भाग-27
शाम का समय था ।नील उदास से अपने घर पर बैठे थे। आंखें कुछ देखना चाहती थी, पर वह नहीं दिखेगा जानते थे वे।
..... आदतें !...नहीं... नहीं... प्रेम सहज ही नहीं छूट जाया करते ।आख़िर कितने सालों तक दिन का यह खास समय उन्होंने जॉन का इंतजार करते ही बिताया था ।यह वह पल था जो सिर्फ और सिर्फ उस नन्हें को ही समर्पित था ।पर अब वह नहीं आएगा।
"आह!"नील के हृदय में वेदना की एक लहर सी उठी और उनकी बेचैनी बढ़ाती चली गई। कुछ ही पल बाद वे कुछ लिख रहे थे.....
जॉन,
".... मुझे समझ में नहीं आ रहा इतना कुछ होने के बाद भी तुम्हें क्यों याद करता हूं !क्या तुम बता सकते हो ?...नहीं ना। आश्चर्य मुझे भी हो रहा है, पर यह सत्य है कि मैं तुम्हें लिख रहा हूं .....जिसका कोई भी जवाब मुझे नहीं मिलने वाला !पर लिखूंगा ...लिखता रहूंगा ... मैं मजबूर हूं !तुम क्या सोचते हो मात्र कुछ शब्दों के कारण हमारे बीच दूरियां बन जाएगी?... क्या अच्छे संबंध कहीं टूटते हैं?.. नहीं ...नहीं ...तुम यह मत सोचना कि मैं तुमसे फिर से जुड़ने की कोशिश करूंगा, पर यह भी सत्य है जॉन कि मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता !"नील की आंखों में आंसुओं की दो बूंदे लुढ़क पड़ी।
" कभी हम दोनों ने प्रण किया था हम मिलकर एक ऐसा रास्ता बनेंगे जो समाज को मंजिल दिखाएगा। जिससे समाज सही दिशा में जा सके। लेकिन आज हम दोनों उस रास्ते के दो छोर बन चुके हैं, जो शायद ही कभी मिले ।मैंने तुम्हें तुमसे भी अच्छी तरह समझा है जॉन! अच्छी तरह जानता हूं तुम्हें। किस से दूर भाग रहे हो तुम ?...खुद से...? अपनी अच्छाइयों से?.... अपनी प्रेरणा से ?मैंने तो तुम्हें समझा पर तुम मुझे समझ ही न सके! अगर तुमने शांति से बैठकर सोचा होता तो.... काश तुम भी मुझे मेरी कमियों के साथ स्वीकार कर पाते?.... जॉन न जाने क्यों मुझे डर लग रहा है कि जिस पौधे को मैंने इतने दिनों सींचा कहीं वह मेरे अभाव में सूख न जाए। कहीं तुम अपनी अच्छाइयों को खो न दो ।क्या तुम चाहोगे यह संसार एक अच्छे इंसान का निर्माण ना होने दें? यूं भी मैं तुम्हारे जीवन में नहीं आता, पर क्या करूं मैंने कभी वादा किया था खुद से, तुम्हें ऊंचाई पर देखने का ।आरंभ में तुम उस रास्ते पर मजबूती से चले भी, पर अचानक तुम्हारे पांव क्यों उखड़ने लगे? तुम्हें अच्छी तरह पता है जॉन मुझे आज तक कोई ऐसा ना मिला जिसे अपना कह सकूं और तुम मिले भी तो न जाने कितनी बार मुझे रुलाया!... हां मैं मानता हूं मुझ में कुछ कमियां है, पर सच मानो जॉन इसका कारण मेरा शापित जीवन रहा है। मैं भी इन संबंधों .......!हां जॉन मैं खुद को बदलने की कोशिश करता।"
" तुम्हें लगता होगा कि मैं तुमसे इतने दिन दूर रहा ,नहीं जॉन, मैंने हमेशा तुम पर नजर रखी ।तुम भटक रहे हो अपने प्रण से... अपने जीवन से !संभालो खुद को नहीं तो वक्त बीतने के बाद पछताना पड़ेगा और मैं ऐसा कभी न चाहूंगा। सचमुच कहां खो गया वह प्यारा सा बच्चा !...लोग बड़े होने के साथ अपनी पहचान बनाते हैं पर तुमने तो अपनी पहली पहचान भी खो दी ।मुड़कर देखना शायद तुम्हें तुम्हारा पुराना रूप मिल जाए.... पर खुद के मस्तिष्क को ढूंढना जरूर ।एक नई पहचान के लिए। "
नील के लिए अब आगे लिखना दूभर होता जा रहा था। उन्होंने लिखना बंद कर उसे मेज पर रख दिया और आंखें मीच ली।
" हे ईश्वर!.. यह कैसा आकर्षण है! मैं किस उलझन में जी रहा हूं? मैं क्या करूं, खुद समझ में नहीं आता। उसे पाना चाहता हूं, पर नहीं पा सका!... उसे छोड़ना भी चाहता हूं, पर छोड़ नहीं पा रहा!... क्या करूं मैं? नील न जाने कितनी देर तक आसक्त से पड़े रहे ।
उन्हें लगा सबको सूचित करता जाऊं, फिर उन्होंने महसूस किया नहीं शायद फिर से वे इन बंधनों में जकड़ जाएंगे। उन्होंने जरूरत का कुछ सामान पैक किया, टिकट के लिए वह पहले ही फोन कर चुके थे।
नील जब घर से बाहर निकल रहे थे तो सड़क लगभग सुनसान हो चुकी थी ।अपने घर को उन्होंने अंतिम बार देखा। सहसा उन्हें कुछ याद आया, वह वापस अंदर आए ।सामने जॉन की तस्वीर को निहारा और उसके माथे पर प्यार भरी मुहर लगा दी और भरी आंखों से बाहर निकल आए ।
"हां जॉन, जा रहा हूं .....!जा रहा हूं हमेशा के लिए ....!तुम्हारे जीवन से दूर !अब तुम आजाद हो खुद का जीवन जीने के लिए ।अब तुम्हारे ऊपर किसी का नियंत्रण नहीं होगा।.... नहीं आऊंगा.... अब कभी भी तुम्हारे पास !"चिल्लाते हुए वे बाहर निकल गए और बंदरगाह की तरफ बढ़ गए ।
जहाज में भी उनकी उहापोह की स्थिति बनी रही ।दुबारा जब उन्होंने भारत की धरती पर कदम रखा था ,सुबह का धुंधलका साफ हो रहा था।शायद उनके भीतर का भी ,क्योंकि चेहरे के भाव एक अनजानी खुशी को इंगित कर रहे थे। अचानक उनके चेहरे के भाव बदले ,हां उन्हें किसी अनजानी सी ताकत ने रोकने की कोशिश की थी ।....पर रुके क्यों नहीं... उन्हें खुद पर आश्चर्य हो रहा था।
पर इस बार नील पूर्णतया तैयार थे। जीवन की उपलब्धियां पाने के लिए नहीं वरन जीवन को सार्थक बनाने के लिए। याना उनको लेने आई थी।... हां नील अपनी भारत यात्रा चाह कर भी गुप्त ना रख सके ।उन्हें सहारों की आदत पड़ गई थी ।लेकिन इस बार भी उन्हें खुद से काफी अंतर्द्वंद करना पड़ा।
नील ने याना से वाराणसी रहने की इच्छा जताई ।जहाँ की आध्यात्मिक शांति उनके मन में रची बसी थी ।याना सहर्ष तैयार हो गई ।उनका आवास बना शहरी कोलाहल से दूर एक शांत सा ग्रामीण क्षेत्र जो नील को सर्वथा अपने अनुकूल जान पड़ा ।याना छोटे बच्चों को कला सिखाने का काम करती थी। अपने बिके चित्रों के पैसे भी बच्चों या समाज कार्य में ही खर्च करती। नितांत सादा जीवन था उसका और माता-पिता के देहांत के बाद वह सादगी और भी बढ़ गई।