भारतीय इतिहास में जो व्यक्ति अपनी बहादुरी और दृढ़ निश्चय के लिए मशहूर हुए हैं, उनमें राणा प्रताप का नाम विशेष आदर से लिया जाता है। इस वर्ष उनकी 475 वीं जयंती धूमधाम से मनाई जा रही है। मेवाड़ के गौरव राणा प्रताप का राजतिलक वर्ष 1572 में हुआ। उस समय भारत का सबसे शक्तिशाली राजा विख्यात मुगल सम्राट अकबर था। वर्ष 1576 में हल्दीघाटी की लड़ाई में राणा प्रताप की टक्कर मुगल सेना से हुई। उसके बाद राणा प्रताप को जगह-जगह पर जंगलों और पहाड़ों में घूमते हुए अपना संघर्ष जारी रखना पड़ा। कभी वे कुछ किले और क्षेत्र प्राप्त कर लेते थे तो कभी ये हाथ से निकल जाते थे। पर 1597 में अपनी मृत्यु तक उन्होंने यह संघर्ष निरंतर जारी रखा। अपनी मृत्यु से पहले वे अपने अनेक किले और क्षेत्र वापिस ले चुके थे।
अपने राजतिलक के बाद के 25 वर्षों में से वे हल्दीघाटी की लड़ाई तक के मात्र चार वर्ष ही अमन-चैन से गुजार सके थे। शेष 21 वर्ष तक उन्हें इस समय की एक अति शक्तिशाली विश्व स्तर की सेना के विरुद्ध बहुत कम साधनों से निरंतर जूझना पड़ा। इन 21 वर्षों के दौरान उन्होंने जिस कभी न विचलित होने वाले, कभी न झुकने वाले साहस का परिचय दिया, उससे वे सदा के लिए अमर हो गए।
यह उपलब्धि केवल व्यक्तिगत बहादुरी की ही नहीं थी। राणा प्रताप के ऐसे अनेक साथी थे जिन्होंने कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उनका साथ नहीं छोड़ा। इन सब के सहयोग से ही इतना लंबा संघर्ष चल सका। इस बात के भी प्रमाण हैं कि उस समय मेवाड़ में महत्वपूर्ण निर्णय, आपसी विचार-विमर्श के बाद, एक-दूसरे की राय जानकर लिए जाते थे। इस कारण भी एकता बनाए रखने और आपसी साझेदारी से संघर्ष करने में सहायता मिली। इसका सबसे शानदार उदाहरण है, राणा प्रताप द्वारा भील सरदारों और भीलों का सहयोग प्राप्त करना। पहाड़ों और जंगलों को जितनी अच्छी तरह से यहां के भील जानते थे, उतनी अच्छी तरह और कोई नहीं जानता था। उनसे राणा प्रताप को संघर्ष में जो सहायता मिली वह और किसी से प्राप्त नहीं हो सकती थी। राणा प्रताप ने उनसे बहुत अच्छे संबंध स्थापित किए। इस सहयोग के प्रतीक के रूप में आगे चलकर मेवाड़ के राजचिह्न पर एक ओर एक राजपूत और दूसरी ओर एक भील की आकृति अंकित की जाने लगी।
इन तमाम पहलुओं को देखते हुए राणा प्रताप की बहादुरी और समझदारी की प्रशंसा तो जरूर होनी चाहिए, किन्तु कुछ लोग एक गलती यह करते हैं कि राणा प्रताप की प्रशंसा के साथ मुगल शासक अकबर की बहुत सी बुराई भी जोड़ देते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि प्रताप जीवन-भर अकबर की सेना से लड़े थे, अत: यदि प्रताप को नायक मानना है तो अकबर को खलनायक मानना पड़ेगा। यदि प्रताप को अच्छा मानना है तो अकबर को बुरा मानना पड़ेगा। इतना ही नहीं, कुछ लोग तो इससे भी बड़ी गलती करते हैं और प्रताप तथा अकबर की लड़ाई को हिन्दू-मुस्लिम लड़ाई के रूप में पेश कर देते हैं। ये सब बहुत ही संकीर्ण सोच की बातें हैं, अनुचित बातें हैं। इतिहास की सच्चाई इससे बहुत अलग है। बादशाह अकबर भी अपनी जगह पर एक महान शासक थे जिनकी अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। राणा प्रताप की अच्छाईयां देखते हुए हमें अकबर की उपलब्धियों से भी मुंह नहीं मोडऩा चाहिए।
चूंकि राणा प्रताप और अकबर दोनों ही भारतीय इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण शासक रहे हैं, अत: इन दोनों के टकराव के बारे में जो अनेक भ्रान्तियां पैदा की गई हैं, यानि अनेक तरह की गलत समझ फैलाई गई हैं, उसे दूर करना जरूरी है।
पहली भ्रान्ति तो यह फैलाई जाती है कि यह हिन्दू और मुसलमान के बीच हुआ युद्ध था। लेकिन सच्चाई तो बहुत अलग है। हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप की सेना के एक महत्वपूर्ण हिस्से का नेतृत्व हकीम खां सूर ने किया था। दूसरी ओर, अकबर की ओर से हल्दीघाटी की लड़ाई में अपनी पूरी सेना का नेतृत्व आमेर के राजपूत मानसिंह के हाथ में दिया गया था। अत: हल्दीघाटी का जो सबसे महत्वपूर्ण युद्ध था उसमें दोनों ओर से मिली-जुली सेना थी। दोनों ओर हिन्दू भी थे और मुस्लिम भी थे। फिर इसे कैसे हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई कहा जा सकता है?
महाराणा प्रताप पर एक निबंध में इतिहासकार के.वी. मुखिया लिखते हैं, ''हल्दीघाटी के युद्ध में हकीम खां सूर अपने साथियों के साथ प्रताप के पक्ष में लड़ा जिसका समाधि-स्थल आज भी हल्दीघाटी के पास बना हुआ है। जालौर के सूबेदार ताज खां से प्रताप के अच्छे संबंध थे। ललित कला के क्षेत्र में भी प्रताप के समय कई मुसलमान कलाकार हुए हैं जो इन कलाओं में अपनी अमर छाप छोड़ गए हैं।ÓÓ आगे वे लिखते हैं, ''मेवाड़ में सिन्धी-मुसलमानों को भी जागीर बख्शी गई थीं जो देश की स्वतंत्रता से पूर्व तक कायम थीं।ÓÓ
अत: यह स्पष्ट है कि चाहे शान्ति का समय हो या युद्ध का, राणा प्रताप कभी मुस्लिम विरोधी नहीं थे और उन्होंने अपने मुस्लिम मित्रों के साथ मिल-जुलकर काम किया। दूसरी ओर, यह बताना भी उतना ही आवश्यक है कि बादशाह अकबर हिन्दू विरोधी नहीं थे और उन्होंने युद्ध और शान्ति दोनों समय हिन्दू मित्रों के साथ गहरा सहयोग बना कर काम किया। हल्दीघाटी के महत्वपूर्ण युद्ध में अकबर ने मानसिंह को अपना मुख्य सेनापति बनाया, इससे पता चलता है कि उन्हें अपने हिन्दू मित्रों पर कितना गहरा विश्वास था।
अकबर की सेना में जो बड़ा दर्जा सात हजारी मनसबदार का था वह मानसिंह को दिया गया था। मानसिंह को कभी काबुल तो कभी बंगाल और बिहार का सूबेदार भी नियुक्त किया गया। अन्य राजपूत राजाओं को भी लाहौर, आगरा, अजमेर, गुजरात जैसे अति महत्वपूर्ण प्रदेशों का सूबेदार बनाया गया। राजपूत राजाओं को अपने आंतरिक मामलों में काफी स्वतंत्रता देने के साथ-साथ अकबर ने उन्हें अन्य बड़ी-बड़ी जागीरें भी दीं।
अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाले जजिया कर को हटा दिया और तीर्थ कर भी समाप्त कर दिया। उसने संस्कृत की अनेक पुस्तकों का फारसी में अनुवाद करवाया। उसने अथर्ववेद, महाभारत, रामायण, गीता व पंचतंत्र का अनुवाद पूरा करवाया या उसकी शुरुआत की। अकबर के सबसे प्रिय लोगों में राजा टोडरमल और बीरबल (महेशदास नामक एक ब्राह्मण को यह उपाधि दी गई थी) जैसे हिन्दू थे।
वर्ष 1580-81 में अकबर के विरुद्ध एक विद्रोह मुस्लिम कट्टरपंथियों ने करवाया। इसको अकबर के पोषक भाई और काबुल के शासक मिर्जा हाकिम ने समर्थन दिया। बंगाल, बिहार तक यह विद्रोह फैल गया। इस स्थिति में अकबर ने बंगाल-बिहार में जो सेना भेजी उसका मुख्य सेनापति टोडरमल को बनाया। उसने मिर्जा हाकिम के विरुद्ध जो सेना भेजी उसका सेनापति मानसिंह को बनाया। मुस्लिम कट्टरपंथी विद्रोह को दबाने के लिए हिन्दू सेनापतियों को भेजने से पता चलता है कि अकबर का अपने हिन्दू मित्रों के साथ कितने गहरे विश्वास का रिश्ता था।
इस तरह यह स्पष्ट है कि न तो राणा प्रताप मुस्लिम विरोधी थे और न बादशाह अकबर हिन्दू विरोधी थे। इन दोनों के बीच हुए युद्धों को भी हिन्दू-मुस्लिम युद्ध किसी तरह नहीं कहा जा सकता है।
दूसरी भ्रान्ति यह फैलाई जाती है कि अकबर साम्राज्यवादी था और राणा प्रताप का संघर्ष साम्राज्यवाद के विरुद्ध था। वास्तविक स्थिति यह है कि उस समय के राजनीतिक माहौल में विभिन्न राज्यों में आपस में निरंतर युद्ध होते रहते थे। अनुकूल मौका देखकर कोई भी अपेक्षाकृत मजबूत राज्य अपना विस्तार करने का प्रयास करता था। इसलिए केवल मुगल शासकों को साम्राज्यवादी बताना उनके साथ अन्याय होगा और इतिहास के साथ खिलवाड़ होगा।
राणा प्रताप के बाद उनके पुत्र अमर सिंह का राजतिलक हुआ। उधर अकबर की मृत्यु के बाद जहांगीर ने मुगल राज्य संभाला। वर्ष 1613 में जहांगीर ने शाहजादे खुर्रम (जो बाद में शाहजहां नाम से विख्यात हुआ) को मेवाड़ के पहाड़ी इलाकों पर हमले के लिए बड़ी सेना के साथ भेजा। इस आक्रमण ने मेवाड़ के लोगों के जीवन और उनकी आजीविका को खतरे में डाल दिया। आखिर लोग कितने हमले सह सकते थे। इस कारण कई सरदारों और मुख्य लोगों ने यह कहना आरंभ किया कि मुगलों से समझौता कर लेना चाहिए। सुलह-समझौते के प्रयास में अमर सिंह के बेटे करण सिंह को जहांगीर के दरबार में भेजा गया। यहां जहांगीर ने करण सिंह का बहुत सम्मानपूर्वक स्वागत किया। राजकुमार करण सिंह को 5000 की मनसबदारी दी गई। राणा के जीते गए प्रदेश भी वापिस दे दिए गए। इस तरह इस लंबे संघर्ष का अंत सुलह-समझौते में सम्मानपूर्ण तरीके से हुआ।
संक्षेप में कहें तो राणा प्रताप और बादशाह अकबर के संघर्ष में एक को भला व दूसरे को बुरा बताना उचित नहीं है। राणा प्रताप अपनी जगह पर महान थे तो बादशाह अकबर अपनी जगह पर महान थे। परिस्थितियां कुछ ऐसी बन पड़ी कि दोनों में टकराव हुआ। अकबर ने भारत के एक बड़े हिस्से में एक मजबूत राज्य बनाया। इस प्रयास में अकबर ने विभिन्न राजाओं को पहले दोस्ती से मनाने की कोशिश की। उनकी रजामंदी न होने पर युद्ध भी किया। कई योग्य व बहादुर राजा जैसे भारमल और उनके परिवार के सदस्य जैसे मानसिंह आरंभ से ही अकबर के साथ मिल गए जबकि कुछ ने युद्ध किया। इसमें किसी को भला-बुरा नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सबने अपनी-अपनी समझ व अपनी-अपनी प्रजा के हितों की समझ के अनुसार काम किया। अलग-अलग रास्तों पर चलते हुए भी यदि अकबर ने अपने गुणों से इतिहास के पन्नों में स्थान हासिल किया राणा प्रताप ने भी अपने महान गुणों की अमिट छाप इतिहास के पन्नों पर छोड़ी।
राणा प्रताप की महानता से कोई इंकार नहीं कर सकता है। पर इसके लिए अकबर को बुरा कहना जरूरी नहीं है और न ही मानसिंह, भारमल जैसे अकबर के मित्रों को बुरा कहना जरूरी है। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी समझ के मुताबिक सम्मानजनक जीवन जिया और इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया। अन्त में यह जरूर कहना होगा कि राणा प्रताप में जैसा दृढ़ निश्चय और साहस था, उसकी मिसाल बहुत कम मिलती है।