*हमारे
देश भारत में कई जाति / सम्प्रदाय के लोग रहते हैं | कई प्रदेशों की विभिन्न संस्कृतियों / सभ्यताओं का मिश्रण यहाँ देखने को मिलता है | सबकी वेशभूषा , रहन - सहन एवं भाषायें भी भिन्न हैं | प्रत्येक प्रदेश की अपनी एक अलग मातृभाषा भी यहाँ देखने को मिलती है | हमारी राष्ट्रभाषा तो हिन्दी है परंतु भिन्न - भिन्न आंचलिक क्षेत्रों में बोली जाने वाली
भाषा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है | इसे ही मातृभाषा कहा जाता है | जन्म लेने के बाद मनुष्य अपने परिवार में जो पहली भाषा सीखता है वही उसकी मातृभाषा कहलाती है | मातृभाषा किसी भी व्यक्ति के परिवेश के साथ ही सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है | मातृभाषा मात्र संवाद ही नहीं अपितु संस्कृति और संस्कारों की संवाहिका है | भाषा और संस्कृति केवल भावनात्मक विषय नहीं, अपितु देश की शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी विकास से जुड़ा है | मातृभाषा के द्वारा ही मनुष्य
ज्ञान को आत्मसात करता है, नवीन सृष्टि का सृजन करता है तथा मेधा, पौरूष और ऋतम्भरा प्रज्ञा का विकास करता है | किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी भाषा और उसकी संस्कृति से होती है | विचारों एवं भावनाओं की अभिव्यक्ति तो मूलतः मातृभाषा में ही होती है | मातृभाषा सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना की पूर्ति का महत्वपूर्ण घटक है | बच्चे को उसी भाषा में प्रारम्भिक शिक्षा दी जाती है जिस भाषा में उसके माता-पिता, दादा-दादी, भाई-बहन व परिवार के सदस्य बातें करते हैं | भाषा भावनाओं और संवेदनाओं को मूर्तरूप दिए जाने का माध्यम है न कि प्रतिष्ठा का प्रतीक | विश्व के अन्य देशों में मातृभाषा की क्या स्थिति है, इसका वैचारिक और व्यावहारिक विश्लेषण करते हैं तब ज्ञात होता है कि विविध राष्ट्रों की समृद्धि और स्वाभिमान की जड़ें मातृभाषा से सिंचित हो रही हैं | राष्ट्र की क्षमता और राष्ट्र के वैभव के निर्माण में मातृभाषा का महत्वपूर्ण योगदान है | संस्कार, साहित्य- संस्कृति, सोच, समन्वय, शिक्षा, सभ्यता का निर्माण, विकास और उसका वैशिष्ट मातृभाषा में ही संभव है |* *आज प्रत्येक भारतवासी अपनी मातृभाषा का त्याग करने के लिए उतावला सा प्रतीत होता है | प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद छात्र जैसे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यालय में प्रवेश लेता है वह अपनी मातृभाषा , राष्ट्रभाषा मैं बात करना अपना अपमान समझने लगता है | अपनी आंचलिक भाषा , पारिवारिक भाषा का त्याग करके वह या तो खड़ी बोली या फिर अंग्रेजी भाषा का प्रयोग बड़ी शान से करता है | ऐसा करके उसे लगता है कि वह विशेष व्यक्ति बन गया है जबकि सच्चाई है वह अपनी मातृभाषा तक का त्याग करके अपनी पहचान तक खोने लगता है | किसी की मातृभाषा को सुनकर उसके परिवेश या उसके
समाज का अंदाजा लगाया जा सकता है , परंतु जब मनुष्य अपनी मातृभाषा का त्याग कर देता है तो उसे पहचान पाना मुश्किल हो जाता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" सभी भारतवासियों से यही कहना चाहूंगा कि आप अपने कार्यालय में चाहे जिस भाषा का प्रयोग करें परंतु अपने समाज में अपनी मातृभाषा का त्याग करके विशेष बनने का प्रयास न करें नहीं तो कुछ भी शेष नहीं रह जाएगा | अपनी मातृभाषा के विषय में एवं उसके महत्व के विषय में लिखते हुये भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने कहा है :- "निज भाषा उन्नति अहै सब भाषा को मूल" अतः इस मूल को बचाए रखने के लिए समय-समय पर समाज में मातृभाषा पर आधारित कार्यक्रम एवं प्रतियोगिताएं भी आयोजित करने की आवश्यकता आज आवश्यक दिखाई पड़ रही है |* *जिस प्रकार शेर की खाल को और करते गीदड़ शेर नहीं बन सकता उसी प्रकार हम अपनी मातृभाषा का त्याग करके अंग्रेज बन सकते हैं | इसका ध्यान सबको रखना चाहिए |*