"इत्तफ़ाक"
इत्तेफाक़ से गुज़रे बगल से जब वो,
उन्हें देख कर, सन्न सा हो गया।
शायद कई जन्मों का था साथ ,
आँखें मिलीं-
दिल एक दूजे में खो गया।।
ख़ुशबू कैद हो गई ज़ेहन में गहरी,
तरन्नुम की बेहिसाब अगन लगी।
सोहबत की ललक इस कदर मची,
मदहोश पीछे-पीछे जान चल पड़ी।।
इत्तफ़ाक़ से,
शहर की सरहद पे ठिठकना।
एक दरख़्त के पीछे
छुप बातें कुछ करना।।
वियावान उस ओर दूर तक था फैला-
-उधर रुख वो ख्वाब में भी ना करे।
उधर रुख वो ख्वाब में भी ना करे।।
इत्तेफाक़ से चलते,
जंगलों के पार दरिया मिला।
बारिश का सितम झेल,
दरिया समंदर सा लगा।।
एक उँचा पत्थर देख
किनारे पर वह थी खड़ी।
ग़मगीन- ख़यालों में
डूबी वो दूर से हीं दिखी।।
शक के तीर ज़ेहन में
एक पर एक चलते हीं रहे।
सहम के हम दोनों ,
चुपचाप सब तकते हीं रहे।।
अश्कों की बारिस देख
जब-तब आँखों में,
एकबारगी सच-मुच सकते में आ गया।
कोई दर्द ज़रूर उसे
यहाँ है खींच लाया,
शायद खुदकुशी का
ख़याल सा आया।।
कुछ हुए नासाज-
बैचैन से कुछ दिखे।
पाँव पत्थर से टकराया-
कराह कर गीर पड़े।।
ख्व़ाब टूट गया- इरादा भी
शायद बदल सा गया।
पास आ के पूछा- चोट लगी,
दर्द भी काफी हुआ।।
ज़ख्म देख जायजा लिया-
चोट बहुत तेज लगी।
अफसोस कर मरहम प्यार की
आँखों से जा लगी।।
भूले- बिसरे ज़ख्म पुराने सारे के सारे,
पहले जैसे खुशगवार-
दमदार कुछ हुए।
आँचल फाड़- पट्टी का सहारा मिला,
खोया मुकाम पा, मशगूल फिर हुए।।
इरादा सोहबत का था,
तरन्नुम का तूफाँ मिला।
एक बर्बाद आदमी को,
ज़न्नत का इनाम मिला।।
इत्तेफाक़ से गुज़रे बगल से जब वो,
एक नेक काम तो मिला।
इत्तफ़ाक़ से गुज़रे बगल से जब वो,
एक नेक काम तो मिला।।
डॉ. कवि कुमार निर्मल
बेतिया (बिहार)