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‼️ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼️
🐍🏹 *लक्ष्मण* 🏹🐍
🌹 *भाग - ४६* 🌹
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*➖➖➖ गतांक से आगे ➖➖➖*
*लक्ष्मण जी* विलाप करते हुए कहते हैं :-;हे माता ! सम्मानित व्यक्ति की यदि लोक में निंदा हो जाती है तो वह मृतक के समान हो जाता है | यह कार्य करने की अपेक्षा यदि श्री राम ने मुझे मृत्युदंड दे दिया होता तो वह भी मेरे लिए कल्याणकारी होती | सीता ने कहा :- *लक्ष्मण !* विलाप करने की अपेक्षा तुम मुझे यह बताओ कि तुम्हारे भैया ने तुम्हें ऐसी कौन सी आज्ञा दे दी है जिसके कारण तुम इतने अधीर हो रहे हो ! *लक्ष्मण जी* कहते हैं :---
*प्रसीद च न मे पापं कर्तुर्महसि शोभने !*
*इत्यञ्जलिकृतो भूमौ निपपात स लक्ष्मण: !!*
हे शोभने ! श्रीराम का आदेश सुनकर आप प्रसन्न हों ! यह आदेश सुनाते हुए मुझे कोई पाप न लगे और आप मुझे कोई दोष न दें ! ऐसा कह कर हाथ जोड़े हुए *लक्ष्मण जी* पृथ्वी पर गिर पड़े ! *भगवत्प्रेमी सज्ज्नों !* *लक्ष्मण* के भावों को लिख पाने में लेखनी भी असमर्थ हो रही है | *लक्ष्मण* की व्यथा देखकर सीताजी अधीर होते हुए कड़े शब्दों में *लक्ष्मण* से कहती है :--
*शापितो$सि नरेन्द्रेण यत् त्वं संताप मागत: !*
*तद् ब्रूया: सनिधौ मह्यमहमाज्ञापयामि ते !!*
सीता जी ने कहा कि *लक्ष्मण !* मैं तुझे महाराज की शपथ दिलाकर कहती हूँ कि जिस बात को सोचकर तुम्हारे हृदय में इतना संताप हो रहा है वह मेरे सम्मुख सत्य बतलाओ | *लक्ष्मण !* वह सब बताने के लिए मैं तुमको आज्ञा देती हूं | सीता जी के द्वारा श्री राम की शपथ देने एवं आज्ञा देने पर *लक्ष्मण जी* रोते हुए भूमि पर बैठ गए और दुखी मन से मुंह नीचे करके सीता से कहने लगे :---
*अब हम काव कही तुंहसे ,*
*कछु कहि नहिं आवत है महतारी !*
*अग्नि परीक्षा दिहेउ गढ़ लंक मां ,*
*देखिनि सब कपि सुर मुनि झारी !!*
*आजु कलंकिनि कहि तुंहका ,*
*धिक्कारत अवध के कछु नर नारी !*
*"अर्जुन" लाजि बचावै बदे ,*
*तोहें त्यागि दिहिन राघव धनुधारी !!*
*लक्ष्मण जी* रोते हुए कहते हैं हे देवी ! लोकापवाद के भय से महाराज जी ने आप को यही छोड़ देने का आदेश देकर मुझे भेजा है | अब आप ही बताओ माता मैं ऐसी स्थित में क्या करूं ? मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इस समय मैं पुत्रधर्म का पालन करूं या सेवक धर्म का ? *लक्ष्मण* नीचे सिर करके माता से अपना धर्म पूछ रहे हैं | लेकिन सीता जी की ओर से उनको जब कोई उत्तर नहीं मिला तो उन्होंने दृष्टि उठाकर उठाकर देखा तो हतप्रद रह गये क्योंकि :--
*लक्ष्मणस्य वच: श्रुत्वा दारुणं जनकात्मजा !*
*परं विषादमागम्य वैदेही निपपात् ह !!*
*लक्ष्मण* के कठोर वचन सुनकर सीता जी अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं ! चैतन्य होने पर वे विलाप करने लगीं :---
*हे विधिना तोर काह बिगारा !*
*दु:ख उठायेंउं वन वन घूमेउं ,*
*पुनि काहे दुख डारा !! टेक !!*
*पूर्व जनम के पाप है शायद ,*
*टूटेउ दुक्ख पहारा !*
*केहि पति - पत्नी अलग करायेंउं ,*
*जानत मन न गंवारा !! १ !!*
*मन क्रम वचन से पति का पूजेवं ,*
*जानत यह संसारा !*
*अग्नि देव भी साक्षी दीन्हेव ,*
*कपिदल सभा मंझारा !! २ !!*
*प्रान तजउं गंगा महँ कूदउं ,*
*अब नहिं कोउ सहारा !*
*राजवंश मोरे उदर पलत हैं ,*
*हम कहँ रोकनहारा !! ३ !!*
*केहि अपराध तजेहुं मोहिं स्वामी ,*
*बोलहुँ लखन उदारा !*
*"अर्जुन" लछिमन कछु नहिं बोलत ,*
*नैन बहइ जलधारा !! ४ !!*
*हे बिधिना तोर काह बिगारा !!*
सीता जी कहती है *लक्ष्मण !* यदि मेरी उदर में राजवंश न पल रहा होता तो मैं अभी गंगा जी मे जल समाधि ले ली लेती | *लक्ष्मण* ने बिलख कर कहा :- हे माता आपका यह पुत्र आपसे अपना धर्म पूछता है कि यह *लक्ष्मण* आपको छोड़कर चला जाय या एक मातृभक्त पुत्र की भांति बन में रहकर आपकी सेवा करें | हे माता ! पुत्र कभी माता के ऋण से उऋण नहीं हो सकता | यद्यपि आपने हमें जन्म तो नहीं दिया है परंतु मैंने सदैव आपको अपनी माता एवं स्वयं को आपका पुत्र ही माना है | पुत्र के रहते यदि माता को कष्ट हो जाय तो पुत्र का जीवन व्यर्थ है | इसलिए हे मैया ! आप हमें अपनी सेवा में रहने की आज्ञा प्रदान करें | सीता जी ने अपने आंसू पोंछ लिए और *लक्ष्मण* से कहने लगी | *हे लक्ष्मण !* तुम हमें माता कहते हो तो पुत्र का धर्म होता है माता की आज्ञा मानना | पुत्र तुम हमसे अपना धर्म पूछ रहे हो तो इस समय तुम्हारा सबसे बड़ा धर्म है महाराज की आज्ञा का पालन करना | *लक्ष्मण*
*यथाज्ञं कुरु सैमित्रे त्यज्य मां दु:खभागिनीम !*
*निदेशे स्थीयतां राज्ञ: श्रृणु चेदं वचो मम् !!*
*लक्ष्मण !* इस समय तुम वही करो जो तुमसे महाराज ने कहा है | तुम मुझ दुखियारी को यहीं छोड़कर महाराज की आज्ञा के पालन में स्थिर रहो | यही तुम्हारा धर्म है | *भगवत्प्रेमी सज्जनों !* मनुष्य को संकट के समय धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिए क्योंकि संकट में जिसका धैर्य टूट गया वह शोक समुद्र में डूब जाता है | जहां पूरा परिवार शोक में विलाप कर रहा हो वहां परिवार के श्रेष्ठ जनों का कर्तव्य होता है कि वे अपने छोटों को समझाकर नीति वचनों के द्वारा उनके मार्ग को मोड़ दें जिससे कि उनके विचारों की दिशा परिवर्तित हो जाय | आज सीता जी को यद्यपि असहनीय कष्ट है परंतु जब उन्होंने देखा कि *लक्ष्मण* अधीर हो रहे हैं तो उन्हें स्वयं की श्रेष्ठता का आभास हो गया और वे कुछ क्षणों के लिए अपने दुखों को भूलकर *लक्ष्मण* को धर्म का पाठ पढ़ाने लगी | यही एक माता का अपने पुत्र के प्रति कर्तव्य होता है | सीता जी कहती हैं *लक्ष्मण !* तुम अयोध्या चले जाओ और माताओं को मेरा प्रणाम कहना | अपने भैया से मेरा संदेश कह देना कि सीता ने कहा कि हे रघुनंदन यद्यपि आप जानते हैं कि सीता निष्पाप है परंतु लोकापवाद के भय से आपने मुझे त्यागा है तो मेरा भी कर्तव्य है कि मैं तुम्हारी सहायता करूं | आपके इस निर्णय को भी स्वीकार करती हूं | विशेष रूप से महाराज से निवेदन करना की सीता अपने पत्नी होने का कर्तव्य पालन करेगी एक पत्नी के लिए :--
*पतिर्हि देवता नार्या पतिर्वन्धु: पतिर्गुरु: !*
*प्राणैरपि प्रियं तस्माद् भर्तु: कार्य: विशेषत: !!*
स्त्री के लिए पति देवता है , पति ही बंधु है , पति ही गुरु है इसलिए पत्नी को अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी विशेष रूप से अपने पति का हित करना चाहिए | *हे लक्ष्मण !* तुम जाकर महाराज से कह देना कि मेरे विषय में चिंता ना करें | *लक्ष्मण* ने कहा:- मैया ! मैं आपको छोड़कर नहीं जाऊंगा | सीता ने कहा :- मैं तुम्हें आदेश देती हूं तुम मुझे यही छोड़कर इसी समय वापस चले जाओ यदि तुम मुझे अपनी माता मानते हो तो मेरी आदेश का पालन करो | *लक्ष्मण !* यह रघुकुल की परीक्षा की घड़ी है ऐसे में कायरों की भांति विलाप न करो | सीता का आदेश पारकर *लक्ष्मण जी* निरुत्तर हो गये | वे माता को दंडवत प्रणाम करके रोते हुए नाव पर सवार हो गए | गंगा को पार करके रथ तक पहुंच कर *लक्ष्मण* अचेत हो गये | सुमंत्र ने *लक्ष्मण* को रथ पर बैठाया और रथ अयोध्या की ओर चल पड़ा :--
*मुहुर्मुहु: परावृत्य दृष्ट्वा सीतामनाथवत् !*
*चेष्टन्ती परतीरस्थां लक्ष्मण: प्रययावच !!*
गंगा जी के दूसरे तट पर सीता जी अनाथ की भाँति रोती हुई धरती पर लौट रही थीं | *लक्ष्मण* बार बार मुंह घुमा कर उन्हें देख लेते हैं परंतु वाह रे विवशता ! चाहकर भी *लक्ष्मण* कुछ ना कर सके और धीरे धीरे रथ बढ़ता रहा | अंततोगत्वा सीता जी उनकी आंखों से ओझल हो गयीं |
*शेष अगले भाग में :----*
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आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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