भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद की अवधारणा देने वाले आचार्य नरेन्द्र देव आज जयंती के मौके पर शिद्दत के साथ याद आ रहे हैं। उनकी याद महज इतिहास की विषयवस्तु नहीं बल्कि आज के विषम हालात में वे कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं। राजनीतिक स्वार्थ लोलुपता व जातीय, सामुदायिक संघर्षों से राष्ट्र को बचाने, किसानों की आत्महत्या व कृषि से उनके पलायन को रोकने के लिए आचार्य के विचार व मार्गदर्शन आज सबसे बड़े विकल्प हैं।
आचार्य नरेंद्र देव की स्पष्ट राय थी कि हमें अपने नवयुवकों को ऐसा बनाना होगा कि धार्मिक द्वेष और शत्रुता का संप्रदाय उन पर असर न डाल सके। उन्हें लोकतंत्र और अखंड मानवता के आदर्शों की दीक्षा देनी होगी, तभी हम सांप्रदायिक सामंजस्य स्थापित कर सकेंगे। समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी आचार्य जी के इन विचारों को पुष्ट करते हुए भारतीय चिंतन, दर्शन व संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में कहा था कि ‘धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म’ लेकिन यह धर्म भिन्न-भिन्न कर्मकांड और रूढ़ियां, पूजा-पद्धतियां नहीं वरन अखंड मानवता, चिंतन व दर्शन का परिणाम है जो सृष्टि, समाज की व्यवस्था का नियम है।
लोकतांत्रिक समाजवाद के शिखर-पुरुष के लिए व्यक्ति व समष्टि दोनों अति महत्वपूर्ण हैं। सहयोग और सहकारिता उनके चिंतन का आधार है। वे कहते थे कि हमें ग्रामीण जनता में लोकतांत्रिक विचारों और व्यवहारों को विकसित करने के लिए देहातों में सहकारी आंदोलन चलाना होगा।
आज हकीकत के धरातल पर देखें तो पाते हैं कि बीते बीस साल में3 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। 2007 से 2012 के बीच 3.2 करोड़ किसानों ने खेती को अलविदा कहा और जमीन का स्वामी नगरों में निमभन स्तर का सेवक बन गया। 2011 की जनगणना के अनुसार प्रतिदिन 2500 किसान खेती छोड़ रहे हैं, प्रतिदिन 50 हजार लोग गांवों से कस्बों, शहरों में पलायन कर रहे हैं। एन.एस.एस.ओ. के अनुसार 42 प्रतिशत किसान अन्य विकल्प मिलने पर खेती छोड़ना चाहते हैं। दूसरी तरफ किसानों पर कर्ज बोझ के आंकड़े एक भयावह भविष्य की ओर इशारा कर रहे हैं।
किसानों की समस्या का केवल एक समाधान है। आचार्य का सहयोग व सहकारिता का सिद्धांत और गांधी की ग्रामीण औद्योगिकीकरण की नीति। आचार्य के सहकारिता के सिद्धांत के आधी सदी के बाद ‘इंटरनेशनल को-ऑपरेटिव एलायंस (1995)’ ने सहकारिता के सात सिद्धांतों को स्वीकार किया। राज्यसभा में सभापति के प्रति धन्यवाद प्रस्ताव पर 16 फरवरी, 1953 को लघु और अलाभकर खातेदारों को अपनी कृषि-भूमि, पशुधन तथा कृषि औजार जैसे साधनों को एकजाई करने और सहकारी कृषि अपनाने के योजना आयोग के प्रस्ताव का उल्लेख करते आचार्य नरेंद्र देव ने कहा था कि सहकारी आंदोलन की सफलता के लिए उसके प्रति जनता की निष्ठा और लगन आवश्यक है क्योंकि गरीब किसान व्यक्तिवादी होता है। भूमिहीन श्रमिक तो सहर्ष सहकारी कृषि को स्वीकार कर लेता है लेकिन आचार्य ने सतर्क किया कि , ‘मैं नहीं जानता कि ऐसी परिस्थितियों में ऐसा अनुकूल वातावरण उत्पन्न हो सकता है जिसमें सहकारी आंदोलन विकसित हो सके।’ आचार्य ने विश्वास व्यक्त किया कि इस निराशाजनक स्थिति पर काबू पाया जा सकता है बशर्ते हम किसानों में नवीन आशाएं उत्पन्न कर सकें। किसानों को आत्महत्या व पलायन से बचाने के लिए आचार्य नरेंद्र देव की सहकारी खेती के विचार को अमली जामा पहनाना जरूरी है। इस मुहिम में सबसे पहले बुंदेलखंड जैसे आपदा पीड़ित इलाके के ग्रामों को चिह्नित किया जाए जहां किसानों ने सर्वाधिक आत्महत्या की है या पलायन कर गए हैं। इसके बाद ग्राम समूहों में खेती की समितियां गठित की जाएं। एक व्यक्ति के लिए आपदा का सामना कठिन है लेकिन यदि समाज एक होकर खड़ा हो तो आपदाओं के दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है। समितियों के लिए सभी निवेश (सिंचाई, उर्वरक, बीज, कीटनाशक, यंत्र, भंडारण, विपणन) आदि की सुविधा निशुल्क हो। उत्पादों का लाभकारी मूल्य निर्धारित हो। बागवानों और दुग्ध-उत्पादकों को भी इसमें सम्मिलित किया जाए। समितियों की पूरी व्यवस्था निवेश उपलब्धता यंत्रों की सर्विस व्यवस्था, भंडारण, विपणन सभी कार्य समितियों के सदस्यों के परिवार के सदस्य ही करें। इसके साथ-साथ सरकार द्वारा कृषि, बागवानी, दुग्ध उद्योग, स्थापित किये जाएं। इसमें दो राय नहीं कि इससे कृषि-समितियों, ग्रामीणों, कृषकों की स्थिति में सुधार होगा, तब निवेश आदि की सुविधाएं उचित मूल्य पर भी उपलब्ध कराई जा सकती है। इन सभी कार्यों के लिए मनरेगा के धन का उपयोग हो सकता है।