खेलों में आगे आने का यदि कोई अचूक मंत्र है तो वह है ''कैच देम यंगÓÓ जिसका मतलब है छोटी उम्र में ही खेलों में रुचि रखने वाले, स्वस्थ, मजबूत शरीर च इच्छाशक्ति वाले बच्चों को चुनना । स्कूल स्तर से ही उन्हें अच्छे से अच्छा प्रशिक्षण देना, उन्हें सुविधाएं मुहैया कराना, उन्हें अच्छा कैरियर विकल्प व सुरक्षा देनी। रोजगार की गारंटी खेलों की दुनिया में ऐसे प्रतिभाशाली बच्चों को लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाह सकती है जो इस वजह से खेल छोड़ देते हैं क्योंकि खेल से उनका परिवार नहीं चल सकता है। इतना ही नहीं, जैसे हमने स्कूल, कॉलेज बनाने पर जोर दिखा है उसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी को स्वीकारा है। वैसा ही हमें खेलों में भी करना होगा। ''कैच देम यंगÓÓ की नीति की कामयाबी के लिए यह भी जरूरी है कि शिक्षा में अकादमिक के बराबर ही खेलों का भी 'वेटेजÓ रहे। बच्चे का मूल्यांकन करते वक्त खेल में उसके योगदान व उपलब्धि का वजन बढ़ाना होगा।
''29 अगस्त को, देश हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की जयंती को खेल दिवस के रूप में मनाया गया। इस अवसर पर विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि भारत में खेलों के विकास के लिए क्या किया जाए? ऐसा क्या करें भारत आर्थिक प्रगति की ही तरह खेलों में भी तरक्की करे। कैसे ओलंपिक व दूसरे विश्व खेलों में हम भी झोली भर कर पदक लाएं। कैसे आने वाली पीढ़ी यानि जेनेक्स्ट को हम स्पोटर््समैन या स्पोटर््स वुमैन में तब्दील कर सकें।ÓÓ
कभी कहावत थी- ''पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो बनोगे खराब।ÓÓ पर अब ऐसा नहीं है। पढ़-लिखकर भले ही नवाब न बन पाएं पर अगर खेल में आप शाइनआउट कर गए तो फिर तो आपकी ''बल्ले बल्ले ही है। आज खेलों में शोहरत है, पैसा है, इज्जत है और एक सोशल स्टेट्स तथा सेलिब्रेटी का रुतबा है। जाहिर है जब इस क्षेत्र में इतना कुछ है तो युवा पीढ़ी ही नहीं, बच्चे भी खेलों में कैरियर देख व बना रहे हैं।
अभी दूर है मंजिल:
अब के मां-बाप भी केवल पढ़ाई के पीछे भागने व बच्चे को केवल पढऩे या रट्टू पीर बनने पर जोर नहीं देते। अब वे भी अपने होनहार बच्चे में सचिन, विराट, वाइचुंग भुटिया, मैरीकोम या जसपाल राणा अथवा अभिनव बिंद्रा या सायना अथवा सानिया देख रहे हैैं। यकीनन खेलों की दुनिया का मान व उसकी शान बढ़ी है। पर, अब भी हालात अभी ऐसे नहीं हंै कि हम बड़ी संख्या में विश्व चैम्पियन दे सकें।
महज मनोरंजन न रहे खेल:
राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद हॉकी बर्बाद हो चुकी है। विश्व तो क्या एशिया स्तर भी हम अब नहीं ठहर पा रहे हैं। फुटबॉल बस मनोरंजन के स्तर का है, कबड्डी जैसे खेल यूरोपीय देशों की नीतियों के शिकार हो कर अंतरराष्ट्रीय, ओलंपिक व विश्व खेल या राष्ट्रमंडल खेलों से गायब हो गए हैं। कुश्ती पर भी उनकी निगाहें अच्छी नहीं हैं। यानि कहीं हम हैं नहीं और जहां हम उभरते हैं वहां अंतरराष्ट्रीय षडय़ंत्र से बाहर हो रहे हैं।
सवाल है, कि हमारे खेलों का स्तर क्यों नहीं उठ पा रहा है? स्कूल, कॉलेज, खेल विद्यालय, कोचिंग संस्थान, खेल अकादमियां सब फेल क्यों हो रहे हैं? खेलों को सही दिशा व मार्गदर्शन देने में? इस बार 29 अगस्त यानि खेल दिवस पर होने वाले आयोजनों में शायद इन प्रश्नों का समाधान ढंूढने का काम हो या न हो। पर हम आप तो यह काम कर ही सकते हैं। आइए देखें, कि क्यों पिछड़े हंै हमारे खेल।
चाहिए समपर्ण व सही नीति:
बेशक अब ''खेलोगे कूदोगे बनोगे खराबÓÓ का दौर बीत गया है, खिलाड़ी नवाब हैं, अमीर हैं, करोड़पति और लोकप्रिय हैं, अब खेलों में पैसे की कमी नहीं, पर अनेक वजहों से खराब प्रदर्शन जारी है। दरअसल खेलों पर उचित ध्यान, योजना, नीति, समर्पण व ईमानदार प्रयास की कमी के चलते हमारा प्रदर्शन लगातार गिरा है।
शिक्षा में दोयम न रहें खेल :
अभी भी सच है कि स्कूल के स्तर से हमें अच्छे खिलाड़ी नहीं मिल रहे हैं। स्कूलों का लक्ष्य अच्छी शिक्षा है जिसका मतलब उनके लिए केवल और केवल अच्छे अंक या ग्रेड तक सीमित है। वे उसी में बच्चे का भविष्य तराशते हैं, क्योंकि यहां योग्यता अर्थ केवल अकादमिक एक्सीलेंस बन गया है। अधिकतर उसी से कैरियर बनता या बिगड़ता है, उच्च पद पाने व पैसा कमाने का सीधा संबंध बनता है। जबकि खेल व खिलाड़ी केवल मनोरंजन करने के सबब बनकर रह जाते हैं, खेलों के बल पर रोजगार पाने वाले बिरले ही भाग्यशाली निकलते हैं अन्यथा तो खेलों में रमने वाले खिलाड़ी जवानी के गुजरते ही गरीबी, बेरोजगारी, अभावों के अंधेरे में खेने को विवश हैं आज भी। और जब तक ये चलेगा खेल कैसे उबर पाएंगे?
इन देशों से लें सबक:
अगर सचमुच ही हमें खेलों को बढ़ावा देना है तो हमें नाइजीरिया, ताइवान, जमैका, क्यूबा, मैक्सिको व अफ्रीकी गरीब देशों के खेल स्ट्रक्चर को अपनाना होगा। वहीं चीन, जापान, जर्मनी व यूरोपीय देशों जैसे सुविधाएं जुटानी होंगी खेेलों के लिए। अगर हम अधिक जनसंख्या को अपनी कमजोरी न बनाकर चीन की तरह ताकत में तब्दील कर पाएं तो कोई वजह नहीं कि हम भी विश्व में खेल ताकत के रूप में न उभरें।
अपनाएं 'कैच देम यंग' का मंत्र:
खेलों में आगे आने का यदि कोई अचूक मंत्र है तो वह है ''कैच देम यंगÓÓ जिसका मतलब है छोटी उम्र में ही खेलों में रुचि रखने वाले, स्वस्थ, मजबूत शरीर च इच्छाशक्ति वाले बच्चों को चुनना । स्कूल स्तर से ही उन्हें अच्छे से अच्छा प्रशिक्षण देना, उन्हें सुविधाएं मुहैया कराना, उन्हें अच्छा कैरियर विकल्प व सुरक्षा देनी। रोजगार की गारंटी खेलों की दुनिया में ऐसे प्रतिभाशाली बच्चों को लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाह सकती है जो इस वजह से खेल छोड़ देते हैं क्योंकि खेल से उनका परिवार नहीं चल सकता है। इतना ही नहीं, जैसे हमने स्कूल, कॉलेज बनाने पर जोर दिखा है उसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी को स्वीकारा है। वैसा ही हमें खेलों में भी करना होगा। ''कैच देम यंगÓÓ की नीति की कामयाबी के लिए यह भी जरूरी है कि शिक्षा में अकादमिक के बराबर ही खेलों का भी 'वेटेजÓ रहे। बच्चे का मूल्यांकन करते वक्त खेल में उसके योगदान व उपलब्धि का वजन बढ़ाना होगा।
लिंकअप हो खेल संस्थान :
एक-दूसरे से 'लिंक अप Ó वाले संस्थान बनाने होंगें जो दूसरे संस्थान से आए युवा खिलाडिय़ों की मदद करे,ं उन्हें प्रशिक्षित करें। शैक्षिक की ही तरह खेलों में भी उपलब्धि वाले बच्चों को विद्यालय, क्लस्टर, संभाग व राष्ट्रीय स्तर पर नकद पुरस्कार भी उन्हें प्रोत्साहित करेगें। उनके प्रमाणपत्रों को भी केवल उनके ही संस्थान में नहीं वरन् दूसरे संस्थानों में भी बराबर की तवज्जो दिया जाना जरूरी है। उम्दा व विश्व स्तरीय अकादमियां बनानी होंगी। पुराने व अनुभवी खिलाडिय़ों की सेवाएं लेनी होंगी इससे उन्हें भी रोगार मिलेगा व बच्चों को अच्छे व अनुभवी कोच उपलब्ध होगें।
चलें गांव की ओर:
खेलों सबसे महत्वपूर्ण है स्टेमिना व मानसिक दृढ़ता और भारत के गांवों में मजबूत शरीर के बच्चे आसानी से उपलब्ध हैं वहां की कठिन परिस्थितियों के चलते वे मानसिक रूप से भी दृढ़ होते हैं। इस न•ार से देखें तो आज भी भारतीय खेलों का भविष्य गांवों में छुपा है। बस वहां से उसे ढूंढने व पहचाने की जरूरत है। इसका मतलब यह न मानें कि शहरों में प्रतिभाएं नहीं हैं। वहां भी प्रतिभाशाली बच्चों की कमी नहीं है। कमी है तो हमारी नीति व नीयत में। इसे दूर करना होगा तभी भारत के खेल उबर व उभर जाएंगे।