भाग-26
जेनी एक बार फिर जा चुकी थी, नील को अकेला छोड़कर। नील एक बार फिर वही पहुंच गए जहां से कुछ साल पहले चले थे ,लेकिन दर्द इस बार कुछ ज्यादा ही था ।पहले तो उनके पास खोने के लिए कुछ भी ना था लेकिन इस बार वे बहुत कुछ खो चुके थे ।सबसे अहम अपना.... विश्वास! उन्हें लगा अब वे साबुत बच ही नहीं सकते। सचमुच ही वह जीवन से निराश हो चुके थे ।यूं भी त्रासदीयों का एक लंबा सफर तय कर लिया था उन्होंने।ट हां यह अलग बात है कि इन सबके बीच छोटे-छोटे सुखद अनुभव उन्हें बारिश की ठंडी बूंदों का एहसास कराते, पर अब ऐसा कुछ भी ना था। उन्हें ऐसा लग रहा था अगर वह मानसिक यंत्रणा को उजागर ना कर सके तो वह या तो फट पड़ेंगे या अपना मानसिक संतुलन खो देंगे।
" मैं नहीं जानता मैं कैसा हूं ,पर क्या जीने के लिए खुद को समझना जरूरी है? अगर हां, तो मैं क्यों नहीं खुद को समझने की कोशिश करता ।सोचता हूं ,समझना भी चाहता हूं खुद को, पर ऐसा लगता है जैसे सोचते समय अंतस का तारतम्य टूट जाता है। सहम जाता हूं मैं इन परिस्थितियों से। खुद की लोगों से तुलना करने लगता हूं और यह तुलना मेरी निकलता बढ़ा देती है। साहस ठंडा पड़ जाता है खुद को जानने का। हृदय खुद के अंतर्द्वंद में झुलसने सा लगता है।"
"मैं रचनाएं करता हूं, सौंदर्य बांटता हूं लोगों में जीवन में, आशाओं का संचार करती है मेरी कृतियां। हां मैं लोगों में सपने बांटता हूं ,दूर करता हूं उन्हें उनकी उलझनों से। पर फिर भी मैं खुद को नहीं सुलझा पाता। लोगों में रंगों की चमक बिखेरता हूं, पर मेरे अंदर काला ही काला है! . सही सोचते हैं लोग मेरे विषय में, मैंने मुखौटा ओढ़े रखा है। पर मैं जानता हूं यह लोगों को धोखा देने के लिए नहीं, मैं नहीं दिखाना चाहता अपने घाव संसार को। यह मेरा खुद से वादा था। "
"खुशियां बांटता हूं लोगों में ,क्योंकि गमों के दंश को जानता हूं !दूसरों के चेहरों की क्षणिक हँसी मुझे सुकून देती है ,लोग समझ सकते हैं मैं स्वार्थी हूं ।उनकी खुशियां ...मैं खुद के सुकून के लिए ढूंढता हूं। हां मैं स्वार्थी हूं !....वर्तमान परिस्थितियों में सभी हैं !पर इतना भी नहीं कि स्वार्थ की अंधी दौड़ में खुद को गिरा दूं ।जानता हूं गिरने पर लोगों की ठोकरे उठने नहीं देगी। सच कहूं....? वह दर्द महसूस नहीं कर रहा हूं मैं! ... मैं क्यों हूं ऐसा ?......क्यों खुशियां मुझे स्वप्न सरीखा लगती है ?...बिखर सा गया हूं मैं !....या खुद के जीने का कोई ढंग ही नहीं मिलता!.. क्यों हूं मैं इतना विवश?... क्यों थकता सा जाता हूं मैं?.... प्रकृति का ये कैसा निर्णय है ?. कैसा न्याय है?" नील को लगा उनका सिर सचमुच फट जाएगा।
" मैं घायल हूं !आज ही नहीं पिछले कई दिनों से। शारीरिक दर्द ने मुझे तोड़ कर रख दिया है ।पर नहीं ,आज भी मैं उस दर्द को महसूस नहीं कर रहा! दिमाग जैसे सुन्न हो गया है। धमनिया जैसे थम गई!.. मंद पड़ गई है सारी प्रक्रियाएं।.... हां मेरी आत्मा के दर्द ने सब कुछ मद्धिम कर दिया है। तभी तो मैं खुद के विषय में जानना चाहता हूं .....खुद की आत्मा से प्रश्न पूछना चाहता हूं ।...क्या मेरा खुद का अस्तित्व मेरे लिए ही नहीं है !....क्यों मैं खुद की शांति ....अपनी खुशियां महसूस नहीं कर सकता ?...क्यों तपना पड़ता है मुझे?.. हां, आज खुद का मंथन करना ही होगा ।ढूंढना है मुझे खुद को। योजनाओं से जीवन नहीं चलता।"
सहसा ना जाने नील के अंदर कैसा जोश से भरने लगा। एक उन्माद सी उनके अंदर प्रविष्ट हो गई ।एक झटके से उठे और उनके स्टूडियो की दीवारें खाली होने लगी। उनके चित्रों के टुकड़े, उनके शीशों के टूटने की आवाजें उनके उन्माद को शांत कर रही थी। रंगों का बिखराव, ब्रशों का टूटना, उनके जख्मों का मरहम लगा रहे थे। हां वे खुश हो रहे थे, बहुत खुश!लोगों को खुशियां बांटते वे खुद की खुशियां भूल चुके थे। अब उन खुशियों को रौंदकर उन्हें शांति मिल रही थी। उन्होंने माचिस उठाया और उनमें आग लगा दी ,एक झटके के साथ सब कुछ जल उठा ।हां स्वाहा हो गया सब कुछ! खत्म हो गए मेरे सारे गम! मेरे अस्तित्व की नगन्यता। उन अग्नि लपटों की रोशनी से मेरे दिल के अंधियारे दूर हो गए। हां आज मैं सचमुच परिपूर्ण हो गया !आज मुझे खुद के होने का भान हो गयाऋ नहीं समझना खुद को ,नहीं पूछना कोई प्रश्न खुद के अस्तित्व के विषय में ।आज नील एक अनूठे आनंद के सागर में गोते लगा रहे थे ।ऐसा लग रहा था जैसे फिर से बहुत बड़ा बोझ हट गया हो।"
" हां अब मैं अपने लिए जीना चाहता हूं ,एक साधारण इंसान बनकर। आदर्शों को ढोते ढोते मैं थक गया था। यूं भी नहीं लगा अब मुझे.... आदर्श जीवन से ऊंचे होते हैं।.... क्योंकि मेरा अब तक का अनुभव तो यही रहा। नहीं जीना मुझे लोगों के लिए ।...गुस्ताव नील अब खुद के लिए जिएगा।"
सहसा लोगों के आने की आहट सुनाई देने लगी।
" क्या हुआ मिस्टर नील?ये आग कैसी?"
उन्होंने अपनी सोच के विपरीत नील को शांत देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ ।
"कुछ नहीं!" नील ने उपेक्षा से कहा।" बस कुछ ऐसे ही रद्दी चीजें थी ,मैंने उन्हें जला दिया ।"
वे अवाक से नील की बातें सुन रहे थे। उन्हें नील आश्चर्य की कोई बड़ी वस्तु नजर आ रहे थे। नील की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न पाकर वे वापस लौट गए। नील अपने स्टूडियो को वैसे ही खुला छोड़ कर बाहर आ गए ।सामने एक नन्हा सा बच्चा जा रहा था अपनी मां की उंगलियां पकड़े, सहसा वह गिरा ,रोने लगा। उसके जूते के फीते आपस में उलझ गए थे ।मा ने जूतों को पैरों से अलग कर दिया, वो खिलखिला उठा।ये थी बेड़ियों से छूटने की उमंग। उसकी हंसी से नील निहाल हो उठे ।आज वे सचमुच खुद को आजाद महसूस कर रहे थे। कोई नहीं था उनके जीवन में ,बस सिर्फ नील ....स्वतंत्र और शांत ।नहीं था उनके जीवन में किसी को खोने और पाने का दंश।
घर आए ,आज अपने हाथों से खाना बनाया। खाने के बाद जल्दी ही नींद आ गई। वर्षों बाद आज वे शांति से सोए थे ।
सुबह नींद खुली तो वक्त काफी बीत चुका था। सोचा खुद के लिए कॉफी बनाएं पर यूं ही बिस्तर पर आंख बंद किए लेटे रहे ।ध्यान में अचानक वह फिर से तैर गया ।उन्होंने अचकचा कर आंखें खोल दी। झिड़क दिया उन्होंने जॉन के अस्तित्व को। सहसा कॉल बेल बजा,नील बाहर आए। सामने अखबार वाला खड़ा था ।उन्होंने पृष्ठ पलटा, आंखें खास जगह पर जाकर टिक गई। शहर के प्रतिष्ठित अवार्ड के लिए उनके चित्र का चुनाव किया गया था। ये चित्र कभी नील को भी काफी पसंद था ।कभी क्या, जॉन के जाने के पहले ।इस चित्र में उन्होंने खुद कै और जॉन के "रिलेशनशिप" को को दर्शाया था बिल्कुल कृत्रिमता से परे। वह दृश्य भावनाओं की शुद्धता का परिचायक था। किसी की संवेदनाएं किसी के प्रति कितनी गहरी हो सकती है, इसकी पराकाष्ठा था वह। ना चाहते हुए भी उनका ह्रदय जॉन की तरफ आसक्त होने लगा। दोबारा उन्होंने खुद को भावनाओं में बहने से रोका और किचन में घुस गए ।अपने लिए कॉफी बनाई और अखबार पढ़ने बैठ गए।अखबार पढ़ रहे थे कि फोन की घंटी बजी। उन्होंने फोन उठाया, उनके एक मित्र ने उन्हें अवार्ड के लिए बधाई दी। उन्होंने धन्यवाद दिया और स्नान करने चले गए। शाम को उन्हें इस समारोह में जाना था ।
" जॉन की अनुपस्थिति में कोई घटना तो ऐसी घटी जो मुझे खुशी की हल्की लहर दे गई "नील सोच रहे थे ।"जानता हूं इसकी प्रेरणा भी वही है !"
रात में जब समारोह से लौटे तो काफी खुश थे। चित्र पर मिली प्रतिक्रियाओं ने जैसे फिर से उन्हें कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया जिससे कि वह मुक्त होना चाहते थे। एक बार फिर से वे अपने विचारों में उलझते हुए प्रतीत हो रहे थे।वे अलमारी में किताबों के बीच कुछ ढूंढने लगे ।सहसा उसमें से कुछ गिरा , देखा तो उनकी डायरी थी। मन बहलाने के लिए उसे लेकर बैठ गए ,पर उसने भी नील की मानसिक यंत्रणा को बढ़ाने का ही काम किया। सामने क पृष्ठ मेजॉन दिखाई दे रहा था ,उसकी यादें। जिसकी चर्चा से उसकी डायरी के पन्ने भरे पड़े थे। ना चाहते हुए भी पढ़ने के लिए बैठ गए।
" आज फिर से एक निःशब्दता! उलझने यूं तो हमेशा रही है, पर आज एक अजीब सी आंतरिक छटपटाहट है ।भय सा लगने लगता है ,कभी-कभी सोचता हूं खुद को ...खुद में आत्मसात कर लूं ,पर अगले ही पल खुद के स्वतंत्र होने की वेदना सालने लगती है। किससे कहूं ....कहां फूट पड़ूँ....? अपनत्व .....हां... यह अपनापन ही तो दूर कर रहा हूं मैं खुद से !पर यह निःशब्दता ....जब उसके साथ चंचलता में परिणित होने लगता है तो स्वयं ही यह नील भयक्रांत हो जाता है ।जानता हूं यह डर मेरा भ्रम है ,एक सामाजिक अप्रत्यक्ष दबाव, कुछ अपने स्टेटस की। पर क्यों ?...ऐसा क्यों?.... क्या स्वयं की खुशियां समाज के लिए विघ्न डालती हैं ?....क्या किसी का अपनत्व उसके नियम तोड़ता है?.. नहीं नहीं... वह भी शायद समझता है इस तथ्य को। मेरी तकलीफों का काश उसे भी एहसास होता ।पर अब क्यों ?यह दूरियां तो मैं बना रहा हूं ।बिना वजह ....एक अनजाने भय से। काश वह मुझे मुक्ति देता !....इस संत्रास.... इस डर...ईस भय से। मेरे लिए ....मेरी खुशियों हेतु ।"
"ऐह जॉन!" नील ने डायरी सीने से लगा ली।
" एक दिन मैं तुम्हें खुद से दूर करना चाहता था, मजबूर था मैं !पर आज आज तुम खुद ही दूर हो गए! खुद के लिए विवश कर गए!" उनकी आंखों के पोरों से अश्रु धाराएं अनवरत बह सी चली। उन्होंने दूसरा पन्ना पलटा ,उनके चेहरे पर क्रोध के भाव आ रहे थे ।हां उन्हें जॉन पर गुस्सा आता, पर कब यह क्रोध अपनी स्थिति बदल कर करूणा- मिश्रित बन जाता ये नील के लिए भी अबूझ था ।
"......मैं तुम्हारे त्याग ...तुम्हारे समर्पण को ....नहीं भूल सकता जॉन! इतना कृतघ्न नहीं हो सकता मैं।मेरा जीवन खुद ही खुशियों से अनभिज्ञ रहा ....और तुमने तो मुझे अथाह खुशियां सौंप दी.... मेरे जीवन के नए सृजन हेतु ।तुम्हें शायद विश्वास ना हो ,पर मेरे लिए किसी प्रेरणा स्रोत से कम नहीं तुम। तुम्हें नैतिकता का पाठ सिखाते -सिखाते मैं खुद ही उन चीजों को आत्मसात करने लगा। मैं तो सिर्फ दूसरों को खुश रखने की नसीहत देता था, पर तुमने तो इस पर अमल किया। ऐसे में मैं कह सकता हूं कि तुम मेरे गुरु भी हो !फिलहाल तो मैं तुम्हारी दी हुई सौगात को संजो रहा हूं ।नहीं भूंलना चाहता हूं उन पलों को.... उन तथ्यों का संस्मरण ही दिल में ठंडक पहुंचा जाता है और सामने तैरने लगती है तुम्हारी छवि।... एक निस्पंद ...निस्वार्थ व्यक्तित्व... जिसकी एक एक हंसी मुझे मेरे उलझन से दूर ले जाती है।"""
" नहीं जॉन ...तुम निस्वार्थ नहीं.....!... तुम स्वार्थी हो! उन्होंने चिल्लाते हुए डायरी पटक दी।अचानक उन्हें डायरी से गिरा एक पन्ना दिखाई पड़ा, उन्होंने उठाया ।यह वह पत्र था जिसे उन्होंने भारत से जॉन को लिखा था। उनके मन में आशा की एक किरण दिखाई दी। वे सोचने लगे।
"हां मुझे भारत जाना चाहिए ,वही मुझे शांति मिल सकती है ।वहीं पर है मेरे इस जीवन की सार्थकता ....वहां का अध्यात्म मुझे मेरे दुखों से उबार देगा....हां, वहीं जाकर ही मुझे शांति मिल सकती है।"