*इस अद्भुत सृष्टि का आधार परमपिता परमात्मा को ही कहा जाता है | हमारे देश भारत के ऋषि महर्षिओ ने अपनी त्यागमयी पवित्र , कठिन साधना के बल पर उस परात्पर परमतत्त्व का साक्षात्कार किया था , जो एकमात्र नित्य सत्य है | उन्होंने अपने उसी दिव्य अनुभव के आधार पर यह निश्चित रूप से जाना था और जानकर इसके सिद्धांत की सुप्रतिष्ठा की थी | मानव जीवन का लक्ष्य एकमात्र वही परमतत्व परमसत्य परात्पर ब्रह्म भगवान है | इसी से उन्होंने भारतीय संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में मानव के जीवन को चलाया था ब्रह्म की ओर , भगवान की ओर | जन्म से लेकर मरण पर्यन्त तक प्रत्येक स्थिति में प्रत्येक कर्म किया जाता था आध्यात्मिक भूमि के आधार पर | भगवान की प्राप्ति या भागवत प्रीति के लिए | धर्म द्वारा नियंत्रित भगवत केंद्रित अर्थ और काम का यथा योग्य निर्दोष अर्जन और उपयोग करते हुए मनुष्य अपने परमलक्ष्य मोक्ष या भगवान की और बढ़ता था | गुरुकुल में प्रवेश , गृहस्थ आश्रम के कर्तव्य पालन , वानप्रस्थ , सन्यास सभी में प्रधान हेतु रहता था भगवत्प्रीति | इसीलिए पूर्वकाल के पूर्वजों के जीवन में त्याग की प्रधानता थी और कर्तव्य पालन का भाव था | इससे मनुष्य को शान्ति का अनुभव होता था और मनुष्य सुखी रहता था | धीरे-धीरे समय परिवर्तित हुआ और लोगों की भावनाएं भी परिवर्तित होती चली गई इसीलिए पूर्वकाल की अपेक्षा आज मनुष्य चहुँओर संकटों से दिखाई पड़ता है |*
*आज के भौतिकवादी युग में सब कुछ तो पहले जैसा ही है परंतु मनुष्य की मानसिकता परिवर्तित हो गई है | आज की संस्कृति में भगवान की अपेक्षा लोग भोग की अधिक इच्छा रखते हैं | आज भोह ही मनुष्य के जीवन का लक्ष्य बन गया है , यही कारण है कि त्याग के स्थान पर अर्थ और कर्तव्य के स्थान पर अधिकार ने अपना दृढ़ आसन जमा लिया है | शायद इसीलिए आज किसी के भी जीवन में शांति के दर्शन नहीं हो रहे हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" गहन चिंतन एवं मनन के बाद कह सकता हूं कि आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह धार्मिक हो या आध्यात्मिक सेवा , त्याग , ज्ञान प्रसार , सत्संग आदि में भी मनुष्य अशांति और अंतर्दाह से संतप्त हो रहा है | इसका मुख्य कारण यही है कि आज मनुष्य का लक्ष्य परिवर्तित हो गया है , वह भगवान के बदले भोग की इच्छा तो रखता ही है साथ ही जीवन को संस्कारित बनाने वाले सत्संग आज के मनुष्य को मनोरंजन का साधन लगने लगे हैं | मानव जीवन को उचित दिशा निर्देश देने वाले आध्यात्मिक भी परिवर्तित हो गये हैं | आज के आध्यात्मिक भी भौतिकता के आधार पर धर्म तथा आध्यात्म की बात भोगमय बुद्धि से ही कर रहे हैं इसी से सभी जगह पर अशांति है , दुख है | संपत्ति में भी विपत्ति है , सुख में भी दुख है | यदि शांति एवं सुख की कामना है तो पूर्व काल की भांति त्याग एवं कर्तव्य पालन के भाव को पुनः जागृत करना होगा |*
*आज का मनुष्य केवल भौतिक प्रगति को ही उन्नति , भौतिक विकास को ही विकास मानकर अंधा होकर उसी के लिए जीवन का प्रत्येक क्षण लगा रहा है यही उसके अशांति एवं दुख का मुख्य कारण है |*