*इस धराधाम पर मनुष्य सभी प्राणियों पर आधिपत्य करने वाला महाराजा है , और मनुष्य पर आधिपत्य करता है उसका मन क्योंकि मन हमारी इंद्रियों का राजा है | उसी के आदेश को इंद्रियां मानती हैं , आंखें रूप-अरूप को देखती हैं | वे मन को बताती हैं और मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करने लगता है | कहने का आशय यह है कि समस्त चराचर को दास बनाने वाला मनुष्य अपने मन का दास है | गलत काम करने को मन करता है और मनुष्य उसे करने लगता है | गलत काम कराते समय मन मनुष्य पर हावी हो जाता है और काम कराकर वह भाग जाता है , और जब मनुष्य को होश आता है, तब वह पश्चाताप करने लगता है कि ऐसा गलत काम कैसे कर लिया ? यह पश्चाताप करने वाली मनुष्य की आत्मा है और गलत काम कराने वाला हमारा मन है | इसीलिए हमारे महापुरुषों ने मन का निग्रह करने का सुझाव बारम्बार दिया है , जिससे कि मनुष्य मन के पार जा सकें , क्योंकि जब तक मनुष्य मन के प्रभाव में दबा रहेगा, तब तक वह आत्म तत्व में अवगाहन नहीं कर सकेगा | परमात्मा तक पहुंचने में मन सदैव बाधक रहा है उसके लिए आत्मा का ही मार्ग है , ऐसा इसलिए क्योंकि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं | आत्मा परमात्मा का लघु रूप है और परमात्मा आत्मा का विस्तार है , इसलिए दोनों दृश्य नहीं हैं, सूक्ष्म हैं | जो भी भावरूप होता है, वह सूक्ष्म होता है, अनुभवगम्य होता है जैसे प्रेम , करुणा , दया , वात्सल्य आदि भाव | मन को केवल अनुभव किया जा सकता है , आप अनुभव कर सकते हैं कि आप प्रेम करना चाहते हैं या घृणा चाहते हैं | आश्चर्य की बात है कि मन अधिकतर मामलों में हमेशा नीच कर्म की ओर ही प्रेरित करता है, क्याेंकि वह इंद्रियों का राजा है | इंद्रिया अपने राजा मन से भोग मांगती हैं | आंख को सुंदर रूप देखने का अधिक से अधिक अवसर मिले , जीभ को स्वाद मिले , हाथ को स्पर्श सुख चाहिए | कहने का अर्थ है कि सभी इंद्रिया अपना भोग-विलास मन से मांगती हैं और निरंकुश व चंचल मन को इनकी मांगें पूरी करनी पड़ती हैं | इसलिए यह चंचल रहता है, चारों ओर भागता रहता है | इस स्थिति में मन को स्थिर करना कठिन हो जाता है | इसी चंचलता के कारण मन विवेक को त्याग देता है क्योंकि मन महास्वार्थी है उसे भोग चाहिए | अगर मन विवेकशील बन जाए, तो इंद्रियों की जो अनैतिक मांगें हैं उन्हें कैसे पूरा कर सकता है क्योंकि विवेक उसे गलत काम नहीं करने देगा इसलिए मन के साथ विवेक कभी नहीं रहता , मन और विवेक का बैर है | मनुष्य ज्यों ही विवेकी बन जाता है, वह मन के पार चला जाता है | इसी क्रिया को संयम या मन का निग्रह कहते हैं | इस प्रकार अपने विवेक विवेक का प्रयोग करते हुए मन को संयमित रखकर हमारे महापुरुषों ने मानव कल्याण के लिए अनेक सिद्धियां प्राप्त की थीं |*
*आज मनुष्य पहले की अपेक्षा अधिक विवेकवान होने के बाद भी अपने मन को संयमित नहीं कर पा रहा है | आज समस्त विश्व में जो भी अत्याचार , व्यभिचार आदि का कोहराम मचा हुआ है उसका एकमात्र कारण मनुष्य के मन की चंचलता है | मन का निग्रह करने में असफल मनुष्य मन का दास हो गया है | आज की स्थिति यह है कि मनुष्य अपने मन के ऊपर नियंत्रण न कर पाने के कारण अनेकों कृत्य / कुकृत्य करता चला जा रहा है | अपने इन कुकृत्यों को सम्पन्न कर लेने के बाद परिणाम की आशंका में मनुष्य की आत्मा व्याकुल हो जाती है परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यदि यह कह दूँ कि आज जो वैश्विक महामारी कोरोना के रूप में सम्पूर्ण मानवजाति को असमय काल कवलित कर रही है उसका एक कारण मन का संयमित न होना भी है तो अतिशयोक्ति न होगी | जैसा कि आज सभी जान गये हैं कि यह संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है इसीलिए अनेकों देश की सरकारें अपने देशवासियों से सामाजिक दूरी बनाये रखने का निवेदन बार - बार कर रही हैं | यद्यपि यह निवेदन मनुष्य की भलाई के लिए ही है परंतु "मन है कि मानता नहीं" को चरितार्थ करते हुए मनुष्य अपने घरों में नहीं रह पा रहा है क्योंकि आज मनुष्य का अपने मन पर संयम नहीं रह गया है | "मन का निग्रह" करने का सूत्र मनुष्य भूलता चला जा रहा है | अनेकों लोग पूजा - पाठ - जप आदि करते रहते हैं और उनका मन यत्र तत्र घूमता रहता है | ऐसी पूजा / जप करने का कोई अर्थ नहीं है | मनुष्य को यदि मनुष्य बने रहना है तो यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने मन का निग्रह करे अन्यथा असंयमित मन मनुष्य को दानव बना देता है | आज समाज में इन दानवरूप मानवों की संख्या यदि बढ़ रही है तो उसका एक कारण प्राचीन शिक्षा प्रणाली का लुप्त हो जाना भी कहा जा सकता है | मन का निग्रह करने में मनुष्य तब तक नहीं सफल हो सकता जब तक उसमें संस्कार न हों और यह संस्कार आज न तो विद्यालय में मिल पा रहा है और न ही परिवार में इसीलिए मनुष्य निरंकुश होकर कोरोना जैसी महामारी के विस्तार में सहायक बनकर समस्त मानवजाति के लिए खतरा बन रहा है |*
*मन का निग्रह करके ही मनुष्य एक आदर्श स्थापित करने में सहायक हो सकता है | अत: मनुष्य को धीरे धीरे ही सही परंतु अपने चंचल मन के ऊपर आधिपत्य करने के लिए सतत प्नयत्नशील बने रहना चाहिए |*