*मानव जीवन विभिन्न विचित्रताओं से भरा हुआ है | पूरे जीवन काल में मनुष्य के साथ उसके मिलने वाले , परिवार वाले या सगे संबंधी अनेक प्रकार के व्यवहार करते हैं | यदि उसकी प्रशंसा होती है एक समय ऐसा भी आता है कि उसके कृत्यों की निंदा भी होती है | ऐसी परिस्थितियां प्राय: सबके सामने आती है परंतु लोग अपनी निंदा को सुनकर के दुखी और उदास हो जाते हैं क्योंकि मनुष्य अपने लिए प्रशंसा ही सुनना चाहता है | अपनी निंदा किसी को भी अच्छी नहीं लगती है | किसी भी व्यक्ति में अनेक दुर्गुण क्यों ना भरे हों परंतु उसे अपनी कमियां दिखाई नहीं देती और कोई उसको उसकी कमी बताता भी है तो उसके लिए स्वयं को नहीं बल्कि परिस्थितियों को जिम्मेदार ठहरा देता है | अपने स्वभाव के वशीभूत हो करके बार-बार गलतियां करने के बाद भी मनुष्य उसे अपनी गलती ना मान करके अनदेखा करने का प्रयास करता है और इसके साथ ही वह अपने मित्रों , परिवारी जनों एवं परिचितों से भी यह अपेक्षा करता है कि लोग उसकी गलतियों को उसको बताएं | यह अकाट्य सत्य है कि मनुष्य को अपनी कमियां , अपनी त्रुटियां बहुत ही कम दिखाई देती हैं और यदि अपनी कमियों को जान भी लेता है तो उसे अनदेखा कर देता है यहीं यदि किसी के द्वारा उनकी इन कमियों को इंगित किया जाता है तो वह इसे सहन नहीं कर पाते हैं और अनेक प्रकार की टिप्पणियां करने लगते हैं | मनुष्य एक मजबूत विचार एवं शरीर का प्राणी है जीवन काल में जिस प्रकार अनेक प्रकार की कमजोरियां मनुष्य को घेरती रहती है उसी प्रकार अपनी निंदा या आलोचना को ना सहन कर पाना भी एक प्रकार की कमजोरी ही कही जाएगी इस कमजोरी से सभी को बचने का प्रयास करना चाहिए | प्रत्येक मनुष्य अपनी प्रशंसा सुनना तो पसंद करता है किंतु निंदा या आलोचना से बचना चाहता है जबकि सत्य यह है कि प्रशंसा निन्दा एवं आलोचना का ही दूसरा रूप है | दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं | जो व्यक्ति जिसने प्रसन्न चित्त और चर्चित होते हैं उनकी उतनी ही निंदा आलोचना भी होती है | अपनी निंदा को सुनकर के यदि व्यथित ना हुआ जाय तो उससे मनुष्य की सहनशीलता में वृद्धि होती है और हमारे मनीषियों ने कहा है की यदि किसी व्यक्ति की निंदा या आलोचना होने लगे तो उस व्यक्ति को अपनी कृत्यों का पुनरावलोकन करने की आवश्यकता है जिससे कि दोबारा लोगों को उसकी निंदा करने का अवसर न मिले |*
*आज समाज जो स्थिति है वह बहुत ही भयावह कही जा सकती है | आज लोग नकारात्मक कृत्यों में लिप्त हैं परंतु उनको फिर भी समाज से अपनी प्रशंसा सुनने की ललक बनी रहती है और किसी के द्वारा यदि उसकी निंदा कर दी जाती है उसे अपना दुश्मन मान लेता है और उसके प्रति दुर्भावना अपनेू हृदय में पाल लेता है | जबकि निंदा / आलोचना से रुष्ट होकर प्रतिकार लेने की भावना को हृदय में स्थान देने की अपेक्षा उसका रचनात्मक उपयोग करने की ही बात सोचनी चाहिए | इसी में भला है और इसी में ही हित है | यदि निंदा / आलोचना को सहज भाव से स्वीकार किया जाय तो मनीषियों का कथन है कि इससे दुर्गुणों का नाश हो जाता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है यदि वास्तव में व्यक्ति अपनी निन्दा को सकारात्मक भाव से स्वीकार करने लगे तो इसमें कोई अहित उसके साथ नहीं होता है | कई बार तो यह निन्दा ही अपने प्रकट दोषों की ओर इंगित करती है तथा उन्हें सुधारने की प्रेरणा देती है , तो कई बार जब व्यक्ति की आलोचना निंदा की जाती है तो वह मुख्य बिंदुओं की ओर से सतर्क करती है | संस्कृत व्याकरण के सूत्रधार पाणिनि ने निंदा को ग्यारहवां रस बताया है | आज समाज में अपनी निंदा को न सहन कर पाने के कारण आपसी वैमनस्यता एवं प्रतिकार लेने की भावना तीव्रता से फैल रही है | निंदा को सदैव सकारात्मक रूप से लेना चाहिए इसीलिए कहा गया है :--- "निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय ! बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय" !! निन्दा या आलोचना मनुष्य को निखारने का कार्य करती है बस इसे सकारात्मक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है , परंतु आज सकारात्मक देखने वाले बहुत कम ही दिखाई पड़ते हैं | निंदा को भी सरलता से सहना सीखना चाहिए | जो भी निंदा को सहजता से सह लेते हैं वही अपने जीवन में कुछ कर पाने में सक्षम हो जाते हैं |*
*अपनी निंदा सुन कर मनुष्य को प्रतिकार लेने की अपेक्षा आत्म परिष्कार करने का प्रयास करना चाहिए | प्रत्येक मनुष्य को निंदा के प्रकाश में अपने दुर्गुण / दोषों को ढूंढने का प्रयास करना चाहिए इससे मनुष्य के जीवन में निखार आ सकता है |*