वेद देव स्तुति से भरे हैं। देवता माने जो देता है। सुर जो सुरा का सेवन करते हैं असुर जो नहीं करते। वेदों में सर्वाधिक प्रार्थना इंद्र की हुई है। पर इसका मतलब यह नहीं कि इंद्र सबसे महत्वपूर्ण देवता हैं। इंद्र के बाद सबसे ज्यादा मंत्र अग्नि पर है। ऋग वेद का आरंभ अग्नि पर लिखी ऋचा से होता है। यह सम्मान इंद्र को नहीं मिला है। दरअसल किस पर कितनी ऋचा है इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उसमें क्या लिखा है। इंद्र पर लिखी गईं अधिकांश ऋचाएं धन-धान्य के लोभ में लिखी गई हैं। यजुर्वेद के तीसरे अध्याय में लिखा गया है कि हे सैकडों कर्मो वाले इंद्र, हमारे और तुम्हारे मध्य परस्पर क्रय-विक्रय जैसा व्यवहार संपन्न हो। अर्थात मुझे हवन का फल मिलता रहे। हे इंद्र मूल्य लेकर क्रय योग्य फल मुझे दो। फिर उन ऋचाओं में इंद्र को सर्वश्रेष्ठ भी नहीं बताया गया है। अथर्ववेद में भात यानि चावल को देव मानकर कई ऋचाएं हैं। उनमें भात को जो सम्मान मिला है वह इंद्र के लिए लिखी गई सैकडों ऋचाओं में नहीं है। भात को न केवल त्रिदेवों का कारक बताया गया है बल्कि उसे काल का भी जन्मदाता माना गया है। इसी तरह उच्छिष्ट यानि जूठन-मधु की प्रशंसा में जो लिखा गया है उनमें भी मधु की इंद्र से अच्छी स्तुति है। इसी तरह रूद्र को भी जो महत्व दिया गया है यजुर्वेद में वह इंद्र से कम नहीं है। एक श्लोक में लिखा गया है- हे रूद्र आपके नेत्रों में तीनों लोक प्रकाशित हैं। आपको अन्य देवताओं से अलग और उत्कृष्ट जानकर हम आपको यज्ञ का भाग देते हैं। रूद्र को चिकित्सक के रूप में महत्व देते हुए कहा गया है कि - तुम सर्वरोगनाशक औषधि प्रदान करो और हमें जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करो। ऐसा नहीं था कि वैदिक ऋषि केवल देवों और त्रिदेवों को ही पूजते थे। वे भात, मधु, पत्थर, आदि के साथ यजमान को भी पूजते थे। अपनी प्रशस्ति गाने में भी वे पीछे नहीं रहते थे। बहुत से ऋषियों ने खुद पर ही ऋचाएं लिखी हैं। जैसे अथर्व वेद में अथर्वा खुद की अभ्यर्थना करते हुए अपने को देवताओं से भी बड़ा दिखाते हैं। यजुर्वेद के तीसरे श्लोक में यजमान के लिए ऋषि लिखते हैं- हे यजमान, यश के निमित्त अन्न और अपरिमित धन व बल पाने के लिए मैं तुझे पूजता हूं। इस तरह वेद देवों-मनुष्यों-ऋषियों के भौतिकवादी व्यवहार को ज्यादा उजागर करते हैं आध्यात्कि व्यवहार को कम।
वेदों की आधारभूमि
खेतिहर समाज के लिए वर्षा प्राथमिक जरूरत है, इसी तरह बादलों से वर्षा कराने वाले इंद्र की पूजा भी स्वाभाविक है।
वेद आदिग्रंथ है। इसमें मांसाहारी समाज से विकसित हो, नए-नए बन रहे खेतिहर समाज के अनुभवों को ऋषियों ने अपनी ऋचाओं में अभिव्यक्त किया है। इन दोनों समाजों के बीच का टकराव वेद की आधारभूमि है। पुराने वनरक्षक समाज को नए खेतिहर समाज ने राक्षस की संज्ञा दी। विकास यात्रा में जो व्यक्ति या वस्तु उन्हें सहायक दिखते हैं। वे उसे देवता मान पूजते हैं। इन देवताओं में अग्नि-इंद्र से लेकर सोम, ओदन (भात) और मधु आदि सैकड़ों चीजें शामिल हैं। इन वेदों में आपको पूजा-प्रेम-घृणा-क्रूरता सभी भावों की अभिव्यक्तियां दिखती हैं।
चारों वेदों में पहले और महत्वपूर्ण ऋग्वेद का आरम्भ मधुच्छन्दा ऋषि के अग्निदेव की अभ्यर्थना में लिखे गए श्लोकों से होता है। अग्नि को ही आरम्भ के लिए क्यों चुना गया इसका कारण इस श्लोक से हम समझ सकते हैं। इस ऋचा के अन्तिम श्लोक में लिखा गया है-हे अग्नि! पिता जैसे पुत्र के पास स्वयं ही पहुंच जाता है। वैसे ही तू हमको सुगमता से प्राप्त हो जाती है।
मतलब, विकास के क्रम में खेतिहर समाज को जो चीजें सहज उपलब्ध होती गईं और लाभकारी बनीं उन्हें देव पुकारा गया। अग्नि की विकास क्रम में महत्वपूर्ण जगह है। अग्नि की खोज ने खेतिहर समाज को मांसाहारी समाजों से आगे कर दिया। फिर यह अग्नि धीरे-धीरे सहज उपलब्ध होने लगी इसलिए इसकी अभ्यर्थना से ही ऋग्वेद का आरम्भ किया गया। वेदों में राक्षसों को अग्नि से डरने वाला बताया गया है। इससे भी जाहिर है कि अग्नि से राक्षसों का परिचय ठीक से नहीं था। विकास की कड़ी में वे पिछड़े रहे थे और खेतिहर समाज के कामों में भयवश अवरोध उत्पन्न करते थे।
अग्नि से भी ज्यादा वेदों में इन्द्र देवता की पूजा की गई है। इन्द्र को वर्षा का देवता कहा गया है। यहां स्पष्ट है कि खेतिहर समाज के लिए वर्षा प्राथमिक जरूरत है। इस तरह बादलों से वर्षा कराने वाले इन्द्र की पूजा स्वाभाविक है। अधिकांश श्लोकों में इन्द्र से धन-धान्य-गौ की मांग की गई है। उस काल में गौ की ज्यादा संख्या से धनी होने का सम्बन्ध था। वर्षा से जहां फसलें होती थी, वहीं गाय को पर्याप्त चारा भी मिलता था। इसलिए इन्द्र से गौ की रक्षा की मांग की जाती थी। गौ से ही खेती के लिए बैल भी प्राप्त होते थे। इसलिए मांसाहारी समाजों से संघर्ष में गौरक्षा मुख्य विषय था। इसी सन्दर्भ में इन्द्र द्वारा वृत्रासुर-वध का प्रसंग आता है। वृत्र को राक्षस पुकारा गया है। जो जल को रोके हुए था। दरअसल वृत्र के मानी वहां बादल से भी है। जिसे तडित कराकर (बिजली गिराकर या वज्र गिराकर) इन्द्र बारिश कराते हैं। वृत्र को ब्राह्मण भी कहा गया है, क्योंकि उसकी हत्या के बाद ब्रह्महत्या के भय से इन्द्र तालाब में छिप जाते हैं।
वैदिक काल में यज्ञ एक महत्वपूर्ण क्रिया-कलाप था। अधिकांश ऋचाओं में ऋषि देवों को अपना यज्ञ सफल बनाने के लिए आहवान करते दिखते हैं। यज्ञ भी खेतिहर समाज के लिए उस समय एक जरूरी क्रिया थी। खेतिहर समाज को खेती के लिए लगातार जमीन की जरूरत पड़ती थी, चूंकि उस समय चारों ओर जंगल थे, तो उसके लिए वनों काटना और जलाना पड़ता था। इससे नई जमीन हासिल होती थी। यही काम आगे यज्ञ के रूप में मान्य हो गई। यज्ञ में हवन के रूप में जंगल में लाई लकिडय़ां जलती थी। उससे उठे धुएं से बारिश होती थी, जो खेतिहर समाज के लिए जरूरी था। यज्ञों को लेकर भी मांसाहारी पूर्वजों से खेतिहर समाज के लोगों का युद्ध होता था। चूंकि यज्ञ के नाम पर वनों के विनाश से उनकी आखेट भूमि नष्ट होती थी। इसीलिए वे यज्ञों को नष्ट करते थे। और राक्षस की संज्ञा पाते थे। वेदों में इस दृष्टिकोण से भी कुछ नया खोजने की जरूरत है।
स्त्रियों ने भी रची हैं वैदिक ऋचाएं
जिस स्त्री के वेद पढऩे पर ही प्रतिबंध था, उसके कई हिस्सों की रचयिता वे खुद हैं।
वेदों को लेकर सबसे बड़ा वितंडा यह है कि यह अपौरुषेय है, वेदों का अध्ययन करने पर यह भ्रम सबसे पहले दूर होता है। वेद की हर ऋचा को रचनेवाले ऋषि का नाम उसमें दर्ज है और ऋषि एक-दो नहीं पच्चीसों हैं, जिनमें दर्जनों नारियां है। अब कोई एक लेखक हो तो उसका नाम लिखा जाए वेद के लेखक के रूप में, बहुत सारे लेखक होने के कारण ही सबका नाम उनकी रचना के साथ दे दिया गया है।
वेद ब्रह्मा की लकीर भी नहीं हैं, इस बारे में तो हमारे पुराने शास्त्रों में ही कई कथन मिल जाएंगे। पराशर-माध्वीय में कहा गया है-
श्रुतिश्च शौचमाचार: प्रतिकालं विमिध्यते।
नानाधर्मा: प्रावर्तन्ते मानवानां युगे युगे।।
मतलब, हर युग में मनुष्यों की श्रुति (वेद), आचार, धर्म आदि बदलते रहते हैं। अब सवाल उठेगा कि वेदों की तब क्या प्रासंगिकता है। जवाब में हम सिर ऊंचा कर कह सकते हैं कि वेद हमारे आदि पुरुषों-स्त्रियों के प्रथमानुभूत सुन्दर विचार हैं, पर वे अन्तिम विचार नहीं हैं। दरअसल, वेद उस समय की उपज हैं, जब विकास क्रम में लगातार नई-नई चीजों की खोज हो रही थी।
उनमें जो भी चीजें थीं, जो हमें कुछ देती थीं, वे आगे देवता कहलाने लगीं। ऐसा नहीं था कि केवल लाभदायक चीजें ही देवता कहलाईं। जो भय त्रास देती थीं, वे भी देवता कहलाई, जरा अपने कुछ प्रचलित वैदिक देवताओं के नाम देखें-जंगल, असुर, पशु, अप्सरा, बाघ, बैल, गर्भ, खांसी, योनि, पत्थर, दु:स्वप्न, यक्ष्मा (टीबी), हिरण, भात, पीपल आदि।
अब कुछ अप्रचलित ऋषियों के नाम देखें जिन्होंने वैदिक ऋचाए रचीं-मानव, राम, नर, कुत्स, सुतम्भरा, अपाला, सूर्या सावित्री, श्रद्धा कामायनी, यमी, शची पौलमी, ऊर्वशी आदि। वेदों की रचना में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका है, यह उपरोक्त स्त्री ऋषियों की ऋचाओं को पढ़कर जाना जा सकता है।
मजेदार बात यह है कि स्त्री ऋषियों ने कई ऐसी ऋचाएं रची हैं जिनमें उन्होंने खुद को ही सर्वशक्तिमान कहा है।
कहीं यह स्त्रियों की मजबूत स्थिति ही तो नहीं है कि आगे षड्यंत्रकारी पुरुष वैदिक भाष्यकारों ने उनको वेद पढऩे की ही मनाही कर दी, जिसकी आज तक वकालत की जाती है। जो स्त्रियां खुद वेद रच सकती हैं, उन्हें उनका पाठ करने से कोई कैसे रोक सकता है?
वेदों में प्रकृति को लेकर सहज उल्लास है, प्रकृति आज भी हमें उसी तरह उल्लासित करती है। वहां छोटी-छोटी कामनाओं के लिए आदमी इन्द्र से याचना करता है। आज तक वह याचक वृति हमारे लिए अभिशाप बनी चली आ रही है।
वह विकास का आरिम्भक दौर था और जानने की प्रक्रिया में यह एक सहज क्रिया थी, विशिष्ट नहीं। जैसे ऋग्वेद के दसवें खंड के 184 वें सूक्त में ऋषि त्वष्टा लिंगोक्ता: देव से प्रार्थना करते हैं-विष्णुयोनि कल्पयतु, त्वष्टा रुपाणि पिंशतु। मतलब, देवता इस स्त्री को प्रजनन योग्य बनावें। आज इस काम के लिए लोग डॉक्टर के पास जाते हैं।
इसी तरह सूक्त 165 में कहा गया है कि अमंगलकारी कबूतर को हम पूजते हैं। हे विश्वदेव, इसे यहां से दूर करें। क्या आज भी हमें कबूतर को अशुभ मान उनसे डरना चाहिए। आज कबूतर हमारे मिन्दरों में छाए रहते हैं और कोई उन्हें अशुभ नहीं मानता है। मतलब वेदों में सारा अटल ब्रह्मवाक्य ही नहीं है।
असुर नहीं, पूर्व देव
परम्परा में देवता और असुर दोनों के पूर्वज असुर हैं। उन्हें इसलिए पूर्वदेवा: भी पुकारा जाता है। असुर शब्द तो आधुनिक देवों के पूर्वदेवों (असुरों) से संघर्ष के बाद उनके लिए घृणा को प्रकट करने के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा।
कुछ लोग परम्परा के नाम पर खुद को वेदों तक सीमित रखते हैं वे पूर्वदवों की कृतियों को भूल जाते हैं। पौराणिक हिन्दू धर्म के पहले से निगमागम नाम प्रसिद्ध है। निगम का माने वेद हुआ और आगम का मतलब प्राग्वैदिक वैदिकेतर परम्परा। तुलसी दास ने भी निगमागम धर्म सम्मतं कहा है।
पूर्वदेवों को अयज्ञं: अनिंद्रां आदि भी पुकारा जाता था। अयज्ञा यानी यज्ञ प्रथा को न मानने वाले और अनिंद्रा मतलब इन्द्र को न माननेवाले। यज्ञ को मानने वाले उन्हें दास और दस्यु भी पुकारते थे। प्राग्वैदिकों के और भी कई नाम थे, जैसे-विद्याधर, नाग, यक्ष, राक्षस आदि।
यह कितनी मजेदार बात है कि असुर देवों के पूर्वज ही नहीं थे, वाकई उन्होंने देवों से पहले बहुत-सी अच्छी चीजें रची थीं। वहां सबकुछ बुरा नहीं था जैसा कि देवों ने उन्हें आगे साबित करने की कोशिश की। संभवत: वे सभ्य भी थे। भवन निर्माण की कला भी वे जानते थे। इन्द्र का एक नाम पुरंदर यानी पुरों (नगरों) को नष्ट करने वाला भी है। महाभारत में भी एक जगह मय असुर का जिक्र है जिसने पांडवों के लिए भवन निर्माण किया था।
अध्यात्म, दर्शन, ब्रह्मचर्य, आश्रम आदि की स्थापना भी देवों ने नहीं असुरों ने की थी। प्रह्लाद भी असुर थे उनके पुत्र कपिल ऋषि ने ही ये स्थापनाएं की थीं। यूं देव और असुर का बहुत साफ बंटवारा भी नहीं है। वैदिक देवों में एक देवता असुर भी है। फिर ऋषियों में एक कुत्स ऋषि हैं, यह शब्द कुत्सा से जुड़ा है।
ऋषि में सारी अच्छाइयां ही नहीं होती थीं। इस माने में ऋषि शब्द मुनि से बहुत दूर पड़ता है। ऋषि वैदिक शब्द है। जबकि मुनि बौद्ध और जैन धर्म से जुड़ता है। ऋषि जहां मूलत: मांसाहारी हैं, वहीं मुनि अहिंसक। ऋषि वेद सुननेवाले शूद्र को कान में गर्म रांगा भरने की बात करते हैं। जबकि मुनि दलितों के हितैषी और बौद्ध-जैसे सन्त सम्प्रदायों के जन्मदाता। मुनि मूलत: प्राग्वैदिक (वेदों के पूर्व से) हैं।
परम्परा में शिवत्व की जो भावना है उसका भी श्रोत वैदिकेतर (वेद से पूर्व) है। वेदों में शिव की नहीं रुद्र की चर्चा है। जबकि शिव का सम्बन्ध पूर्वदेवों से है। असुर गण (भूत-प्रेत-पिशाच) उनके सहज मित्र हैं। यक्ष और राक्षस भी उन्हें प्रिय हैं। अपने असुर गणों की सहायता से ही उन्होंने यक्ष प्रजापति का वैदिक यज्ञ विध्वंस किया था।
इसी तरह हनुमान, भैरव, शक्ति, गणेश आदि का सम्बन्ध भी शिव से है। वेदों में इनका जिक्र है भी तो गौण रूप में। वेदों में ग्राम हैं, पर नगर नहीं। वहीं पुराणों में नगर निर्माता असुर मय दानव की चर्चा है।
वेद शब्द का सम्बंध विद्या से है। विद्या जानने वालों से है। वेद चार ही हैं आज। यूं वेदत्रयी भी पुकारा जाता है। इसमें अथर्ववेद को छांट दिया जाता है। इसी तरह पहले धनुर्वेद, आयुर्वेद, गंधर्ववेद, सर्पवेद, पिशाचवेद, असुरवेद, आदि भी थे। जिन्हें बाद में भुला दिया गया है। देखा जाए तो असल में कर्मवेद वही थे, जबकि वेदत्रयी तो एक तरह से मनोवेद हैं। इसकी बातें भावनापरक और आकाशी ज्यादा हैं। जबकि बाकी वेद (विद्याएं) जीवन-जगत के ज्यादा काम की थीं। बाकी विद्याएं प्राग्वैदिक काल से ही चली आ रही थीं। प्राग्वैदिक देवों के अलग-अलग कामों से जुड़े उनके नाम थे, उनमें विविधता थी। जबकि वैदिक काल में एक मात्र मन की महत्ता को ही विविध रूप दे दिया गया। यजुर्वेद में एक श्लोक है, सूक्त 32 में-उसका अर्थ है कि अग्नि, वायु, आदित्य, प्रजापति, आदि एक ही देवता हैं। वे एक ही मूलतत्व की विभूतियां हैं।
साधो, मन माने की बात
मन एवं मनुष्याणां मन यानी कि मानस ही मनुष्य है, एक प्रचलित उक्ति है। वेद भी मन की महत्ता से भरे हैं। आज भी मन की शक्ति से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहा है कोई। सारे संयम मन से ही संचालित होते हैं। कबीर ने भी लिखा था - मन ना रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा। पिछले वर्षों में भारत में ऐसे जोगियों की धूम मची रही। जो वेद-परम्परा आदि के नाम पर एड़ी-चोटी का पसीना एक करते रहे। काश! उन्होंने वेदों को पढऩे की जहमत उठाई होती तो उनहें एक-दूसरे के खून से अपने हाथ न रंगने पड़ते। मानो तो देव नहीं तो पत्थर यह लोकोक्ति वैदिक ही है। क्योंकि वहां भी यही लचीलापन है।
यजुर्वेद में लिखा है - इयमुपरि मति, मतलब यह जो मानस से उपजी बुिद्ध है, वही सर्वोपरि है। आगे की ऋचाओं में उसे विश्वकर्मा भी बताया गया है। प्रजापति विश्वकर्मा मनो गीर्वा यानी मन रूपी गंधर्व ही प्रजापति ब्रह्म और विश्वकर्मा है।
दरअसल वेद के सारे कथन मनमाने की बात हैं। वे प्रमाण हैं कि कैसे मानव मन का निरन्तर परिष्कार होता गया। उन्होंने वही लिखा, जो उनके मन को भाया। ऋग्वेद के पांचवें मंडल के सत्तरवें सूक्त में एक पंक्ति है-वय ते रुद्रा स्यामा। यानी हम भी दु:खहारी रुद्र हों। वहीं पहले मंडल के 164वें सूक्त में एक पंक्ति में इसी तरह कहा गया है कि हम सब भगवान हों। माने आदमी-देवता और भगवान में कोई विशेष अन्तर नहीं था। वैदिक माल में वैदिक ऋषि देवता होने की कामना करते थे, देवता होते थे और जो उनके मन को भाता था उसे देवता पुकारते थे। यह सब मनोभाव के स्तर पर था, उसकी कोई मूर्ति नहीं थी। यजुर्वेद के बत्तीसवें सूक्त में एक पंक्ति है न तस्य प्रतिमा कअस्ति। यानी उस परमचैतन्य की मूर्ति नहीं बनाई जा सकती।
देखा जाए तो वैदिक काल में मनुष्यों का मन भी तरह-तरह की कल्पनाएं करता है। जब वह सुबह को देखता है तो उल्लिसत हो उठता है और उषा की अर्चणा में ऋचाएं रचता है। रात से वह भी भय खाता है और उसे सर्वग्रासी बताता है। सोमपान के बाद उसका मन भी प्रमत्त हो जाता है और वह असंभव कल्पनाएं करने लगता है। जरा ऋग्वेद के दसवें मंडल के 119वें सूक्त की पंक्तियों के अर्थ देखें। उसमें कहा गया है कि मैं पृथ्वी को जहां चाहूं उठाकर रख सकता हूं, क्योंकि मैं अनेक बार सोमपान कर चुका हूं। मनोभावों को स्वच्छन्द ढंग से अभिव्यक्त करने की यह प्रवृत्ति मात्रा पुरुषों में ही नहीं है। स्त्रियां इसमें और भी आगे है। ऋग्वेद के अन्तिम मंडल के 159वें सूक्त में पंक्ति है-अहं के तुरहं मूर्धा इहा मुग्रा विवाचुनी। यानी मैं (गृहपत्नी) घर की, परिवार की ध्वजा हूं। मस्तक हूं।
ब्रह्म (अन्न) सत्यं, जगत मिथ्या
परस्पर सद्धावना, जीव मात्रा के प्रति प्रेम, सहिष्णुता आदि भारतीय लोकमानस के जो सकारात्मक पहलू हैं। उनकी जड़ें, वेदों में ही हैं। वेदों में धर्म और भाषा के विभेद नहीं है। अथर्व वेद के बारहवें कांड के पहले सूक्त में एक पंक्ति है - जनं बिभ्रती बहुध विवाचसं नानाधर्माणां पृथिवी यथौकसम। मतलब अनेक धर्म और भाषा वाले मनुष्यों को पृथ्वी समान रूप से धारण करती है। यह जो वेदों की सहज समतामूलक दृष्टि है, उसे हम उदारता के रूप में व्याख्यायित करते हैं।
एक चिरंतन सवाल है कि सत्य क्या है। क्या वह चिरंतन भी होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में सत्य के बारे में लिखा है-चक्षुर्वे सत्यम, मतलब जो दिख रहा है, वही सत्य है। शतपथ ब्राह्मण में सत्य को देव और ब्रह्म कहा गया है। इसी में आगे कहा गया है कि अभय ही स्वर्ग है। अब यहां सवाल उठता है कि अभय क्या हुआ? दरअसल अभय का सम्बन्ध दृष्टि से है। सत्य को देखने वाली दृष्टि। यह दृष्टि विकसित हो जाने पर जब आप सत्य को उसके बहुआयामी स्वरूप में समझने लगते हैं तो जीवन को लेकर आपकी आशंकाएं कम होती हैं और आप निर्भय होते जाते हैं।
उपरोक्त सन्दर्भ में देखें तो किसी रहस्य के लिए कहां जगह बचती है। बातें इतनी साफ हैं वहां कि हमें किसी स्वामी या बापू की जरूरत नहीं है इन्हें समझने के लिए। अथर्ववेद में लिखा है- गातु वित्वा गातुमित। यानी मार्ग को जानो फिर चलो। यह नहीं है कहीं कि सत्य का दृष्टा मैं हूं, पैगम्बर या मसीहा और आप सब मेरी राह पर चलें। अथर्ववेद में ही आठवें कांड के पहले सूक्त में कहा गया है कि पितरों की राह पर न चल (मानुगा- पितृन)। तो, लीक लीक गाड़ी चले, लीके चले कपूत, जैसे लोक में प्रचलित मुहावरों की जड़ें भी हम वेदों में पाते हैं। वेदों में हर जगह मन की, बुद्धि की ही महत्ता है। यजुर्वेद में है कि प्रजापति (मन) ने असत्य में अश्रद्धा और सत्य में श्रद्धा को स्थापित किया।
अगर उपनिषदों को देखें तो वहां और भी आगे की बातें हैं। इशावास्योपनिषद् में एक जगह कहा गया है, निरे भौतिकवादी अंधकार में जा पहुंचते हैं। अब हमारे बापू नाम केवलम् वाले यह पंक्ति पढ़कर लेगेंगे भौतिकवादियों को समझाने की देखो कैसी गर्हित बातें हैं परम्परा में, भौतिकवादियों के लिए। पर इसी श्लोक की अगली पंक्ति में लिखा है, निरे अध्यात्मवादी उससे भी गहरे अंधकार में जा पहुंचते हैं।
यहां सवाल उठता है कि तब क्या किया जाए? भौतिकवाद, न अध्यात्मवाद। तो फिर! यहां निषेध नहीं है, बल्कि कहा गया है कि कोई भी वाद हो उसे आंख मूंदकर ना स्वीकारें जीवन के द्वंद्व को समझें। और अपने समय सन्दर्भ में उसकी व्याख्या करें।
अगर ध्यान से देखा जाए तो हमारे पुराग्रंथों में भौतिकवाद को कहीं भी अध्यात्म से कम नहीं आंका गया है। सामवेद में एक ऋचा में अन्न को ब्रह्म से भी पहले जन्मा बताया गया है। अरण्यक में लिखा गया है कि अन्न ही ब्रह्म है। अरण्यक के इसी अध्याय में आगे कहा गया है कि तप (कर्म) से ही ब्रह्म (अन्न) को पाया जा सकता है। अरण्यक के आठवें अध्याय की दूसरी कंडिका में कुछ पंक्तियां यूं हैं -
अन्नं ही भूतानां ज्येष्ठ्म तस्मात् सर्वेषध मुच्यते।
अन्नाद् भूतानि जायन्ते, जातान्येन्नेन वधनते।
मतलब जीवन-जगत् में अन्न ही श्रेष्ठ है। वह सभी रोगों की औषध है। अन्न से ही प्राणी पैदा होते हैं और अन्न से ही बढ़ते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में तो अन्न को विराट भी बताया गया है। (अन्नं वै विराट) उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में अगर अब हम कहें कि ब्रह्म (अन्न) सत्यं, जगत मिथ्या तो क्या अनर्थ होगा।