*मनुष्य अपने जीवनकाल में अनेक प्रकार के मार्गदर्शक एवं गुरुओं की शरण में जाता है परंतु इन सबसे पहले जब मनुष्य इस संसार में आता है तो जिस प्रथम गुरु से उसका सामना होता है उसे इस सृष्टि में माँ कहा जाता है | बालक का प्रथम क्रीड़ास्थल माता की गोद की होती है , शास्त्रों में माता को बालक का प्रथम गुरु कहा गया है , इसके पीछे यही तथ्य अन्तर्निहित है कि माता ही सर्वप्रथम बालक को आचार - व्यवहार की शिक्षा देती हैं इसके साथ ही संसार की वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कराती है | प्रारंभिक पाँच - छह वर्षों तक बालक में जो व्यक्तित्व और रुचि - रुझान विकसित होते हैं वही आगे चलकर जीवन में प्रसारित होते हैं और प्रारंभिक पाँच - छ: वर्षों तक बालक पाठशाला नहीं जाता है बल्कि अपने माता के पास ही रह करके संसार को जानने समझने का प्रयास करता है | यही वह समय होता है जब विचारवान माता बालकों के मन में सद्विचारों का बीजारोपण करने के साथ-साथ सामाजिकता के विषय में भी ज्ञान प्रदान करने का प्रयास करती हैं | जन्म लेने के बाद बालक वैसे तो अपने पूरे परिवार के साथ घुलता मिलता है परंतु उसकी जैसी घनिष्ठता माता के साथ स्थापित हो जाती है ऐसी किसी अन्य के साथ नहीं हो पाती इसीलिए माता को जीवन की प्रथम गुरु एवं पाठशाला कहा गया है | माँ बालक को संस्कारी तभी बना जा सकती है जबकि वह स्वयं संस्कारी हो | विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जितने भी महापुरुष हुए हैं उनके निर्माण और उत्थान में उनकी माता का प्रथम हाथ रहा है | माता जैसा चाहे वैसे अपने पुत्र को बना सकती है क्योंकि नन्हा बालक कच्ची मिट्टी की तरह होता है और माता कुम्हार के रूप में उसे नया रूप प्रदान करने वाली कहीं गई है , इसलिए बालक में संस्कार आरोपित करने का प्रथम दायित्व माता का ही होता है | माताएं चाहें तो अपने पुत्र को राम , कृष्ण , शिवाजी आदि बना सकती हैं और यदि माताएं स्वयं संस्कारी नहीं हैं तो उनके बालक रावण , कंस एवं हिरणाकश्यप जैसे हो जाते हैं | हिरणाकश्यप की पत्नी कयाधू ने दैत्यकुल में रहते हुए भी अपने पुत्र को ऐसे संस्कार दिए कि वह भक्त शिरोमणि हो गया और आज भी लोग प्रहलाद का नाम बड़ी ही श्रद्धा से लेते हैं | कहने का तात्पर्य है कि समाज की धुरी माता ही होती है क्योंकि माता सृजनकर्ता है वह जैसा चाहे वैसा निर्माण कर सकती है | माताओं की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है अपने पुत्रों के चरित्र निर्माण की | देश की दिशा / दशा कैसी होगी यह वहां के शासकों पर निर्भर करता है और शासक का चरित्र कैसा है इसका निर्धारण उसकी माता के द्वारा होता है , इसलिए माताओं को अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन पूर्ण ईमानदारी से करते हुए अपने बच्चों को संस्कारी बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए |*
*आज समाज से संस्कारों का लोप हो रहा है तो उसका एक कारण होने वाली संतानों का पालन पोषण भी है | आज की माताओं के पास अपनी संतान को देने के लिए समय ही नहीं है | आया एवं नौकरानी के भरोसे अपने बच्चों को छोड़कर स्वयं नौकरी करने के लिए निकल जाने वाली माताएं अपने बच्चों को क्या शिक्षा देंगी क्या संस्कार ? यह विचारणीय विषय है | बालक उद्दंडता करता है को माता उसे स्नेहवश कुछ नहीं कहती इसका परिणाम होता है कि बालक धीरे-धीरे उद्दंड हेता चला जाता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि बालक के मनोभावों को समझना बहुत आवश्यक है और यह कार्य माता ही कर सकती है | बालक के अन्तर्द्वन्दों को समझना उसके अंतर्मन में उत्पन्न हो रही कुंठाओं को जानना तथा उसे कुशलता पूर्वक दूर करना एक माता का परम दायित्व होता है | एक बालक के अंतर्मन को समझ पाना किसी अन्य के बस की बात नहीं | बाल्यावस्था में उत्पन्न हुई कुंठा यदि समय से ना दूर कर दिया गया तो वह कुण्ठा आजीवन बनी रहती हैं जिसके परिणाम भी घातक देखने को मिलते हैं | यहां पर माता एक कुशल चिकित्सक की भांति अपने बालक के मनोमस्तिष्क में उत्पन्न किसी भी प्रकार की कुंठा की शल्य चिकित्सा अपने ममत्व एवं प्रेम के साथ बड़ी कुशलता पूर्वक कर सकती है | इससे समाज में होने वाले अपराधों पर तो अंकुश लगेगा ही साथ बालक भी संस्कारवान हो करके समाज में स्थापित होगा | समाज को संस्कारी बनान माताओं के लिए योगदान को नहीं भुलाया जा सकता यदि सभी माताएं अपने इस कर्तव्य का निर्वहन ईमानदारी के साथ करें तो समाज कभी दिशाहीन नहीं हो सकता |*
*आज का बालक कल का नागरिक है इस बात का ध्यान रखते हुए माताओं को अपने बालकों में संस्कार का आरोपण करना चाहिए | यदि माताएं अपने बालक को संस्कारी बनाकर समाज में प्रस्तुत करती हैं तो उसे उच्च शिखर पर आरूढ़ होने से कोई भी नहीं रोक सकता |*