*सनातन धर्म में व्रत व त्यौहारों को मनाने का विशेष एक महत्व व एक विशेष उद्देश्य होता है | कुछ व्रत त्यौहार सामाजिक कल्याण से जुड़े होते हैं तो कुछ व्यक्तिगत व पारिवारिक हितों से | आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में जहां पितर शांति के लिये श्राद्ध पक्ष मनाया जाता है तो वहीं शुक्ल पक्ष के आरंभ होते ही आदिशक्ति पराम्बा जगदम्बा का पूजन पर्व नवरात्र का उत्सव प्रारम्भ होता है , जिसका समापन शुक्ल पक्ष की दशमी को दुर्गा प्रतिमा विसर्जन , दशहरे आदि के रूप में होता है | इस दृष्टि से वैसे तो आश्विन मास की प्रत्येक तिथि बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है लेकिन जब संतान की सुरक्षा , स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना का प्रश्न हो जो कि प्रत्येक मां की इच्छा होती है तो आश्विन मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है | इसका कारण है इस दिन संतान के सुखी , स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की कामना पूरी करने हेतु रखा जाने वाला व्रत | इस व्रत को जितिया , जिउतिया या "जीवित्पुत्रिका व्रत" कहा जाता है | यह व्रत वैसे तो आश्विन मास की अष्टमी को रखा जाता है लेकिन इसका उत्सव तीन दिनों का होता है | सप्तमी का दिन नहाई खाय के रूप में मनाया जाता है तो अष्टमी को निर्जला उपवास रखना होता है | व्रत का पारण नवमी के दिन किया जाता है | वहीं अष्टमी को सांय प्रदोषकाल में पुत्रवती स्त्रियां जीमूतवाहन की पूजा करती हैं और व्रत कथा का श्रवण करती हैं | श्रद्धा व सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा भी दी जाती है | इस प्रकार संतान के सुखद भविष्य के लिए मातायें तीन दिन का यह कठिन व्रत धारण करती हैं | जिससे कि उनकी संतान का जीवन ऐश्वर्यशाली , सुखी एवं निरोगी हो |*
*आज के व्रत के विषय में प्रायः दो कथाएं प्रचलित हैं | एक प्रसंग तो महाभारत का है जहाँ अश्वत्थामा के द्वारा पाण्डव कुल के विनाश के उद्देश्श्य से किये गये ब्रह्मास्त्र के प्रहार से गर्भ में जल रहे बाल शिशु की रक्षा के लिए उत्तरा ने किया था | दूसरा प्रसंग शालिवाहन के पुत्र जीमूतवाहन से सम्बन्धित है | जीमूतवाहन ने नागवंशी वृद्धा के पुत्र की रक्षा के लिए अपने प्राणों का मोह त्यागकर स्वयं को गरुड़ के भोजन के रूप में प्रस्तुत कर दिया था | उनकी इस उपकार की भावना से गरुड़ बहुत प्रसन्न हुए और जीमूतवाहन को प्राणदान दिया | तभी से मातायें अपने पुत्र की रक्षा के लिए यह कठिन व्रत का पालन करने लगीं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" पुरुष प्रधान समाज एवं उन पुत्रों से पूंछना चाहता हूँ जिन्होंने अपनी माँ को या तो वृद्धाश्रम में छोड़ दिया है या फिर घर के किसी कोने में घुट घुटकर मरने के लिए | जिस माँ ने पुत्रों के लिए समय - समय पर कठिन व्रतों को अपनाया क्या उस पुत्र ने कभी कोई व्रत अपनी मां के लिए भी किया है ?? नारी बहन के रूप में भाई के लिए , पत्नी के रूप में पति के लिए एवं माँ के रूप में पुत्र के लिए समय - समय पर कठिन से कठिन व्रत का पालन करने को तत्पर रहती है ! क्या कभी पुरुषों ने भी बहन , पत्नी या माँ के लिए कोई व्रत किया ?? इसका एक ही उत्तर होगा कि नहीं | क्योंकि जो त्याग एवं अपनत्व की भावना नारी में है वह पुरुष में कभी न रही और न ही होगी | यदि पुरुष प्रधान समाज अपना हित चाहने वाली नारी के लिए कोई व्रत नहीं रह सकता तो कम से कम उनके सम्मान की रक्षा , सुरक्षा एवं संरक्षा का व्रत तो कर ही सकता है ? परंतु यह नारी का ही नहीं अपितु मानव जाति का दुर्भाग्य है कि मनुष्य इस व्रत का पालन भी नहीं कर पा रहा है | परंतु नारी अनेकों झिड़कियां , गालियां एवं तिरस्कार पाने के बाद भी पुरुषों (भाई , पति , पुत्र) के लिए कठिन व्रतों का पालन करती चली आ रही है | ऐसी महान नारियों को कोटिश: प्रणाम |*
*यद्यपि माँ यह जानती है कि जिस पुत्र के लिए वह यह कठिन व्रत करने का संकल्प ले रही है उसी ने उसे घर से दुत्कार दिया है परंतु वाह रे नारी ! फिर भी वह निष्काम भाव से इन व्रतों को करती है क्योंकि नारी त्याग की जीवंत प्रतिमा है |*