
*मानव जीवन में पवित्रता का बहुत बड़ा महत्त्व है | प्रत्येक मनुष्य स्वयं को स्वच्छ एवं पवित्र रखना चाहता है | नित्य अनेक प्रकार से संसाधनों से स्वयं के शरीर को चमकाने का प्रयास मनुष्य द्वारा किया जाता है | क्या पवित्रता का यही अर्थ हो सकता है ?? हमारे मनीषियों ने बताया है कि प्रत्येक तन के भीतर एक मन भी होता है | मानव मन एक दर्पण की तरह होता है | समय के साथ इस मन रूपी दर्पण पर अनेक दुर्गुण रूपी धूल चढ़ जाती है और यह स्वच्छ दर्पण गन्दा हो जाता है | जिस प्रकार मनुष्य अपने शरीर को मल मल कर साफ करके पवित्र बनाने में लगा रहता है उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य को अपने मन को भी साफ करके पवित्र बनाये रखने का प्रयास करते रहना चाहिए | एक प्रश्न हृदय में कौंधता है कि आखिर मन की पवित्रता क्या है ?? इस विषय पर हमारे धर्म शास्त्रों में निर्देश मिलता है जो मनुष्य के मन पर काम , क्रोध , मोह , अहंकार , मत्सर , छल , कपट रूपी धूल जब पड़ जाती है तो यह मन मैला हो होकर के इन दुर्गुणों से प्रेरित होकर के सारे कर्म करता है | सद्गुरुओं से प्राप्त सद्गुण रूपी साबुन से मलमल करके इन अवगुणों को साफ करना ही मन की पवित्रता का द्योतक है | जब तक मनुष्य का मन पवित्र नहीं होगा तब तक उसकी उन्नति संभव नहीं है | वेदों में कहा भी गया है :- "पवमानस्य ते वयं पवित्रं अभ्युदन्त: ! सखित्वं आ वृणीमहे !!" अर्थात :- ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि - हे परमेश्वर ! हम अपने मन को सर्वप्रथम शुद्ध पवित्र बनाते हुए फिर आगे जाकर आपकी आज्ञा का पालन रूप भक्ति करके अपने जीवन को विकसित करके प्रगति की ओर ले जाते हुए आपके साथ हम मित्रता को प्राप्त होना चाहते हैं | कहने का तात्पर्य है कि सर्वप्रथम मनुष्य को अपने हृदय में त्याग , अहिंसा , करुणा , परोपकार एवं सद्चर्या रूपी गुणों के द्वारा मन को पवित्र करना चाहिए | इसके लिए मनुष्य को आध्यात्मिक जगत की यात्रा करनी पड़ेगी यहीं से मन की पवित्रता का मार्ग प्रशस्त हो सकता है | समाज में अनेकों अवगुण दिखाई पड़ रहे हैं जिनसे प्रेरित होकर के मनुष्य अनेकों पाप कर्म करता रहता है | समाज को सही दिशा देने के पहले मनुष्य को स्वयं के मन को पवित्र बनाना होगा | जब मनुष्य स्वयं में ईश्वरीय गुणों को धारण करेगा तो स्वाभाविक है कि बुरे कर्मों से अपने आप बच जाता है और उसके जीवन में दिव्यता , भव्यता का आगमन हो जाता है | प्राय: सभी कथा जानते हैं कि :- "देवराज इंद्र ने वृत्रासुर का वध किया था इसको यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाय तो जीवात्मा ही इंद्र है और पाप भावनाएं ही वृत्रासुर है | जीवात्मा द्वारा अपने हृदय में व्याप्त पाप भावनाओं का वध करके ही अपने मन को पवित्र किया जा सकता है |*
*आज समाज में अनेक प्रकार की बुराइयां व्याप्त है जिधर दृष्टि घुमाओ अनाचार , अत्याचार , पापाचार ही दृष्टिगत होता है | इसका कारण मनुष्य के मन की अपवित्रता ही है | आज मनुष्य का मन काम , क्रोध , मद , लोभ , अहंकार आदि से ग्रसित होकर के एक दूसरे के प्रति द्वेष पूर्ण भावना स्वयं में पाले हुए है | मनुष्य को पतित करने वाला मुख्य अवगुण है काम भावना | काम वासना से ग्रसित होकर के मनुष्य ऐसे ऐसे कृत्य कर देता है कि वह स्वयं के साथ-साथ समाज को भी लज्जित कर देता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज समाज में देख रहा हूं कि अनेक लोग समाज सुधार एवं जनकल्याण करने का बीड़ा उठाए हुए समाज में घूम रहे हैं , जो कार्य तो समाज सुधार का कर कर रहे हैं परंतु उनकी स्वयं की भावना पवित्र नहीं होती | थोड़ा विचार करना चाहिए कि जब मनुष्य स्वयं का सुधार नहीं कर पाएगा , स्वयं के मन को पवित्र नहीं बना पाएगा तो समाज का सुधार क्या करेगा ?? बड़े-बड़े मंचों से मन को पवित्र बनाए रखने का प्रवचन करने वालों का मन कितना पवित्र है यह उनके क्रियाकलापों से स्पष्ट झलकता है | जब तक मनुष्य अपने मन के अंदर स्थित सभी दुर्गुणों , दुर्विचारों और दुर्गुणों को दूर करके स्वयं के मन को पवित्र नहीं करेगा तब तक वह समाज को सुधारने का दिखावा मात्र कर रहा है | जब व्यक्ति स्वयं में सुधार करने लगे , स्वयं के मन को पवित्र बना करके कार्य करने लगे तब यह समझ लेना चाहिए वह समाज का सुधार करने के योग्य हो सकता है | मनुष्य के द्वारा जो भी कार्य होता है वह सबसे पहले मन में ही साकार रूप लेता है तब वाणी के माध्यम से साकारता को प्राप्त होता है | संसार के समस्त कार्य मन के द्वारा ही संचालित होते हैं , तो सर्वप्रथम मन को पवित्र बनाए रखना बहुत आवश्यक है जो कि आज के युग में मनुष्य नहीं कर पा रहा है | शरीर को चमकाने वाले मनुष्य ने अपने मन को इतना गंदा कर दिया है , उस पर इतनी धूल चढ़ गई है कि वह स्वयं चाह कर भी उसे नहीं साफ कर पा रहा है , इसीलिए समाज में चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है | यदि चाहते हैं कि समाज सकारात्मकता के साथ जीवन जिये तो प्रत्येक मनुष्य को अपने मन को पवित्र करना पड़ेगा |समाज को सुधारने के पहले प्रत्येक व्यक्ति को शांत चित्त होकर केवल अपने ही सुधार में प्रयासरत होना चाहिए क्योंकि जब मनुष्य अपने मन को शुद्ध एवं पवित्र बनाने में सफल हो जाएगा तो समाज का सुधार अपने आप हो जाएगा |*
*मन की पवित्रता का वर्णन कर पाना असंभव तो नहीं परंतु कठिन अवश्य है | छल , कपट , छिद्रान्वेषण आदि अवगुणों का त्याग करके ही मन को निर्मल एवं पवित्र बनाया जा सकता है |*