भाग -30
नील लेटे हुए छत को निहार रहे थे, आत्म -दहन की प्रक्रिया से गुजरते हुए। सब कुछ स्वप्न सरीखा लग रहा था, एकदम से अवास्तविक! जिस असमंजस और उहापोह को वे वहां छोड़ आए उस ने उनका पीछा यहां भी नहीं छोड़ा था ।
सुबह याना ने उनको जो खबर सुनाई उससे वे जरा भी अचंभित नहीं हुए। यूरोपीय अखबारों ने नील की गुमनामी की खबर छापी थी।
" हां, वे कभी खुद को खोज ही कहां पाए थे!"... बचपन से ही गुमनाम!"
उन्होंने खुद को सीमित कर लिया ,बहुत कम बोलते, ज्यादातर समय बाहर ही बीतता ।यह याना से एक अविभाजित व अदृश्य दूरी थी। याना के लिए सब कुछ सामान्य था. वह जानती थी यही होना है ।
याना ने देखा किसी अमानवीय ताकत से नील स्वयं को शांत रखे हुए हैं।
" मुझे खुशी है कि आपने सत्य को पहचान लिया !"उसने नील से कहा।
कुछ दिनों बाद याना ने देखा नील विक्षिप्त से हो गए हैं! हमेशा खीझ से भरे हुए। पेंटिंग उन्होंने एकदम छोड़ दी थी ।याना उनसे कुछ कहती तो सुनते जरूर मगर उतने ध्यान से नहीं जैसे कि वह पहले सुना करते थे।
याना के ना रहने पर नील ने उसकी डायरी पढ़नी चाही, कुछ शब्द थे अबूझ-से.... पर जीवन के सत्य से परिचित कराते ।पन्ना पलटा तो याना की लिखी हुई एक कविता दिखाई पड़ी-----
" मैं कौन हूं? सोचा खुद का करूं साक्षात्कार।
बैठा, सोचा, झल्लाया, पर फिर भी ना मिला आधार ।
आत्मा से पूछा, परमात्मा से चाहा ,
क्या है मेरा अस्तित्व ?
कौन हूं? कहां से आया?
कितना अजीब! कितना विचित्र !
सोचता रहा, सोचा, फिर उलझा,
कुछ संभला तो फिर फिसला ।
सोचा कर ही दूं अपने विचार का परित्याग,
पर कुछ स्पंदन, फिर वही बान।
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं ?क्या है मेरा आधार?
या फिर मेरा होना ही है निराधार ?
पर मैं हूं ,गति है , स्पंदन है ,
फिर तो होगा ही कोई आधार।
अंतस हिला, सहमे शब्द, लहराया प्रकाश,
तू कौन है ?ना कर इसका भान,
तू क्यों आया बना इसको आधार ।
मानव है तू, दया, अहिंसा ,है तेरा उद्गार ।
सत्य ,धर्म, तप, त्याग से, तू खुद को पहचान ,
टूटी तंद्रा, जगा स्वप्न से, हुआ सत्य का ज्ञान,
मैं कौन हूं ?मैं कौन हूं ?हुआ इसका समाधान ।
नील को लगा वह याना को बहुत कम जान पाए हैं ।डायरी पढ़ने के बाद आत्मग्लानि से भरे हुए थे। ईश्वर तो नहीं लेकिन कुछ कमतर भी नहीं आका उसने नील को, खुद की डायरी में।
नील एक निश्चय कर चुके थे, उन्होंने लिखना शुरू किया----
" मैं तुम्हारी तरह बुद्धिमान नहीं ,आदर्शवादी भी नहीं, पर इंसान हूं। एक कमजोर मानव !......जो न सत्य को समझ सकता है,न अध्यात्म को।हां एक बार फिर से वही लौट पड़ा जहां 40 साल पहले था... नन्हा नील! अत्यधिक विचारों ने मेरे परिपक्वता को धूमिल कर दिया है। मेरे अभाव फिर से एक बार मेरे सामने खड़े हैं।... मेरी मां... जेनी ...शायद जॉन भी!"
" मैं त्याग नहीं कर सकता ,क्योंकि मैंने कुछ पाया ही नहीं"
मैं जा रहा हूं, जाना जरूरी है ...कहां ...पता नहीं ?....पर खुद को पाने तो एकदम नहीं!"
याना सुबह की चाय लेकर नील के कमरे में पहुंची तो उनकी जगह खुद के डायरी के पन्नों को सरसराते हुए पाया । ....पढ़ा!.... चौकना स्वाभाविक था !याना को लगा उसने कुछ महान सा खो दिया ।वह बाहर जाकर उन्हें ढूंढना चाहती थी, पर उसके संकल्पो की दीवार पहले से ज्यादा मजबूत हो चुकी थी। उसकी उद्विग्नता को आंखों ने साकार कर दिया, आंसू बह निकले। हां संकल्पों के भीतर कुछ दरक रहा था ।याना ने आंखें बंद कर ली ।
अखबारों ने ही नील के गुमनामी की सूचना जॉन को भी दी थी, पर जॉन ने इसे काफी हल्के से लिया ।वह इस समय खुद के निर्माण में जुटा हुआ था। एक मनोचिकित्सक के पथ पर अग्रसर। उसे लगा यही होना था ।हां एलिस को थोड़ी सी घबराहट हुई या फिर उनको जिन लोगों को नील से फायदा था ।एलिस सच्चाई जानती थी और जॉन को इसका सबसे बड़ा कारण मानती, अंततः उसने भी जॉन से दूरी बना ली। सिर्फ एक बार मिलने के लिए वह जान के पास गई ।
"मैं जानता हूं तुम सर के विषय में जानने आई हो, पर उनके लिए मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं ।"वह रूखे ढंग से बोला।
एलिस को लगा वह स्वार्थ की मूर्ति देख रही है ,जिसने जॉन की शक्ल ले ली है ।
"तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारा सर के प्रति यह व्यवहार तुम्हें कभी खुश रहने देगा ?"वह चित्कार उठी ।
"मैं इस विषय में कुछ नहीं सुनना चाहता।" जॉन ने दो टूक जवाब दी।
" मैं तुम्हें कुछ देने आई थी जॉन ,सर का दिया हुआ, पर लगता है तुम्हें उसकी जरूरत नहीं ।"
एलिस नील के यहां गई थी ,वहां जॉन के लिए लिखा हुआ नील का पत्र पड़ा हुआ था ।
"क्या है?" उसने पूछा।
जॉन के शुष्क ह्रदय में फिर से कुछ समेटने के लिए विवश कर दिया उस पत्र ने। उसे लगा वो खुद को कामयाब बनाकर नील को दोबारा पा लेगा।मन में एक निश्चय कर उठा।
एलिस जा चुकी थी।
नील के लिए अब सब कुछ सामान्य था ....और असामान्य भी! सोचना उन्होंने कब बंद कर दिया। हृदय के सूक्ष्म तारों में सहसा कोई हलचल होती पर उसका संगीत समझ में ना आता ।कदमों ने जिधर रास्ता तय किया उधर ही चल पड़े। काफी कुछ उड़ते हुए से, चाल में तीव्रता थी... पर मंजिल विहीन! दिमाग की तरह आंखें भी शून्य हो चुकी थी ।उन्हे न तो खुद से शिकायत थी, न जीवन से ,और न हीं जॉन से ।वे थे ही अभिशप्त... जीवन से पस्त ...किसी को गलत कैसे कह सकते हैं! कदमों ने जब तक साथ दिया चलते रहे , थक गए तो यूं ही भूमि पर पसर गए , जैसे कोई बहुत बड़ा आश्रय मिल गया हो, मां के गोद जैसा। ह्रदय ने जब थोड़ी सी शांति भाई तो उनका गुबार फूट कर बाहर आने लगा । वह फूट-फूटकर रोने लगे, जैसे खुद को बहा देना चाहते हो। ऐसे ही तो वह पहली बार भी रोए थे, तब भी कोई नहीं था।
" मां ......!"उनके हृदय से आर्तना फूट पड़ा और वे दोबारा बिलख उठे।
थोड़ी देर बाद सब कुछ शांत था। अंधेरा घिर आया ,नील ने देखा असंख्य तारे सारे आकाश में बिखर उठे थे। सब के सब चमकते हुए ,पर किसी की रोशनी उन तक नहीं पहुंच पा रही थी। सब कुछ भ्रम था !उनका चमकना भी! उन्होंने चांद को ढूंढा ,पर वह नहीं दिखा! आंखें पथराने -सी लगी। उन्होंने आंखें बंद कर ली, कुछ देर वैसे ही पड़े रहे ।फिर चल पड़े, चलते रहे ,काफी देर चलने के बाद एक मंदिर नुमा जगह दिखाई पड़ी। पास में ही नदी थी, मंदिर के चबूतरे पर बैठ गए। थकान पूरी तरह हावी थी, नदी के कारण आती ठंडी हवाओं ने शीघ्र ही उन्हें सुला दिया ।
सुबह मंदिर की घंटियों के साथ उनकी तंद्रा टूटी ,देखा तो एक देहाती -सी महिला उन्हें घूर रही है ।वह उनसे कुछ कहना चाहती थी, इशारों में।
नील हिंदी जानते थे, जब उन्होंने उस जगह का नाम पूछा तो उस महिला को अपनी गलती का अहसास हुआ।
वाराणसी से पूरब ,यूपी -बिहार सीमा से सटा हुआ था, जहां कर्मनाशा नदी ईन दो राज्यों को विभाजित करती थी।
" चिरईगांव" उस महिला ने उस स्थान का नाम बताया।
नील मंदिर के अंदर गए तो, देखा देवी की एक मूर्ति थी पत्थरों से बनी ,जो काफी प्राचीन लग रही थी ।
महिला तब तक काफी लोगों को इकट्ठा कर चुकी थी। एक धूल दूसरी विदेशी को इस तरह देखना उन्हें एकदम विचित्र लग रहा था। एक ने उनका नाम पूछना चाहा।
"नील।" उन्होंने बताया।
कुछ ही पल बाद वे उन सबों के साथ काफी घुल-मिल चुके थे ।उन लोगों ने उनके रहने के लिए वहीं एक छप्परनुमा घर बना दिया जिसमें नील की स्वीकृति भी शामिल थी ।
नील अपनी स्मृतियों के साथ वही रहने लगे ।परेशानी बढ़ती तो देवी के पास चले जाते या नदी के किनारे बैठ जाते ।नदी की गोद में उठती लहरें उनकी साथी बन गई थी जो उनकी तरह ही थी... अस्तित्व विहीन !उन्हें कब उठकर, कहां जाना है, वे स्वयं कभी नहीं जान पाए! सुबह शाम को गांव वाले खाना पहुंचा देते।
अक्सर मछुआरे वहां जाल लेकर आते। नील बैठे उनके क्रियाकलापों को देखते, कैसे मछलियां जल से दूर होते ही तड़प उठती हैं !उन की छटपटाहट में नील खुद का आभास बातें ।
अब उनके जीवन का कोई लक्ष्य नहीं रह गया था ।खालीपन उन्हें और भी सताता ।एकांत पातें ही स्मृतियां उन्हें काटने को दौड़ती। सहसा वे बेचैन हो जाते ,चेहरे की आकृतियां अजीब सी हो जाती। कभी-कभी गांव वाले उन्हें देवी की मूर्ति के पास बैठ कर रोते हुए देखते ।सब ने उन्हें बहुत जानने की कोशिश की, पर हर पल के साथ उनकी रहस्यात्मकता बढ़ती ही जा रही थी।कभी वे लोगों से प्यार करते तो कभी खींझ उठते।