ही न रह जाए | *सहित ह्रदय* अर्थात *हृदय के सहित* |
*गोस्वामी जी* के कहने का अर्थ है कि *हे हनुमान जी* आपके रहने से हृदय का हित हो जाएगा | *सहित* में समर्पण भाव भी है कि आप सहित *(हित सहित)* हृदय में निवास करें | यथा :--
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*जेहि विधि होइ नाथ हित मोरा !*
*करहुँ सो वेगि दास मैं तोरा !!*
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*सहित हृदय* यथा *सहृदय* अर्थात करुणापूर्वक निवास कीजिए | *बसहुँ* का भाव है कि सदा रहिये , सदा के लिए बस जाईये ! आने के बाद कभी वापस नहीं जाइए |
*शेष अगले भाग में :---*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
पुराण प्रवक्ता/यज्ञकर्म विशेषज्ञ
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्या जी
9935328830
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