*हमारे सनातन ग्रंथों में इस संसार को मायामय के साथ साथ मुसाफिरखाना भी कहा गया है | मुसाफिरखाना अर्थात जहां
यात्रा के अंतर्गत एक - दो रात्रि व्यतीत करते हैं | कहने का तात्पर्य यह संसार एक किराए का घर है और इस किराए के घर को एक दिन छोड़ कर सबको जाना ही पड़ता है | इतिहास गवाह है कि संसार में जो भी आया है उसको एक दिन जाना पड़ा है | राजा रहे हों , चाहे बड़े-बड़े योगी तपस्वी , यहां तक कि भगवान के अंशावतार / पूर्णावतार भी इस संसार को छोड़कर चले गये | इसीलिए हमारे महापुरुषों ने इस संसार को एवं यहाँ रह रहे प्राणियों से मोह न बढ़ाने का निर्देश दिया है , क्योंकि मोह को ही सभी बीमारियों की जड़ कहा गया है | बाबा जी अपने मानस में लिखते हैं :-- "मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला" | यह मैं हूं ! यह मेरा है !! यह भाव जब तक मनुष्य के अंदर रहेगा तब तक मनुष्य को ना तो शांति मिलती है और ना ही वह सुख प्राप्त कर पाता है | जब तक मनुष्य मोह का त्याग नहीं करता है तब तक उसे न तो ऐश्वर्य प्राप्त होता है और न ही उसका यश ही फैलता है | भगवान श्रीराम ने राज्यगद्दी एवं राज्य के मोह का त्याग करके वनवास ग्रहण किया तो आज उनका यश तीनों लोकों में व्याप्त है | श्याम सुंदर कन्हैया ने भी वृंदावन के गोप - गोपिकाओं यहाँ तक मईया यशोदा एवं बाबा नंद के मोह को अनदेखा करके मथुरा की यात्रा की , जिसके परिणामस्वरूप उनकी कीर्तिपताका त्रिभुवन में फहरा रही है | जब तक मैं का मोह नहीं मिटता है तब तक मनुष्य कूपमण्डूक बनकर रह जाता है | मनुष्य को सर्वप्रिय बनने के लिए "यह मेरा है" का भाव त्याग करके "सब हमारे हैं" एवं "कुछ किसी का नहीं सबकुछ सबका है" का भाव अपनाना पड़ता है |* *आज मनुष्य ने जितनी अधिक प्रगति की है उतनी ही ज्यादा उसकी मोहमाया भी बढ गयी है | लोग बड़ी शान से कहते हैं कि "यह मेरा बेटा है" , बहुत प्रेम से उसका लालन - पालन भी होता है परंतु जब उसका विवाह हो जाता है और वह अपनी पत्नी लेकर घर से अलग अपना संसार बना लेता है तो माता - पिता रोते हुए कहते देखे जाते हैं कि यह तो मेरा था ही नहीं | आज के समय में चारों ओर सिर्फ "यह मेरा है" के लिए ही हाहाकार मचा हुआ है | लोग जमीन के एक टुकड़े को अपना बनाने के लिए मनुष्य के प्राण तक हरण कर रहे हैं | परंतु यह नहीं
विचार कर पाते हैं कि यह जमीन का टुकड़ा जिसके लिए हम हत्या तक कर रहे हैं क्या वह मेरे साथ जायेगा ?? हमसे पहले पता नहीं कितनों ने इसका उपभोग किया होगा और मेरे बाद पता नहीं कितने लोग इसका उपभोग करेंगे | यह तो साधारण मनुष्यों के कृत्य हैं , परंतु मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आश्चर्य के साथ उस समाज को देख रहा हूँ जिसे विद्वतसमाज कहा जाता है | आज सोशलमीडिया के इस युग में विद्वानों की सबसे बड़ी समस्या यह दिख रही है कि :--- यह
लेख मेरा है और इस पर अमुक व्यक्ति ने अपना नाम लिख दिया ! और इसी विषय को लेकर "महाभारत" तक मचती रहती है | यह वही विद्वान होते हैं जो दूसरों को "मैं एवं मेरा" का त्याग करने के उपदेश अपने लेखों के माध्यम से दिया करते हैं परंतु स्वयं उस भाव का त्याग नहीं कर पा रहे हैं | जबकि लेख किसी का न होकर मनुष्य के विचार मात्र होते हैं | जिस पर विद्वतजन भिन्न - भिन्न अभिव्यक्तियां प्रकट करते हैं |* *यहाँ किसी का कुछ भी नहीं है ! सब दूसरों से मिला है और दूसरों को ही देकर चले जाना है ! फिर झगड़ा किस बात का ?? विचार पर विचार अवश्य कीजिएगा |*