*इस धरा धाम पर सर्वश्रेष्ठ मानवयोनि को कहा गया है |मानव जीवन में आकर के मनुष्य अपने बुद्धिबल का प्रयोग करके अनेकों प्रकार के रहस्य से पर्दा हटाता है | मानव जीवन को उच्चता की ओर ले जाने के कृत्य इसी शरीर में रहकर के किए जाते हैं | मनुष्य के जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता है ईश्वर प्राप्ति | ईश्वर को प्राप्त करने के लिए मनुष्य जीवन भर अनेकानेक उपाय किया करता है परंतु वह परमात्मा के रहस्य में ही उलझा रह जाता है , जबकि सत्य यह है कि ईश्वर को ढूंढने कहीं भी नहीं जाना है | इस मानव शरीर को ही वेदों में मंदिर की संज्ञा दी गयी है | मानव शरीर रूपी मंदिर में जीवात्मा रुपी परमात्मा विराजमान होता है | हमारे ऋषि महर्षियों ने अपने हृदय रूपी मंदिर में विराजित परमात्मा के प्रति पूर्ण आस्था रखते हुए दिव्य ज्योति जागृत की थी | इसी शरीर को साधन मानकर के हमारे पूर्वजों ने साधना की थी और अपने उस साधना के फलस्वरूप अनेक सिद्धियां मानव मात्र के कल्याण के लिए प्राप्त की थीं | इस शरीर को साधना का धाम एवं मोक्ष का द्वार बताया गया है | मानव शरीर इसीलिए दिव्य है क्योंकि इसके माध्यम से इस संसार में कुछ भी अप्राप्त नहीं है | जहां अन्य योनियाँ मात्र भोजन एवं विचरण करके समस्त जीवन व्यतीत कर देती हैं वही मनुष्य इस सुंदर शरीर को प्राप्त करके अनेकानेक कृत्य करता रहता है | कहने का तात्पर्य यह है कि मानव शरीर की उपयोगिता सर्वश्रेष्ठ है , आवश्यकता है इस शरीर के रहस्य को जानने की | सनातन धर्म एक ऐसा दिव्य संग्रहालय हैं जहां जीवन के पहले , जीवन में एवं जीवन के बाद के रहस्यों को उद्घाटित किया गया है | सनातन धर्म के धर्मग्रंथों ने मानव जीवन की अनेक गुत्थियां सुलझायी हैं | मानव शरीर में कितना रक्त है ? कितनी मज्जा है ? कितने रोम छिद्र है ? इन सब का विस्तृत विवरण वेदव्यास जी द्वारा रचित गरुड़ पुराण में देखने को मिलता है | सनातन धर्म ने मानव जीवन में घटित होने वाले समस्त क्रियाकलापों के अतिरिक्त जीवन के बाद की यात्रा का भी विस्तृत वर्णन किया है | इस मनुष्य शरीर को मंदिर की संज्ञा सनातन धर्म में ही देखने को मिलती है परंतु आज मनुष्य अपने शरीर के रहस्य को ना जान करके अन्य रहस्यों को जानने के लिए लालायित रहता है |*
*आज के वैज्ञानिक युग में मनुष्य ने प्रगति तो बहुत कर ली है परंतु यह भी सत्य है कि आज का विज्ञान सनातन धर्म से अभी भी बहुत पीछे हैं | मनुष्य आज कोई भी कार्य करता है तो उसमें दिखावा अधिक होता है जबकि यथार्थता नाम मात्र को दिखाई पड़ती है | आज प्रत्येक मनुष्य दु:खी दिखाई पड़ रहा है तो उसके दु:खों के कई कारण भी है | अपने दु:खों को मिटाने के उद्देश्य से मनुष्य देश के एक कोने से दूसरे कोने तक मंदिरों की परिक्रमा किया करता है परंतु मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि मनुष्य के द्वारा मंदिरों की चौखट चूमने के बाद भी उनके दु:ख में कोई कमी नहीं दिखाई पड़ रही है | इसका कारण क्या है ? इस पर कोई विचार नहीं करना चाहता है | यदि इन कारणों पर विचार किया जाय तो एक ही परिणाम निकल कर समक्ष आता है कि मनुष्य अपने शरीर रूपी मंदिर मैं परमात्मा को स्थान नहीं दे पाता और कृत्रिम मंदिरों में जाकर के देव मूर्तियों के समक्ष अपना दुखड़ा रोना चाहता है | मानव शरीर स्वयं में एक मंदिर है और इस शरीर के केंद्र में बैठा हुआ जीवात्मा ही परमात्मा का अंश है , जब तक अपने हृदय में परमात्मा का दर्शन नहीं किया जाएगा तब तक कितने भी तीर्थ कर लिए जाएं , मंदिरों में जाकर दर्शन कर लिया जाय मनुष्य को इसका फल नहीं मिलने वाला है | दूसरी बात परमात्मा उसी के हृदय में प्रकट हो सकता है जिसका मन निर्मल हो , परंतु आज मनुष्य के हृदय में परमात्मा के स्थान पर छल , कपट , द्वेष , पाखण्ड आदि प्रपंचों ने स्थान बना रखा है | जिस दिन मनुष्य अपने शरीर को मंदिर मान करके उस मंदिर के केंद्र अर्थात हृदय में परमात्मा का दर्शन करने लगेगा उस दिन उसको अन्य मंदिरों में जाने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी , परंतु आज यही कोई ना तो कर पा रहा है और ना ही करना चाहता है | यही मनुष्य के दु:ख का कारण है |*
*मानव शरीर ब्रह्मांड का दूसरा रूप है जो कुछ भी ब्रह्मांड में व्याप्त है वह सब इस मनुष्य शरीर में भी विद्यमान हैं परंतु हम इसे नहीं जान पाते हैं क्योंकि हमने कभी इसको जानने का प्रयास ही नहीं किया है |*