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हिन्दी-दिवस

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चाहे कुछ भी हो जाए ,आप अपना true self या ये कहे की अपनी authenticity कभी मत खोना।क्योंकि सब कुछ नश्वर है ,बस true self ही सब कुछ है।

हमे भी मोहब्बत है, तुम्हे भी मोहब्बत है।ये कैसी बेवफाई है,जो दोनों की हैना तुम बता सके ना हम सुन सकेकिसी और को सुनाते सुनाते ,किसी के न रह सके।

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बहुत दिनन के, बाद आयी हमका, मोरे पिहरवा की, याद रे ॥1॥ चाँदी जैसे खेतवा में, सोना जैसन गेहूँ बाली, तपत दुपहरिया में आस रे ॥2॥ अँगना के लीपन में, तुलसी तले दीया, फुसवा के छत की, बरसात रे ॥3॥

         गज्जू 12वीं पास करने के बाद पंजाब अपने मामा के साथ नौकरी की तलाश में चला गया था, कुछ दिन तक घर में ही रहा उसके बाद वहीं उसको एक ढाबे में नौकरी मिल गयी। शुरू में ढाबे

श्रावण   मास    के   चतुर्थ   सोमवार     पर  अनंगशेखर  चंद्रशेखर  दयानिधान    भक्त वत्सल सतीपति   सोमनाथ   महाकाल   भीमाशंकर  त्रिपुरारि शिवशंभु शशिधर को   नमन -----    ==============================

वक़्त गुजरेगा आहिस्ता-आहिस्ता,  इसकी सिलवटें  हर चेहरे पर होंगी ।       @नील पदम्  

छोड़ भगौने को चमचा, चल देगा उस दिन । माल भगौने के भीतर, ना होगा जिस दिन ॥ @ नील पदम् 

इश्क की पहली शर्त कि कोई शर्त ना हो 🌹 @नील पदम् 

इसकी तामीर की सज़ा क्या होगी, घर एक काँच का सजाया हमने । मेरी मुस्कान भी नागवार लगे उनको, जिनके हर नाज़ को सिद्दत से उठाया हमने । वक़्त आने पर बेमुरव्वत निकले, वो जिन्हें गोद में उठाया हमने । सितम

मत कहो  नहीं, आज मुझसे कोई तस्वीर रंगने को मत कहो। क्योंकि, हर बार जब मैं ब्रश उठाता हूँ, और उसे  रंग के प्याले में डूबता हूँ; उस रंग को जब  कैनवास के  धरातल पर सजाता हूँ; तो सिर्फ एक ही

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गर्व था मुझे मेरे, मन के विश्वामित्र पर, अभिमान था मुझे मेरे, चित्त के स्थायित्व पर, स्वच्छंद मृग सा घूमता था, डोलता था हर समय, स्वयं के ही अंतर्मन से, खेलता था हर समय। पर उसी क्षण द्वार पर, म

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वो बोगेनविलिया की बेल रहती थी उपेक्षित, क्योंकि थी समूह से दूर, अलग, अकेली, एक तरफ; छज्जे के एक कोने में जब देती थीं सारी अन्य लताएँ लाल, पीले, नारंगी फूल, वो रहती थी मौन, सिर्फ एक पत

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काश! मैं पाषाण होता, मेरे ह्रदय पर कोई पाषाण तो नहीं होता, काल के आघात से विखर जाता, वेदना से छटपटाकर नहीं रोता ।। पूष की ठिठुरन होती, या जेठ की अंगार तपन, श्रावण का सत्कार होता, या होता पत

भारत में फ़ुटबॉल की उत्पत्ति का पता उन्नीसवीं सदी के मध्य में लगाया जा सकता है जब इस खेल की शुरुआत ब्रिटिश सैनिकों द्वारा की गई थी। प्रारंभ में, खेल सेना की टीमों के बीच खेले जाते थे। हालाँकि, जल्द ही

सुबह  जब पहली  किरण निकली गुलाब की वह पहली कली खिली शबनम  की पहली  बूँद  की आहट चिड़ियाओ की पहली  चहचाहट। कली की पंखुड़ीयों ने ली अंगड़ाई बाग़  में कदमो की आवाज  आय

आज भोरे जईसन खोली खिड़की देखा कलुआ की होत रही पिटाई,मारत रही पुलिस वाली अम्मा नीचे लेटा रहा कलुआ बनकर चटाई। बोलत रहा कलुआ "अम्मा अब न निकली बाहर कसम महरारू की," अम्मा न मानी बोली "हराम खोर त

न इस्तेमाल करें पति की धोती का कपड़ा,केवल इस्तेमाल करें स्वच्छ पैड फ्रॉम छपरा,हो न जाए कहीं महिलाओं वाली बीमारी,पैडमैन को चिन्ता लगी रहती है तुम्हारी...शादीशुदा हो या हो कोई कन्या कुँवारी,चाहे पहने चू

भईया काले रंग की तो बात ही कुछ अलग है, ये बात अलग है कि इस रंग को लेकर बड़े बुजुर्गों ने जो फरमाया है उसे सुन कर बाकी रंगों के लोगों के कान खड़े हो जाते हैं, जैसे उनका कहना है कि इस रंग के पुरुष और मह

मिट्टी के खिलौने,होते हैं अनमोल,कितने प्यारे,कितने न्यारे,हर पल बस,यही पुकारें...देखो जो तुम तो,तुम्हारे लिए मुस्कुराऊं,कहो जो तुम तो,कोई गीत गुनगुनाऊं,चाहो जो तुम तो,हर पल साथ निभाऊं,पर रूठे जो तुम त

एक जाना अनजाना से चेहरामेरे ख्वाबों में आता हैमैं तो सिर्फ सोचता हूँ उसकोवो धड़कन बन प्यार की मेरी सांसो में समा जाता है।जाने कौन है वो,हकीकत है या कोई ख्वाब है वो,धुंधला सा उसका अक्ष मु

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