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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🐍🏹 *लक्ष्मण* 🏹🐍
🌹 *भाग - ४५* 🌹
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*➖➖➖ गतांक से आगे ➖➖➖*
*लक्ष्मण जी* श्री राम की बात सुनकर वहां से चले गए | श्री राम अपने महल में पहुंचे | सीता जी ने श्री राम के मलिन मुख मंडल को देखकर कहा :- हे स्वामी !:--
*केहि कारन कांति मलीन भई ,*
*केहि कारन मुखमंडल कुम्हियाये !*
*राज्य प्रजा सब कुशल तौ बा ,?*
*वैरी तौ नहीं कउनौ चढ़ि आये !!*
*स्वामी तुम काव छुपाय रहेउ ,*
*प्रभु देखि उदासी मन अकुलाये !*
*"अर्जुन" कुछ तो बतलाओ पिया ,*
*तोरी प्रानप्रिया प्रभु विनय सुनाये !!*
श्रीराम ने कहा प्रिय क्या बताऊं ! अब हमारे बिछोह का समय आ गया है | हमें अब आदर्श प्रस्तुत करने के लिए यह विछोहलीला करनी होगी | सीता जी ने कहा :- स्वामी ! देश व समाज को सही दिशा देने के लिए हमें यह बलिदान देना ही होगा , अन्यथा आने वाली पीढ़ियां कहेंगी कि जब बलिदान का समय आया तो राजमहल वाले भोग विलासों में डूबे रहे | इसलिए स्वामी ! आप दुखी ना हो और एक वचन दीजिए कि मेरे जाने के बाद आप के नेत्रों में कभी आंसू नहीं आएंगे | श्री राम ने कहा:- सीता ! तुम त्याग की मूर्ति हो , तुम धन्य हो ! तुम्हारी कीर्ति एवं त्याग युग - युगांतर तक अमर रहेगी | इस प्रकार श्री राम एवं सीता के जीवन की अंतिम रात्रि (जिसमें एक साथ रहे ) व्यतीत हुई | इधर तो श्रीराम एवं सीताजी में यह वार्ता हो रही थी उधर *लक्ष्मण जी* की अवस्था का वर्णन करना संभव नहीं है | *लक्ष्मण जी* का मन बहुत ही व्यग्र हो रहा था | जिन सीता जी को उन्होंने अपनी माता सुमित्रा से भी ज्यादा जाना एवं माना था आज उन्हें ही श्री राम के द्वारा त्यागा जा रहा है और वह सक्षम होकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं | आज *लक्ष्मण* की विवशता का कारण यही था कि वे मन , वचन एवं कर्म से श्री राम के सेवक थे , और सेवक का एक ही धर्म होता है स्वामी की आज्ञा का पालन करना | इसीलिए शायद तुलसीदासजी ने लिखा है :-- *"सब तें सेवक धरम कठोरा"* जब *लक्ष्मण जी* ने इस निर्णय का विरोध करना चाहा तो श्रीराम ने अपनी शपथ दे दी | *लक्ष्मण जी* का हृदय रो रहा है | अपने धर्म का पालन करने को *लक्ष्मण जी* ने रथ तैयार किया और सीता जी के महल में जा करके उनसे प्रणाम करके बोले :---
*त्वया किलैष नृपतिर्वरं वै याचित: प्रभु: !*
*नृपेण च प्रतिज्ञातमाज्ञप्ताश्चाश्रमं प्रति !!*
*गंगातीरे मया देवि ऋषीणामाश्रमाञ्शुभान् !*
*शीघ्रं गत्वा तु वैदेहि शासनात् पार्थिवस्य न: !!*
दुखी मन से *लक्ष्मण जी* कहते हैं :- हे देवि ! आपने महाराज से मुनियों के आश्रम पर जाने के लिए वरदान मांगा था और महाराज जी ने भी आपको आश्रम पहुंचाने की प्रतिज्ञा की थी | इसलिए हे देवि ! आप की उस वार्ता के अनुसार मैं महाराज की आज्ञा से आपकी सेवा में उपस्थित हूं | अब आप तैयार हो जायं ! मैं शीघ्र ही गंगातट पर ऋषियों के सुंदर आश्रमों तक चलूंगा और आपको मुनिजन सेवित बन में पहुंचाऊंगा | इतना कहते-कहते *लक्ष्मण जी* की आंखों में आंसुओं का समुद्र लहराने लगा | सीता जी ने *लक्ष्मण* की स्थिति देखी तो कहने लगी | वत्स ! मैं कुछ दिनों के लिए ही तो जा रही हूं तुम इतना शौक मग्न क्यों हो रहे हो ? *लक्ष्मण* को समझाकर सीता जी वन को जाने की तैयारी करके *लक्ष्मण जी* के साथ रथ पर सवार हो गई | जब रथ वन की ओर चला तो सीता जी को तरह-तरह के अपशकुन दिखाई पड़ने लगी और वह अधीर होकर लक्ष्मण जी से कह नहीं लगीं :--;
*सूनि देखाइ परइ धरती ,*
*लछिमन कछु समझ मां आवत नाहीं !*
*जिनके कलरव से गूंजत वन ,*
*वह पक्षिहुँ भी कछु गावत नाहीं !!*
*व्याकुलता मन मां बाढ़ति बा ,*
*मन धीर लखनु अब पावत नाहीं !*
*"अर्जुन कछु तौ बोलौ लल्ला ,*
*तुम्हहूँ कछु क्यों समझावत नाहीं !!*
सीता जी अधीर होकर *लक्ष्मण* से कहने लगीं :- *लक्ष्मण !* मेरे मन की व्याकुलता बढ़ रही है , अयोध्या में सब कुशल तो है ? *लक्ष्मण* तुम कुछ बोलते क्यों नहीं | *लक्ष्मण जी* ने सीता जी की ओर देखे बिना ही कहा कि सबका कल्याण हो | गोमती नदी को पार करके सीता जी को लेकर *लक्ष्मण* गंगा के किनारे पहुंच गए | गंगा जी को देखकर और यह सोचकर कि इसी नदी को पार करके सदैव के लिए माता सीता को छोड़कर चले जाना है , *लक्ष्मण जी* फूट-फूटकर जोर-जोर से रोने लगे |
*भगवत्प्रेमी सज्जनों !* मनुष्य कितना भी कठोर हृदय वाला क्यों ना हो कभी-कभी समय ऐसा उपस्थित हो जाता है कि मनुष्य की भावनाएं उसे निर्बल बना देती है | आज *लक्ष्मण* जैसा महान त्यागी एवं वैरागी भी उन्ही भावनाओं के वशीभूत होकप फूट-फूट कर रो रहा है | *लक्ष्मण* को इस प्रकार विलाप करता देखकर (सब कुछ जानते हुए भी लीलाविहारिणी ) सीता जी कहती है :-- *लक्ष्मण !* तुम इतनी जोर जोर से क्यों रो रहे हो ?? *अरे लक्ष्मण !* :--
*जाह्नवीतीरमासाद्य चिराभिलषितं मम् !*
*हर्षकाले किमर्थं मां विषादयसि लक्ष्मण !!*
सीता जी ने कहा :- *लक्ष्मण !* आज मेरी मनोकामना पूर्ण हो गई , ऐसे हर्ष के समय में तुम विषाद क्यों कर रहे हो ? सीता जी ने मुस्कुरा कर कहा :- मैं जानती हूँ कि तुम अपने भैया से कभी दूर नहीं रहे | आज दो दिन से तुम उनसे अलग हो इसीलिए उनके लिए रो रहे हो | *लक्ष्मण* एर दिन की ही तो बात है | गंगा पार करके एक रात मुनियों के आश्रम में ठहर कर उनका आशीष प्राप्त करके कल पुन: अयोध्या वापस चले चलना है | तुम इतने अधीर क्यों हो गए कि विलाप करने लगे ? *लक्ष्मण !* आज तक मैंने तुम्हें इस प्रकार रोते नहीं देखा | वत्स ! अधीर मत हो ! *लक्ष्मण जी* बेचारे सीता जी को क्या बताते कि क्यों रो रहे हैं ! कैसे बता दें कि माता आप आई तो है *लक्ष्मण* के साथ परंतु *लक्ष्मण* को यहां से अकेले ही वापस जाना है | अपने आंसुओं को पोंछकर *लक्ष्मण जी* नाव बुलाकर सीता जी को नाव पर बैठाया और स्वयं भी बैठ गये | जितनी लहरें गंगा जी में उठ रही थी उससे कहीं अधिक *लक्ष्मण जी* के हृदय में दु:ख की लहरें उठ रही है | वह मन ही मन बिचार कर रहे हैं ऐसे ही नाव चलती रहे और गंगा जी का दूसरा किनारा कभी आये ही ना , जो कि उनको उनकी माता से अलग कर देने वाला है |परंतु अपना सोचा कभी नहीं होता | गंगा जी का तट आ गया | सीता जी तो प्रसन्न है कि उन्हें अब महर्षियों का दर्शन प्राप्त होगा और *लक्ष्मण जी* इसलिए दुखी हैं कि आज के बाद उन्हें माता सीता का दर्शन नहीं होगा | नाव से उतरने के बाद *लक्ष्मण जी* पुन: भावविभोर होकर रोने लगे | सीता ने कहा :- *लक्ष्मण !* बच्चों की भाँति रुदन क्यों कर रहे हो ? अब सीता जी गम्भीर होकर *लक्ष्मण* से पूछने लगीं कोई गूढ़ रहस्य है *लक्ष्मण* जो तुम हमसे छुपा रहे हो | तुम्हारे जैसा धीर गंभीर बार-बार विलाप कर रहा है तो अवश्य ही कोई बड़ा कारण है | मैं अधीर हो रही हूं ! बताओ *लक्ष्मण !* फफककर रो पड़े *लक्ष्मण* और हाथ जोड़कर सीता जी से कहा :--
*हृद्गतं मे महच्छल्यं यस्मादार्येण धीमता !*
*अस्मिन्निमित्ते वैदेहि लेकस्य वचनीकृत: !!*
*लक्ष्मण* ने कहा से माता मेरे हृदय में सबसे बड़ा कांटा यही खटक रहा है कि आज रघुनाथ जी ने बुद्धिमान होते हुए भी मुझे वह काम सौंपा है जिसके कारण तीनों लोकों में मेरी बड़ी निंदा होगी | सीता जी ने आश्चर्य से कहा :- *लक्ष्मण !* ऐसा क्या कार्य तुम्हें स्वामी ने सौंप दिया है जिससे तुम निंदित हो जाओगे ??? *लक्ष्मण जी* कुछ कहने के अपेक्षा पुनः अधीर होकर विलाप करने लगे |
*शेष अगले भाग में :----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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