*संपूर्ण मानव जीवन में मनुष्य अनेकों प्रकार के क्रियाकलाप करता हुआ जीवन यापन करता है | प्रत्येक कार्य को सकुशल संपन्न करने के लिए ईश्वर ने मनुष्य को विवेक प्रदान किया है इसी विवेक का प्रयोग करके ही मनुष्य को अपने क्रियाकलाप संपादित करने चाहिए | किसी भी विषय पर बिना सोचे समझे संदेह करना मनुष्य की विवेकशीलता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है क्योंकि हृदय में उत्पन्न संदेह मनुष्य की दिशा एवं दशा परिवर्तित कर देता है | शंकालु व्यक्ति स्वयं में ही उलझा रहता है एवं अपने संदेह को मिटाने के लिए अनेक प्रकार के उपाय करते हुए संदेहास्पद व्यक्ति या वस्तु की अनेक प्रकार से परीक्षा लेने का प्रयास करता रहता है जिसके कारण वह सकारात्मकता से नकारात्मकता की ओर अग्रसर हो जाता है | गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि :-- "संशयात्मा विनश्यति" अर्थात संशय करने वाले पतित हो जाते हैं | किसी विषय पर संदेह हो जाना साधारण सी बात है परंतु उस संदेह को मिटाने के लिए मनुष्य को स्वयं उस विषय का सूक्ष्मता से अवलोकन करते हुए उस पर चिंतन एवं मनन करने की आवश्यकता होती है | किसी भी व्यक्ति या वस्तु पर संदेह करने का क्या परिणाम होता है इसका उदाहरण हमारे धर्म ग्रंथों में अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है , जहां संदेह में आकर व्यक्ति अनैतिक कृत्य करके बाद में पश्चाताप की अग्नि में जलता दिखाई पड़ता है और उसका जीवन एक अनजान उधेड़बुन में व्यतीत होने लगता है | शंकालु व्यक्ति कभी प्रसन्न नहीं रह पाता क्योंकि कभी-कभी तो उसे ऐसा लगता है कि जैसे पूरा समाज ही उसका विरोध करने लगा है , जबकि सत्यता यह नहीं होती है | यह उसके मस्तिष्क का भ्रम होता है जो उसके संदेह के कारण प्रकट होता है | व्यक्ति को किसी भी विषय या वस्तु पर अकारण संदेह नहीं करना चाहिए क्योंकि अकारण किया हुआ संदेह मनुष्य के जीवन की दिशा एवं दशा को परिवर्तित कर देता है |*
*आज मनुष्य ने पहले की अपेक्षा अधिक शिक्षा अर्जित करके विवेकवान एवं बुद्धिमान हो गया है परंतु प्राय: ऐसा देखने को मिलता है कि मनुष्य बुद्धिमान होने के बाद भी किसी भी विषय पर अपने विवेक का प्रयोग नहीं करता है जिसके कारण वह अपने परिवार एवं समाज से दूर होता चला जाता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज समाज में देख रहा हूं कि अनेक लोग कभी दूसरों के बहकावे में आकर तो कभी अपने संदेह के कारण अपने ही घरवालों को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं और घर वालों के प्रत्येक निर्णय मैं उनको स्वयं का विरोध दिखने लगता है | जिसका परिणाम यह होता है कि व्यर्थ की उत्पन्न हुई शंका परिवार को तोड़ देती है | ऐसी स्थिति में यदि मनुष्य को कहीं संदेह भी होता है तो उसे एकांत में बैठकर परिस्थिति को समझते हुए आत्ममंथन करना चाहिए | यदि मनुष्य कोई भी निर्णय लेने के पहले संदेह के घेरे से निकलते हुये आत्ममंथन का सहारा ले ले तो शायद परिवार टूटने से बच जाय परंतु यह आज बहुत कम ही देखने को मिलता है | जिस परिवार में मनुष्य का जन्म हुआ , उसका विकास हुआ उन्हीं परिवार वालों के ऊपर किसी छोटे से विषय को लेकर मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ संदेह व्यक्ति को अपने ही परिवार से दूर कर देता है | ऐसा करने वाला जब सच्चाई को जानता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और फिर जीवन भर उसे पश्चाताप करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं मिलता है | इसलिए किसी भी संदेह को हृदय में मस्तिष्क में स्थान ना देना ही बुद्धिमत्ता है |*
*शंका करके अपने संबंधों को बिगाड़ लेना फिर उसी को आधार बनाकर इस दुर्लभ मानव जीवन को नष्ट कर देना महज मूर्खता ही कहा जाएगा |*