*परमात्मा की बनाई हुई इस सृष्टि को सुचारु रूप से संचालित करने में पंचतत्व एवं सूर्य , चन्द्र का प्रमुख योगदान है | जीवों को ऊर्जा सूर्य के माध्यम से प्राप्त होती है | सूर्य की गति के अनुसार ही सुबह , दोपहर एवं संध्या होती है | सनातन
धर्म में इन तीनों समय (प्रात:काल , मध्यान्हकाल एवं संध्याकाल ) का विशेष महत्व प्रतिपादित करते हुए मनीषियों ने त्रिकालसंध्या के नियम बनाये हैं , जिसमें सूर्य को प्राणदाता मानकर सूर्योपासना का विधान बताया है | प्रात:काल जब सूर्योदय होता है तब वह सारे संसार को बहुत प्यारा एवं दर्शनीय होता है , और लगभग सभी प्राणी उसके
दर्शन को लालायित रहते हैं | परंतु जैसे - जैसे वह चढने एवं मध्यान्हकाल की ओर अग्रसर होने लगता है लोगों का उसके प्रति मोहभंग होने लगता है और कोई उसकी ओर देखना नहीं चाहता क्योंकि तब वह आग बरसाने वाला एवं संसार को अपनी ज्वाला से तपाने वाला हो जाता है | मध्यान्ह काल के सूर्य से प्रत्येक प्राणी बचने का ही प्रयास करता रहता है , परंतु थोड़े समय के बाद जब सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर होता है और संध्याकाल का समय होने वाला होता है तो लोग कहते हैं कि अब ये जाने वाले हैं , बहुत तपे | कहने का तात्पर्य यह है कि इस सकल सृष्टि में जो भी आया है वह चाहे जितना लोगों को तपा ले एक दिन यहाँ से जाना ही पड़ता है | यहाँ एक बात और विचारणीय है कि जहाँ ग्रीष्मऋतु के मध्यान्हकाल का सूर्य दुखदायी होता है वहीं शीतऋतु का सूर्य सबके लिए सुखद होता है |* *आज मानव जीवन के विषय में विचार करने पर यह हमें सूर्य की भाँति ही लगता है | जहाँ सूर्य दिन भर में विशेष तीन कालों से होकर अपनी
यात्रा पूरी करता है वहीं मनुष्य भी अपने पूरे जीवनकाल में इन्हीं तीनों काल (बाल्यावस्था , युवावस्था एवं वृद्धावस्था ) से बंधा हुआ है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मत है कि जिस प्रकार प्रात:काल का सूर्य दर्शनीय होता है उसी प्रकार मनुष्य जब शिशुरूप में जन्म लेता है तो वह सबको ही प्यारा लगता है , और लोग तो यहाँ तक कह देते हैं कि बच्चे भगवान का स्वरूप होते हैं | अपने विकास क्रम में जब बालक अपने मध्यान्हकाल (युवावस्था) की ओर बढता है तो उसके प्रति लोगों का आकर्षण कम होने लगता है | यदि वह अपनी युवावस्था में अपने कर्मों के द्वारा ग्रीष्मकालीन सूर्य की तपाने वाला हो जाता है तो लोग उसे देखना भी पसंद नहीं करते हैं , परंतु यदि वह शीतकालीन सूर्य की भाँति सौम्य बना रहता है तो सबको ही प्रिय होता है | मनुष्य चाहे जितना दुर्दान्त हो एक दिन उसे भी अस्ताचल में (मृत्युलोक से) जाना ही पड़ता है | यदि जीवन के मध्यान्हकाल में वह सौम्य एव सज्जनता के साथ रहा है तब तो ठीक अन्यथा संसार के प्राणी उसके प्रति दुर्बचनों का ही प्रयोग करते देखे गये हैं | जब हम यह जानते हैं कि इस धराधाम पर जिसका उदय हुआ है उसका अस्त होना भी निश्चित है तो जीवन के मध्यान्हकाल में सौम्य ही बने रहने का प्रयास करना चाहिए जिससे कि अन्तकाल में दुर्बचन न सुनने को मिलें |* *प्रत्येक मनुष्य को ग्रीष्मकालीन सूर्य की अपेक्षा सर्वप्रिय शीतकालीन सूर्य बनने का प्रयास करते रहना चाहिए |*