*जब परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की तो सबसे पहले नर - नारी के जोड़े को उत्पन्न किया | नर - नारी की सृष्टि करने के बाद मैथुनी सृष्टि की आधारशिला रखते हुए परमात्मा ने सृष्टि को गतिमान किया | पुरुष को पिता एवं नारी का माँ की संज्ञा दी गयी | जब प्रथम जीव उस माँ के गर्भ में आया तब उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि हे भगवन ! आप हमें संसार में भेज रहे हैं वहाँ हमारी चिन्ता , हमारी देखभाल कौन करेगा ? तब परमात्मा ने जीव को आश्वस्त करते हुए कहा :- हे जीव ! संसार में तुम्हारे जन्म लेने के पहले ही हमने तुम्हारी देखभाल करने के लिए अपनी प्रतिनिधि के रूप में एक सुंदर ममता की मूर्ति , दिव्य त्यागमयी , देवी को धराधाम पर भेज दिया है , जो तुम्हें अपने प्राणों से अधिक मानेगी ! उसी देवी के उदर से तुम्हारा जन्म होगा और यह सकल संसार उसे माँ के नाम से जानेगा | उसी दिव्य मूर्ति (माँ) को आधार बनाकर परमात्मा इस सृष्टि को गतिमान करने में सफल हुआ | ईश्वर का दूसरा रूप होती है माँ | जीवन में आये अनेक संकटों का सामना स्वयं करके अपने शिशु को उन संकटों से दूर रखना माँ का प्रथम कर्तव्य है | प्रसवकाल की असह्य पीड़ा को सहकर एक नये जीव को जन्म देने वाली माँ ही इस सृष्टि का आधार है | सनातन धर्म के अनुसार मनुष्य पर तीन ऋण होते हैं :- ऋषिऋण , देवऋण एवं पितृऋण ! मनुष्य इन तीनों ऋणों से तो मुक्त भी हो जाता है परंतु माता के ऋण से उऋण होना सम्भव नहीं है | हमारे यहाँ माता को देवी मानकर उसकी पूजा करने की परम्परा रही है | विचार कीजिए कि यदि माँ न होती तो क्या इस संसार में किसी का जन्म हो सकता था ? पुरुष प्रधान समाज ने मातृशक्तियों के सहयोग से ही सृष्टि को सुंदर बनाया | पूर्वकाल में जहाँ माता को सम्मान देकर उसे देवी कहा जाता था वहीं आज परिवेश परिवर्तित हो गया है | भगवान श्रीराम ने कहा था :- "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" अर्थात माँ एवं मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है | विचार कीजिएगा कि यहाँ पिता को न कहकर माता को ही सम्मान दिया गया है | माता का स्थान इतना ऊँचा है कि जब भी भगवान को अवतार लेना पड़ा तब उन्होने ने भी इसी माता का आश्रय लेकर उसी दिव्य मूर्ति के ममतामयी आँचल में पलकर बड़े हुए | कहने का तात्पर्य यह है कि माता के उपकारों को उसकी सेवाओं को किसी दायरे में नहीं बाँधा जा सकता | माता नित्य पूज्यनीय है इसीलिए हमारे यहाँ "मातृदेवो भव" की उद्घोषणा की गयी है |*
*आज हम पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से इतना प्रभावित हो रहे हैं कि अपनी सनातन संस्कृति को भूलते जा रहे हैं | आज पश्चिमी जगत में माता के सम्मान में "मातृदिवस" मनाया जा रहा है | उन्हीं की राह पर चलकर भारत में भी यह पर्व मई महीने के दूसरे रविवार अर्थात आज "मातृदिवस" मनाने की परम्परा चल पड़ी है | आज मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" विचार करता हूँ कि क्या माता के लिए वर्ष में एक दिन विशेष मनाकर मनुष्य के कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है ? जिस माँ ने नौ महीने अपने गर्भ में रखकर मृत्युतुल्य कष्ट सहकर पुत्र को जन्म दिया है , उस माँ के लिए क्या एक दिन ही सम्मान रूप में मनाया जाना उचित है ? जिस माँ का सम्मान प्रतिदिन होना चाहिए उस माँ के लिए "मातृदिवस" मनाने की आवश्यकता आज क्यों पड़ रही है ? पश्चिमी देशों में जहाँ माता पिता के वृद्ध हो जाने पर उन्हें बेकार की वस्तु समझकर उन्हें वृद्धाश्रम में भेज दिया जाता है वहाँ कभी मातृदिवस तो कभी पितृदिवस मनाकर उनके प्रति अपने झूठे प्रेम का प्रदर्शन करते हैं | परंतु हमारी यह परिपाटी नहीं रही है | परंतु समय परिवर्तन के साथ आज हम पश्चिमी देशों की नकल करने में इतने ज्यादा मस्त हो गये हैं कि अपनी संस्कृति को भी भूलते जा रहे हैं | हमारे यहाँ माता के सम्मान को किसी "मातृदिवस" की आवश्यकता नहीं थी परंतु आज की सन्ताने जो अपने माता पिता को वृद्धाश्रम में छोड़कर चले आ रहे हैं वे "मातृदिवस" मनायें या न मनायें | आज जो लोग बड़े मंचों पर माता के सम्मान में भाषण देते हैं वही मंच से उतरने के बाद उन माताओं को सम्मान नहीं दे पाते हैं | यह मातृ दिवस , पितृदिवस , बेटी दिवस , महिलादिवस आदि हमारे देश की परम्परा नहीं रही है क्योंकि हमारे यहाँ माता - पिता , बहन - बेटी आदि नित्य सम्मानीय एवं पूज्यनीय है | पाश्चात्य संस्कृति से स्वयं को बचाते हुए अपनी संस्कृति को बचाये रखने के लिए आज पुन: जन जागरण की आवश्यकता है |*
*सम्पूर्ण विश्व में आज "मातृदिवस" मनाया जा रहा है ! वैसे तो मैं इसका अनुयायी कदापि नहीं हूँ परंतु फिर भी सृष्टि की समस्त मातृशक्तियों को शत शत प्रणाम ! नमन !! वन्दन !!!*