मज़बूरियां आशिकी में
खुदगर्जी आदमजात की फ़ितरत- दुनियावी शौक है!
चाहतोँ का शिलशिला मजबूरी-
न ओर है- न छोर है!!
अपनी कमियों पर पर्दा डाल सभी पाक - साफ नज़र आते हैं!
इनकार करते हैं मगर इकरार के
दो लब्ज़ खातिर तरस जाते हैं!!
टूटा है हर आशिक़ मगर-
अबतलक़ बिखरा नहीं है।
अश्क दिखते तो हैं हजार-
मगर खुल रोता नहीं है।।
हँसू या फिर न हसूँ पर-
सभों को हँसाते रहा हूँ मैं।
अश्क देख गैरों का-
अहबाब बन उम्मीद
दिलाता रहा हूँ मैं।।
प्यार तो दिल की है बात-
लब्ज़ जुवां पर उतर नहीं पाती।
ज़िश्म से ताल्लुक रहे कहाँ
दर्द-ओ'-चुभन हो नहीं पाती।।
चाहतों का ख़्वाब पुरज़ोर
दिगर में मचल उझल उठा।
साहिल को देखते ही-
माँझी का पतवार चल पड़ा।।
हुश्न का मुक़ाम अनदेखा पर- लाज़वाब था।
इश्क़ेफ़ितूर उफना इस कदर-
बेहिसाब था।।
आइना एक चमकता-
आशिक़ के हाथ था।
शौहरत में दम-जवाब
हर सवाल का तैयार था।।
सब था मगर क़िरदार इश्क का
पाक़-साफ़ था।
इकरार की इल्तिज़ा-
हुनर के दीदार का इंतज़ार था।।
डॉ. कवि कुमार निर्मल___________✒️
बेतिया, जिला: पश्चिम चंपारण (बिहार)