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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🐍🏹 *लक्ष्मण* 🏹🐍
🌹 *भाग - ३२* 🌹
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*➖➖➖ गतांक से आगे ➖➖➖*
श्री राम एवं *लक्ष्मण जी* शबरी के बताएं पंपा सरोवर की ओर चले , हनुमान जी ने उनकी मित्रता सुग्रीव से कराई , मित्रता एवं शत्रुता सदैव बराबर वालों में होती है | आज श्री राम की भार्या का हरण निशाचर ने कर लिया है तो सुग्रीव की भार्या उसके बड़े भाई बालि ने अपने घर में रखी है | दोनों मित्रों का दुख समान है | अग्नि को साक्षी मानकर जब नर (श्री राम) एवं वानर (सुग्रीव) की मित्रता हो गई तो सुग्रीव कहते हैं कि :- हे राघव ! मुझे याद आ रहा है कि :---
*मंत्रिन्ह सहित इहां इक बारा !*
*बैठ रहेउं मैं करत विचार !!*
*गगन पंथ देखी मैं जाता !*
*परबस परी बहुत विलपाता !!*
सुग्रीव कहते हैं :-;हे राघव ! मुझे याद आ रहा है कि एक बार मैं अपने मंत्रियों के साथ यहीं बैठा था तो हमने आकाश मार्ग से विमान पर रुदन करती हुई एक स्त्री को जाते हुए देखा था | सुग्रीव की बात सुनकर *लक्ष्मण जी* ने कहा :- वानरराज ! क्या माता ने आपसे कुछ कहा था ? सहायता मांगी थी ?? सुग्रीव ने कहा *भैया लक्ष्मण !* उन्होंने कुछ कहा तो नहीं परंतु हमें देख कर कुछ आभूषण वस्त्र में लपेटकर अवश्य फेंका था | श्री राम के कहने पर वह पोटली मंगाई गई | उस पोटली को देखते ही भगवान श्रीराम ने मां जानकी के वस्त्रों को पहचान लिया | पोटली को खोलकर सीता जी के आभूषण को अपलक देखते हुए श्री राम की आंखों में आंसू आ गये | उन्होंने भरे गले से *लक्ष्मण जी* से कहा :-- *लक्ष्मण !* देखो क्या तुम इन्हें पहचानते हो ?? क्या यह तुम्हारी भाभी के ही आभूषण हैं ?? *लक्ष्मण जी* हाथ जोड़कर कहते हैं कि :- हे भैया !
*नाहं जानामि केयूरे , नाहं जानामि कुण्डले !*
*नूपुरे त्वभिजानामि , नित्यं पादाभिवन्दनात् !!*
*लक्ष्मण* ने कहा :- हे भैया :-- ना तो में देवी सीता के बाजूबंद को जानता हूं और ना ही उनके कुंडल पहचानता हूं | हे प्रभु ! मैं तो देवी सीता के चरणों की वंदना करता हूं इसलिए मेरी दृष्टि सदा उनके चरणों पर ही रहती थी अतः हे भगवन ! मैं उनके चरणों में रहने वाले पायलों को पहचान सकता हूं | *लक्ष्मण जी* आगे कहते हैं हे भैया क्षमा करें :---
*मै चरनन कर सेवक हूं प्रभु ,*
*चरनन महं स्थान हमारा !*
*एक चरन नख को तजि के ,*
*आभूषण कबहुंक नाहिं निहारा !!*
*जननी के सिंगार लखे सुत ,*
*तो अघ पापी कहे संसारा !*
*"अर्जुन" मोहिं छमहुं रघुनंदन ,*
*अंजान अहै यह दास तुम्हारा !!*
*भगवत्प्रेमी सज्जनों !* विचार कीजिएगा साथ साथ रहते हुए भी *लक्ष्मण जी* ने कभी सीता जी के कर्ण फूल एवं हाथों के कंगन तक नहीं देखे थे | यह पुत्र का धर्म की नहीं है कि वह माता के सिंगारों को देखें | यद्यपि *लक्ष्मण जी* सीता जी के देवर थे परंतु अयोध्या से चलते समय माता सुमित्रा ने *लक्ष्मण* से कहा था :--
*तात तुम्हारि मातु वैदेही !*
*पिता राम सब भांति सनेही !!*
जानकी जी माता एवं रघुनंदन श्री रामजी पिता हैं | तो विचार कीजिए कि देवर भाभी का नाता कहां रह गया ? यदि नाता माना भी जाय तो बड़ी भाभी माँ ही होती है | यह हमारे सनातन संस्कार थे | आज समाज में ऐसे चरित्र देखने को ही नहीं मिल रहे हैं | कोई ऐसा रिश्ता आज शायद ही बचा हो जो कलंकित न हो गया हो | तुलसीदास जी ने कलियुग के विषय में पहले ही लिख दिया था :---
*कलिकाल बिहाल किए मनुजा !*
*नहिं मानत क्वौअनुजा तनुजा !!*
आज की स्थिति देखकर *लक्ष्मण जी* का चरित्र दिव्य एवं अनुकरणीय है |
श्रीराम ने वहां बालि का वध किया | सुग्रीव किष्किंधा का राजा बना दिया | बानरदल माता सीता की खोज के लिए चारों दिशाओं में पहुँचे | हनुमान जी लंका पहुंचकर माता सीता के दर्शन करते हैं जिस समय रावण ने हनुमान जी की पूंछ में आग लगाई उस समय का दृश्य बहुत ही भयानक दिखने लगा था | तुलसीदास जी लिखते हैं :----
*बाल श्री विशाल विकराल ज्वाल जाल मानो ,*
*लंक लीलिबो को काल रचना पसारी है !*
*कैंधो व्योम वीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु ,*
*वीररस तीर तरवारि सों उघारी है !!*
*"तुलसी" सुरेश चाप कैंधो दामिनी कलाप ,*
*कैंधो चली मेरू ते कृसानु सरि भारी है !*
*देखें जातुधान जातुधानी अकुलानी कहैं ,*
*कानन उजार्यो अब नगर ऊ जारी है !!*
इस प्रकार लंका दहन करके जब हनुमान जी सीता जी के पास पुनः लौट कर आए तो सीता जी ने भगवान श्रीराम को तो संदेश सुनाया ही साथ ही उन्होंने विशेष रूप से हनुमान जी से कहा कि हे पुत्र मेरी ओर से तुम *लक्ष्मण* से क्षमा मांग लेना और कहना कि हमने उनको जो कटु वचन कहे थे उन्हीं का परिणाम आज हमें लंका में ले कर के आया है | यदि मैं *लक्ष्मण* की बात मान लेती और उन्हें इतने कठोर वचन न कहे होते तो *लक्ष्मण* हमको अकेली छोड़कर ना जाता और मेरा यह हाल ना होता | सीता जी कहती हैं कि हनुमान प्रभु श्रीराम से कहना कि *लक्ष्मण* का किंचित मात्र भी दोष नहीं है दोषी तो मैं हूं जो उनके द्वारा खींची गई सीमा रेखा का उल्लंघन करने को विवश हुई | यदि मैंने उस *लक्ष्मण रेखा* का उल्लंघन न किया होता तो आज मैं यहां ना होती | मित्रों मनुष्य का सबसे बड़ा गुण होता है अपनी भूल का पश्चाताप करना | भूल किसी से भी हो सकती है | उस समय स्थिति के अनुसार यदि भावावेश में आ करके कोई अनर्गल कृत्य हो जाए या मुख से कठोर वचन निकल जाएं तो बाद में उसका पश्चाताप करके अपनी भूल सुधारी जा सकती है | आज माता जानकी *लक्ष्मण* के प्रति किए गए अपराध का पश्चाताप करते हुए माता होकर भी अपने पुत्र *(लक्ष्मण)* से क्षमा मांग रही हैं | हनुमान जी सीता जी से विदा लेकर श्री राम के पास आए | सीता जी का संदेशा भगवान श्रीराम को सुनाया सीता जी के द्वारा दी हुई चूड़ामणि भगवान को प्रदान की और विशेष रूप से *लक्ष्मण* से कहा कि :-- हे भैया ! माता ने आप से क्षमा मांगी है | *लक्ष्मण जी* के आँखों में आँसू आ गये | *लक्ष्मण* ने कहा :- हनुमान जी ! माता को यदि पुत्र से क्षमा मांगनी पड़ी तो पुत्र का जीवन निरर्थक है क्योंकि *"कुपुत्रो जायेत् क्वचिदपि कुमाता न भवति"* पूत कपूत तो हो सकता है परंतु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती | इसलिए मेरी मैया ने मेरे प्रति जो भी कहा हो उसे आप अब न कहना नहीं तो मैं पाप का भागी हो जाऊंगा | इस प्रकार *लक्ष्मण जी* के वचन सुनकर के वानर सेना *लक्ष्मण जी* की जय जयकार करने लगी और सुग्रीव के आदेशानुसार विशाल वानर दल लंका की ओर कूच कर गया |मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने अपने भैया *लक्ष्मण* सुग्रीव एवं हनुमान जी के साथ सागर तट पर डेरा डाला |
*शेष अगले भाग में :----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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