
- समाज तन्दुरुस्त और बोध दुरुस्त होना चाहिए
आये दिन मीडिया के विभिन्न माध्यमों में नए नए मुद्दों पर चर्चा होती रहती है फिर कुछ दिनों तक उसी की लहर चलती है और उसके शांत होने तक एक नई लहर बन जाती है ... जनमानस में इन लहरों का क्या होता है असर ?....कैसे इसका प्रयोग करते होंगे राजनीती के खिलाड़ी .... जनमानस में द्वन्द सा पैदा होता ये "चक्रवात"..... किसी मस्तिष्क की व्यूह रचना से बनाया गया "चक्रव्यूह "तो नही। आईये समझते है इस चक्रव्यूह की कितनी परते मनोविज्ञान खोल पाता है--
यदि आपसे कोई कहे , रुको मत भागो...या ...लड़ो मत प्रेम से
रहो... तो कुछ लोग इसका अर्थ निकालेंगे रुको,मत भागो अथवा लड़ो, मत प्रेम से
रहो.., या दुसरे लोग समझ सकते हैं कि रुको मत, भागो अथवा लड़ो मत, प्रेम
से रहो।और कहने वाला कहता है कि "मैं सिर्फ उसका जिम्मेदार हूँ जो मैंने
कहा उस बात का हरगिज़ नहीँ जो आपने समझा"।
अर्थात यहाँ संशय का जो मूल कारण समझ में आता है वह है हमारी "समझ का फेर" ।
यह इस बात पर ज्यादा निर्भर करता है कि किसी सन्दर्भ को देखने का हमारा
दृष्टिकोण कैसा है इसी कारण भारतीय परम्परा में विवाह गीतों के माध्यम से
प्रेम से सुनाई जाने वाली गलियां भी प्रिय लगती हैं किन्तु क्रोध से दिया
जाने वाला आशीर्वाद भी अप्रिय।
विचार किया जाए तो व्यक्तिगत से लेकर वृहद सामाजिक सन्दर्भों में इस "समझ
के फेर" से तथ्यों में सामन्जस्य स्थापित न हो पाने से कई बार अनपेक्षित
मुश्किलें हो जाया करती हैं।
दरअसल हमारे प्रतिक्रिया देने के पीछे कोई क्रिया प्रेरणा के तौर पर कार्य करती है यह दृश्य भौतिक वस्तु व्यक्ति या अदृश्यरूप में विचार कल्पना कुछ भी हो सकते हैं । हमारा मन मष्तिस्क दृश्य अदृश्य सभी आवेगों के प्रति उनकी तीव्रता या उनके प्रति हमारे आकर्षण के अनुरूप लिए प्राकृतिक तौर पर संवेदनशीलता व्यक्त करते हुए उन्हें ग्रहण करता है और उसके पश्चात ही प्रतिक्रिया देता है। अर्थात यहाँ तीन प्रमुख अवस्थाएं है पहली आवेग या प्रेरक वस्तु विचार अथवा उद्दीपन, दूसरा उसकी सुग्राह्यता, और तीसरा उसपर प्रतिक्रिया।
सम्मिलित रूप से ये मानसिक क्रियाएँ हैं जिन्हें यूँ समझ सकते हैं
उद्दीपन - कोई दृश्य ,विचार या व्यवहार (भौतिक या डायनामिक)हो
सकता है जिसे प्रेषित किया जा रहा हो। इनमे अपना आवेग, आवृति ,और आकर्षण
होता है।
सुग्राह्यता- संवेदनशील मस्तिष्क इंद्रियों के माध्यम से सन्देशों को ग्रहण
करता है।इस क्रिया में हमारे ध्यान मनोयोग रुचियों अभिरुचियों का विशेष
महत्व है।
समान्य तौर पर प्रतिक्रिया का आधार सुग्राह्यता ही होती है क्योंकि उम्र के साथ मानसिक विकास के क्रम में बोध अनुभव अथवा ज्ञान का विकास होता जाता है । इसमें मुद्रा या ठवन, स्मृति, बुद्धि , विचार , विश्लेषण, तर्क, सामन्जस्य, सक्रियता, अनवेंषण, कल्पना, रचना, भावना आदि क्रियाएँ जुड़ती जाती हैं जिनसे गुज़रने के बाद ही व्यवहार के रूप में प्रतिक्रिया प्रदर्शित होती है।
प्रतिक्रिया या व्यवहार- उद्दीपनो के बोधनुरूप ही व्यवहार किया जाता है ।
इस तथ्य को बालमन की निर्मलता पुष्ट करती है इसीलिए उन्हें अबोध निर्मल मन एवं सच्चे बच्चे कहते है क्योंकि वह किसी भी दृश्य अदृश्य अनुभूति की प्रतिक्रिया वैसी ही व्यक्त करते है। उनकी भाषा तोतली हो सकती है किन्तु भाव निस्वार्थ और व्यवहार निर्मल सरल ही होता है।
इस मन मस्तिष्क में संस्कारों का सृजन पोषण शिक्षा के ज़रिये
ही हो सकता है जिसके माध्यम से व्यक्ति में ज्ञान और "बोध " का सही विकास
होता है। बोध अनुभव आधारित तथ्यों के तर्कसंगत आत्मविश्लेषण, चिंतन, मनन से
ही होता है। यूँ तो स्वयं तय किये गए मानकों पर हर व्यक्ति सही होता है
किन्तु वर्तमान परिदृश्य में जीवन की जटिलताओं एवं संघर्ष ने परस्पर
प्रतिस्पर्धा को जो गति दी है उससे सामन्जस्य स्थापित कर पाने के लिए जो
आत्मसंयम चाहिए कहीं उसकी कमी हो तो नकारात्मक विचारों का घेरा उसके
आत्मविश्वास को ही कमजोर करने लगता है ऐसे में जीवन के लक्ष्य निर्धारण
स्थायित्व पारिवारिक सामाजिक आर्थिक प्रतिष्ठा की चिंता, अवसाद उसे घेर
लेते हैं।
ऐसे में किसी भी सम्भावना में अतिउदासीनता या सक्रियता में उचित अनुचित का भेद कठिन हो जाता है।
हमारे मन में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शित करने की उद्विग्नता भावनाओं
से मिलकर उद्वेलित होती है और जो लोग इस बात को समझते हैं वे अपने
निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इसे साधन के तौर पर इस्तेमाल कर सकते
है अथवा किसी भी सन्देश का विश्लेषण इतनी चतुराई से प्रस्तुत किया जाता है
कि वह सन्देश की मूलभावना को ही बदल देता है।वस्तुतः मतभेद, विवाद, संघर्ष,
इन्ही आधारों पर होते होंगे।
जैसे द्रोणाचार्य को उनके पुत्र की मृत्यु का झूठा समाचार देने के साथ
युधिष्ठिर के सत्यधर्मपालन के लिए श्रीकृष्ण ने आधे वाक्य (अश्वत्थामा
हन्ति...)में ही शंख बजा दिया जिससे द्रोणा्चार्य का वध किया जा सका।
जबकि यधिष्ठिर ने सत्य ही कहा था- "अश्वत्थामा हन्ति नरो वा हस्तिनो वा"।
हमारे जीवन में भीे ऐसे कई उदाहरण होंगे जबकि अभिव्यक्ति के भाव और सुनने
वाले की प्रतिक्रिया विपरीत या अनपेक्षित भावार्थ की मिलती होगी।
ज्यादातर लोग मन और मस्तिष्क को एक जैसा ही मानते है लेकिन मेरे विचार से
दोनों में एक सूक्ष्म अंतर बिलकुल वैसा ही प्रतीत होता है जैसे बुद्धि और
विवेक का।बुद्धि मन की तरह चंचल और अस्थिर है , इसी लिए मन में विचारों का
"चक्रवात " उठता ही रहता है जबकि विवेक मस्तिष्क में पूर्वस्थित स्मृतियो,
अनुभवों के आधार पर तार्किक विश्लेषण के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंच कर
प्रतिक्रिया देता है।मस्तिष्क में विचारों के "चक्रवात " को नियंत्रित और
पूर्व अनुभवों के आधार पर विश्लेषण कर भविष्य के निहित लक्ष्य को प्राप्त
करने की स्पष्ट योजना अर्थात चक्रव्यूह बना सकने की क्षमता होती है। कह
सकते हैं कि बुद्धि तात्कालिक किन्तु विवेक दूरदृष्टि को प्रदर्शित करती
है।
अर्थात यदि हमारा बोध सुस्पष्ट है तो हम विषयों के सही भावार्थ को समझने
में सक्षम होंगे । यदि इसी बिंदु को ही समझा जाए तो विषयवस्तु का सही बोध न
कर पाने से भ्रम या धोखे जैसी स्थिति बन जाती है , जैसे कोई रस्सी को सांप
समझ ले । ऐसे ही मान लीजिये चिकित्सक होने के नाते हम अपने किसी रिश्तेदार
की जाँच परख के बाद उसे सब ठीक है बताते हुए खुश रहने के लिए कहें और
मिठाई खाने से मना कर दें , और इसी बात से नाराज़ हो जाये। व्यक्तिगत जीवन
में यही छोटी बातें वृहद रूप में समाज के बड़े वर्ग या समूह पर भी लागू हो
सकती हैं क्योकि हमारा समाज भी तो हम और हमारे जैसे लोगो से ही मिलकर बना
है सभी की अपनी चिंताएं , समस्याएं , भावनाएं और समझने के तरीके हैं।इसलिए
हमे बोलने से पहले यह परख लेना चाहिए कि विषय की गम्भीरता क्या है? और
शब्दों के भाव क्या हो सकते हैं? अभिव्यक्ति की भंगिमा कैसी है? दूसरों के
समझने के आयाम क्या हो सकते हैं? और ठीक इसी प्रकार बोलने वाले के सन्दर्भ
के साथ उसके व्यक्तित्व भाव संकेत को भी समझने की कोशिश करनी चाहिए लेकिन
इसमे ज्यादातर हमे सकारात्मक पहलू पर ही ध्यान देना चाहिए इससे यदि कोई
व्यक्ति अपनी बात को नकारात्मक उद्देश्य की पूर्ती के लिए माध्यम बनाना
चाहता भी है तो उसे महत्वहीन बनाकर सिर्फ उसके सकारात्मक पक्ष को समाज
राष्ट्र हित में महत्व दें अन्यथा उसे पूरी तरह नकार दें। ऐसा करने से ऐसी
मंशा रखने वाले लोगों पर स्वयं अंकुश लग सकता है। क्योंकि स्वस्थ समाज की
कल्पना के लिए मानसिक स्वास्थ्य को भी ध्यान में रखना बेहद जरूरी है और यह
तभी सम्भव है जब
"सार सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय......."
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
रा सचिव HMA
सहसम्पादक-होम्यो मिरैकल