आ जादी के
समय देश को एक सूत्र में बांधने वाले और आज भी बहुत लोगों की
नजर में ‘नेहरू से
बेहतर प्रधानमंत्री साबित हो सकते थे’ वाले
सरदार वल्लभ भाई पटेल अब
पूरी तरह कुर्मियों के नेता बना दिए गए हैं। कुख्यात डकैत ददुआ
के भाई, पूर्व सपा
सांसद बाल कुमार पटेल तथा उनके बेटे, सपा
विधायक राम सिंह
मुख्यमंत्री से मांग करने गए थे कि 31 अक्टूबर
को सरदार पटेल जयंती पर सार्वजनिक
अवकाश घोषित किया जाए। बकौल बाल कुमार, मुख्यमंत्री
ने यह मांग मान लेने के
संकेत दिए। उनका इशारा यह भी था कि इससे भाजपा को झटका लगेगा, जो
प्रधानमंत्री की घोषणा के अनुसार गुजरात में पटेल की भव्य और सबसे ऊंची
प्रतिमा बना रही है। हम कहना चाहते थे- गजब रे, गजब! लेकिन याद आया
कि पटेल को
कुर्मी, जेपी को कायस्थ और लोहिया को वैश्य
गौरव बताते हुए जातीय सम्मेलन
हमने पिछले दशक में इसी लखनऊ में देखे। अब क्या हैरानी! सो, पटेल बाबा
की आत्मा को बिलखता छोड़कर हम हिसाब लगाने लगे कि अगर पटेल जयंती
पर सरकार छुट्टी घोषित कर दे तो यह राज्य कर्मचारियों को एक
साल में मिलने वाली 39वीं
छुट्टी होगी। तीन स्थानीय और दो निर्बंधित अवकाश भी इसमें जोड़
दें।
साल 2004 में इन
छुट्टियों की संख्या करीब 24 थी। उसके
बाद जातीय राजनीति की प्रतिद्वंद्विता में
सपा और बसपा सरकारों ने दिवंगत नेताओं की
जातीय पहचान उजागर कर जन्म और निर्वाण दिवसों पर छुट्टियां देना
शुरू किया। मायावती ने कांशीराम के जन्मदिवस (15 मार्च) और निर्वाण दिवस (09 अक्टूबर) पर छुट्टी घोषित
की थी, जिसे
अखिलेश सरकार ने रद कर दिया। सपा को
कांशीराम से कोई मोह नहीं, लेकिन दलित
नाराज न हों, इसके लिए अम्बेडकर
निर्वाण दिवस (06 दिसम्बर) पर छुट्टी दे
दी। अम्बेडकर जयंती (14 अप्रैल) पर राष्ट्रीय अवकाश
होता ही है। फरसा लेकर क्षत्रिय हीन
मही मैं कीन्हीं का उद्घोष
करने वाले ऋषि परशुराम की जयंती पर मायावती सरकार
ने छुट्टी की थी तो जवाब में सपा सरकार ने राजपूत शिरोमणि
महाराणा प्रताप के जन्मदिवस (09 मई) पर अवकाश दे दिया। बिहार के
मुख्यमंत्री और सम्पूर्ण
क्रांति के नायकों में से एक कर्पूरी ठाकुर की जाति नाई थी।
सो, यूपी में
उनके जन्मदिवस पर 24 जून को
अवकाश दे दिया गया, हालांकि बिहार
में उस दिन छुट्टी नहीं
होती। महर्षि निषाद राज जयंती (05 अप्रैल), चंद्रशेखर जयंती (17 अप्रैल) और ख्वाजा
मुईनुद्दीन चिश्ती के उर्स (26 अप्रैल) पर भी हाल में छुट्टियां घोषित की गईं।यह तथ्य स्वीकार करना चाहिए कि दलित और
पिछड़े वर्ग के महापुरुषों की हमारे यहां उपेक्षा हुई। देर
से ही सही, उन्हें उचित सम्मान मिलना ही चाहिए, लेकिन
क्या इसका कोई बेहतर और सम्मानजनक
तरीका नहीं हो सकता/ सरकारी काम-काज की छुट्टी तो समाज हित में है नहीं। तो फिर जन्म या निर्वाण
दिवसों पर सरकारी अवकाश रखना उन नेताओं का अपमान
क्यों नहीं माना जाना चाहिए/ छुट्टियां कम करके काम-काज को गति देना और उन नेताओं के रचनात्मक कर्मों को
आगे ले जाने का प्रयास क्यों नहीं किया जाना
चाहिए/ जातीय समूहों के वे कैसे नेता हैं, जो सार्वजनिक
अवकाश को गर्व और सम्मान की बात मानते हैं/ राजनीति ऐसी
क्षुद्र सोच से कब उबरेगी/ भारत सरकार की
सार्वजनिक अवकाश सूची दो निर्बंधित अवकाशों को मिलाकर 19 दिनों
की है। जातीय राजनीति के लिए बदनाम बिहार में एक साल में
कुल 34 छुट्टियां
होती हैं। अपना यूपी यहां भी अव्वल! अतएव, जो जाति समूह अब
भी सोए हुए हैं, जागें!