*मानव जीवन में धन का होना बहुत आवश्यक है | धन के अभाव में मनुष्य दीन - हीन सा दिखने लगता है | प्राचीनकाल के मनुष्यों को भी धन की आवश्यकता रहा करती थी | परंतु आज की तरह धनलोलुपता नहीं देखने को मिलती थी | पहले मनुष्यों का सबसे बड़ा धन उनका आचरण हुआ करता था , जिसका आचार - विचार सही होता था , जो सदाचारी थे वही धनी माने जाते थे | गरीबी एवं अमीरी का आंकलन विद्वता एवं नम्रता से होता था | यदि
ज्ञान एवं विद्वता का महत्व न होता तो बड़े - बड़े राजाओं - महाराजाओं को कोई कार्य पड़ जाने पर ऋषियों के आश्रम पर न जाना पड़ता बल्कि वे ऋषियों को अपने दरबार में बुलवा सकते थे परंतु यहाँ विद्यालक्ष्मी के समक्ष धनलक्ष्मी गौड़ हो जाती थीं | इतिहास गवाह है कि जिसने भी धनलक्ष्मी में वृद्धि करने के लिए अनीति , अनाचार का आश्रय लिया उसका पतन ही हुआ है | आज धनतेरस के पावन पर्व पर प्रत्येक मनुष्य को यह सोंचना चाहिए कि हमारे द्वारा अर्जित किया जा रहा धन किस मार्ग से आ रहा है | धन की पिपासा इतनी विकपाल होती है कि मनुष्य कभी संतुष्ट नहीं हो पाता है | और अधिक प्राप्त कर लेने की इच्छा में वह बौखला कर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है वह भी परिणाम की परवाह किये बगैर | जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए |* *आज जीवन के लिये धन नहीं रह गया है धन के लिए जीवन हो गया है | प्रत्येक मनुष्य जीवन खोकर, भाईचारा खोकर, सुख शान्ति खोकर, ईमान खोकर जिस किसी भी तरह धन कमाने के पीछे पागल बना घूम रहा है। पर इससे संसार में धन नहीं बढ़ा बल्कि धन का नशा बढ़ा, धन का पागलपन बढ़ा मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि इस धन लोलुपता से मात्र दुःख बढ़ा अशान्ति बढ़ी, बैर और घमण्ड बढ़ा क्रूरता बढ़ी बेईमानी बढ़ी, और हमारी शैतानियत बढ़ी | मनुष्य धन तो न खा सका बल्कि धन ने मनुष्य को खा लिया | यह ठीक है कि धन के बिना हमारा काम नहीं चल सकता | थोड़ा बहुत धन तो हमें चाहिये ही, पर जितना चाहिये उसी के पीछे यह सब अनर्थ नहीं हो रहा है, अनर्थ वे ही लोग करते हैं जिनके पास चाहिये से अधिक धन है | आखिर सवाल होता है कि ‘चाहिये’ से अधिक धन का लोग क्या करते हैं क्यों मनुष्य उसके पीछे पागल हो रहा है ?? मनुष्य को रोटी चाहिये कपड़ा चाहिये रहने को मकान चाहिये, यहाँ तक किसी की धन लालसा हो तो वह ठीक कही जा सकती है | पर देखा जाता है कि इनकी पूर्ति होने पर भी मनुष्य अपने को दीन समझता है और उनके सामने गिड़गिड़ाने को तैयार हो जाता है जिनके सामने झुकने को उसका अन्तरात्मा तैयार नहीं होता | वह सदाचारियों जन सेवकों और गुणियों को इतना महत्व नहीं देता जितना अपने से अधिक धनियों को | इसलिये प्रत्येक मनुष्य धन संग्रह की ओर बढ़ता चला जा रहा है | उतने धन की आवश्यकता है या नहीं इसका विचार वह नहीं करता क्योंकि जीवन के लिये जरूरत हो या न हो किन्तु महान बनने के लिये तो जरूरत है ही | मनुष्य में महान कहलाने की लालसा तीव्र से तीव्र है | और महत्ता का माप धन बन गया है इसलिये मनुष्य धन के पीछे पड़ा हुआ है | यह बिलकुल स्वाभाविक है |* *दुनिया में धन से महत्ता मिलेगी तो लोग धन की तरफ झुकेंगे, अगर गुण सेवा सदाचार आदि से मिलेगी तो उसकी तरफ झुकेंगे | आज गुणी की अपेक्षा धनी को महत्व मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है |*